बरसों तक वन में घूम-घूम,
बाधा विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप, घाम, पानी, पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर!
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने ये पंक्तियाँ पांडवों के अज्ञातवास और वनवास से लौटने पर लिखी थीं। इसके साथ ही उन्होंने जोड़ा था, ‘सौभाग्य न सब दिन सोता है, देखें आगे क्या होता है!’
लगातार चल रही राम मंदिर मामले की अदालती सुनवाई पर ये पंक्तियाँ अपने-आप ही याद आ जाती हैं। शुरुआती पंक्तियाँ इसलिए क्योंकि अयोध्या में राम मंदिर तक पहुँचने के लिए पाँच सुरक्षा जाँच की रुकावटें पार करनी पड़ती हैं। हिन्दुओं के बड़े तीर्थ देखें तो उनमें से अधिकतर दुर्गम स्थानों पर मिलेंगे। संभवतः ऐसे दुर्गम स्थानों पर ये तीर्थ इसलिए बने क्योंकि ये सबके मुँह उठाकर पहुँच जाने की जगहें नहीं थीं। जिसने इस दिशा में विशेष प्रयास किए हों, वही यहाँ तक पहुँचे, ऐसी सोच शायद रही हो।
यही वजह थी कि गाँधी भारतीय रेलवे के प्रखर विरोधी थे। वो कहते थे कि रेलवे और ट्रेन के होने से हिन्दुओं के लिए उनके तीर्थों तक पहुँचना सुगम हो गया है (और होता जा रहा है)। इससे अयोग्य और अनाधिकारी भी मंदिरों में पहुँचने लगेंगे, जिससे की तीर्थ की शुचिता भंग होती है। मेरे ख़याल से इसकी एक और वजह भी रही होगी। ऐसे एकांत और निर्जन स्थलों पर साधु-सन्यासियों ने बरसों साधना की होगी। लगातार योगियों, सिद्धों आदि के संसर्ग से उस क्षेत्र पर भी असर पड़ा होगा। ऐसे साधु आमतौर पर नगरों से दूर ही रहते हैं, इसलिए भी तीर्थ आम लोगों की भीड़-भाड़ से अलग, कहीं दूर ही स्थापित हुए।
अभी जब राम मंदिर मामले पर सुनवाई चल रही है, तब क्या आम भारतीय भी इस मामले पर पढ़ना-सुनना और जानना चाहता होगा? अगर ख़रीदी जा सकने वाले मीडिया चैनलों के हिसाब से सोचें तो इसका जवाब होगा नहीं। अख़बारों, टीवी की बहसों या रेडियो पर शायद ही कुछ देखने-सुनने को मिलता है। इसकी तुलना में सोशल मीडिया पर किसी आम आदमी का मैसेज वायरल होता नजर आता है। इसमें कहा गया है कि रावण पर राम की विजय के उपलक्ष्य में मनाए जाने वाले दशहरा की वजह से अदालत 7 से लेकर 12 अक्टूबर तक छुट्टी पर है और राम के अयोध्या लौटने की ख़ुशी में मनाई जाने वाली दीपावली पर वो 28 से 31 तक बंद रहेगी। इसके बाद अदालत इस बात पर सुनवाई करेगी कि राम जन्मभूमि थी भी या नहीं!
