गुरुकुल पद्धति को तहस-नहस कर कॉन्वेंट शिक्षा पद्धति की नींव रखा था लॉर्ड मैकाले ने। क्यों उसने ऐसा किया था, यह इतिहास की बात है। वर्तमान में भी उसका कितना असर पड़ रहा है, यह सीखने-समझने की जरूरत है। उसके द्वारा लिखे पत्रों से इस बात का खुलासा होता है कि अपनी शिक्षा पद्धति के माध्यम से वह कौन से विष बीज बो रहा था भारतीय समाज में, जिनकी फसल निकट भविष्य में आनी ही थी, वो आज दिख भी रही है।
मैकाले लिखता है कि आने वाले वक्त में भारतीय समाज शरीर से हिन्दुस्तानी होगा लेकिन आत्मा उसकी एक अंग्रेज की होगी। आज वही सब परिलक्षित होता दिखाई दे रहा है।
सनातन आस्था के सबसे बड़े केन्द्र तिरुपति बालाजी के प्रसादम् में गाय और सुअर की चर्बी की मिलावट का मामला बेहद निंदनीय और गहरा षड्यंत्र है। यह सनातन आस्था पर गहरी चोट करता है। बड़ी चिंता का विषय लेकिन यह है कि ऐसे घृणित मामले पर समाज के उस बड़े तबके से विरोध के जो स्वर उठने चाहिए थे, वह नज़र नहीं आते।
ऐसे ही मसले पर इतिहास में हिंदू समाज की क्या प्रतिक्रिया थी, वह जानने लायक है। 1857 में एक अफ़वाह उठी थी (जिसके पुख़्ता प्रमाण नहीं हैं) कि अंग्रेज कारतूसों में चर्बी मिलाते थे। इस एक अफवाह पर पूरी क्रान्ति की ज्वाला भड़क उठी थी। तब की क्रान्ति की तुलना वर्तमान मामले से कर लेते हैं। तिरुपति बालाजी प्रसादम् में चर्बी वाली बात लैब टेस्टिंग में प्रमाणित हो चुकी है। बावजूद इसके एक सन्नाटा पसरा है हिंदू समाज में।
सेकुलरिजम का रोग, नेताओं से अधिक पॉलिटिकल करेक्टनेस का भूत शायद हिंदू समाज पर हद से ज्यादा हावी है। अफसोस यह कि इस समाज को चुनाव भी नहीं लड़ना है। फिर भी विदेशी शिक्षा के संंस्कार शायद इस कदर घर कर चुके हैं कि हम गंभीर से गंभीर मामले का भी सरलीकरण करने के अभ्यासी हो चुके हैं।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह हमारे पूर्वजों का पौरुष और बलिदान ही था कि गुरु गोविन्द सिंह जैसे तपस्वियों ने अपने दो पुत्रों को बलि वेदी पर जाते हुए भी धर्म नहीं बदला। वंदा वैरागी को उनके पुत्र का सीना चीरकर उसके धड़कते हृदय को खाने पर मजबूर किया लेकिन फिर भी उन्होंने मतांतरण स्वीकार नहीं किया। ऐसे बलिदानियों के बदौलत ही आज भी यह समाज सनातन है!
एक समाज के तौर पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज कई तरह के खतरों की आहट है। आज के समय में भी ताड़का और पूतना की राक्षसी वृत्तियाँ निगलना चाहती हैं हमको। एक का औज़ार हथियार है और दूसरे का प्यार। फिलहाल पूतना वक्ष में विष लपेटकर निकली है मातृत्व के दिखावे के साथ।
वक्त है अभी चेत जाने का। विरोधी स्वर बुलंद करने का। अन्यथा आने वाला वक्त यह अवसर भी छीन लेगा। सेकुलरिज्म का रोग दीमक बन कर खा रहा है। अब सेकुलर नहीं, मुखर होने की माँग कर रहा वक्त आपसे और हमसे। यहाँ रूसी विचारक लियोन ट्रॉट्स्की का विचार प्रसंगिक है:
“You may not be interested in war, but war is interested in you.”
मतलब समाज में कुछ सड़-गल रहा हो, कुछ अनैतिक हो रहा हो… और आप यह सोच कर बैठ जाएँ कि उसका प्रभाव आप तक नहीं होगा, यह मूर्खतापूर्ण है। आपके इर्द-गिर्द जो भी हो रहा है, आप उसकी चपेट में परोक्ष या प्रत्यक्ष तौर पर आएँगे ही, यह निश्चित है।
आप भले ही किसी से जलन न रखें, उन्हें नुक़सान न पहुँचाएँ, लेकिन कुछ विचार धाराएँ हैं, जो आप पर आघात करने को आतुर हैं। इसीलिए हों सावधान, रहें सतर्क… और सबसे जरूरी – रहें एकजुट!