इसके आधार पर देखें तो ऐसा लगता है कि आम आदमी की भावना को ख़रीदी जाने वाली मीडिया समझ नहीं पा रही, या जान बूझकर नकार रही है। समझ नहीं पा रही का सवाल तो पैदा ही नहीं होता, क्योंकि वहाँ काम करने वाले लोग भी समाज से ही आते हैं और दिन भर में कई आम लोगों से मिलते भी रहते हैं। फिर क्या वजह हो सकती है कि इसके बारे में कुछ बोला-लिखा नहीं जा रहा? असल में इस पर बात करना कई स्थापित शहरी मिथकों की धज्जियाँ उड़ा देता है।
उदाहरण के तौर पर ये कहा जाता है कि मंदिरों की कमाई बहुत है और उससे आम आदमी का भला होना चाहिए। समस्या ये है कि मंदिर और उसकी आय की बात करते ही नजर आने लगेगा कि मंदिरों की संपत्ति तो पहले ही सरकारी कब्जे में है। फिर ये भी बताना पड़ेगा कि भारत की सेक्युलर-धर्मनिरपेक्ष सरकार बहादुर ने सबसे ज्यादा जमीनों वाले चर्च और वक्फ बोर्ड को तो सरकारी नियंत्रण से मुक्त रखा है लेकिन मंदिरों की जमीनें समय-समय पर, किसी न किसी बहाने से बेचती रही है।
अयोध्या राम जन्मभूमि के दर्शनों के लिए हर रोज पाँच सुरक्षा घेरे पार करके करीब चार सौ श्रद्धालु पहुँचते हैं। इस मंदिर के “रिसीवर” अयोध्या के डिवीज़नल कमिश्नर (नाम पर गौर कीजिए – मनोज मिश्रा) होते हैं जो मंदिर को मिलने वाले चढ़ावे को एक अलग बैंक अकाउंट में रखते हैं। प्रति माह ये आय करीब छह लाख होती है। सन 1992 से यहाँ के महंत (नाम पर ध्यान दीजिए– महंत सत्येन्द्र दास) मंदिर के रख-रखाव के लिए मिलने वाले पैसे को कुछ बढ़ाने की बात कर रहे थे। उन्हें 26,000 रुपये प्रति माह मिलते थे, जिसे अभी-अभी बढ़ाकर 30,000 (पहले से चार हजार ज्यादा) करने की महती कृपा “मनोज मिश्रा” जी ने की है। हर महीने मिलने वाले छह लाख में से सरकार बहादुर, तम्बू में रह रहे श्री राम के रख-रखाव के लिए तीस हजार ही क्यों देगी- ये हमें पता नहीं।
मंदिर से जुड़े खर्चे और भी हैं। महंत और उनके सहयोगियों की मासिक तनख्वाह भी बढ़ाने का फैसला सरकार बहादुर की तरफ से रिसीवर “श्री मनोज मिश्रा” कर चुके हैं। पहले मिलने वाले 12,000 की तुलना में अब महंत सत्येन्द्र दास को 13,000 मिलेंगे। उनके साथ काम करने वाले करीब आठ लोगों को 7,500 से 10,000 रुपए के बीच की तनख्वाह मिलती थी। इसमें भी सरकार बहादुर ने कृपा बरसाते हुए हरेक के लिए पूरे 500 रुपए की बढ़ोत्तरी करने की मेहरबानी की है।
मेरा विश्वास है कि बिकाऊ मीडिया चैनलों के जरिए ऐसी मोटी तनख्वाह और भत्तों की बात अगर फैलती तो जैसे-तैसे गुजारा कर रहे स्किल्ड लेबर या सेमी स्किल्ड लेबर (जो पता नहीं किस न्यूनतम दैनिक मजदूरी पर काम करते हैं) जरूर नाराज होकर हड़ताल करते। अच्छा ही है कि ज्यादा बिकने वाले समाचार-पत्रों या प्राइम टाइम पर ये चर्चा नहीं हुई।
बाकी जिन्हें लगता हो कि भारतवर्ष में हिन्दुओं को दोयम दर्जे के नागरिकों की तरह नहीं रहना पड़ता, वो ढूँढने के प्रयास करें। अगर तुलनात्मक रूप से हिन्दुओं को अपने धर्म और पूजा-पद्धतियों के पालन के संवैधानिक अधिकार दिए जाने का एक भी उदाहरण दिखता हो, तो हम भी उस एक उदाहरण को देखना चाहेंगे।