शैशवकाल या फिर बाल्यावस्था किसी भी मनुष्य के जीवन का वो दौर होता है, जिसमें वो अपने भीतर ऊर्जा के चरम को महसूस करता है। इस काल में शिक्षा-दीक्षा से लेकर खेल-मनोरंजन तक एक बच्चा हर चीज़ को अपने मन मुताबिक ग्रहण करता है। बच्चे के भीतर इस दौरान समय-समय पर सृजनात्मकता का विस्फोट होता है, जो कभी उसकी कला में दिखता है, कभी उसके परीक्षाफल में तो कभी घर में म्यूजिक या फिर ढोल बजते ही। बच्चा क्या अन्तग्रहण करेगा इसका निर्धारण हमारे आस-पास के माहौल द्वारा किया जाता है न कि सरकार द्वारा।
बच्चे की सृजनात्मकता का अपनी पराकाष्ठा तक पहुँचना ही उसके लिए एक बेहतर भविष्य की संभावनाओं को उजागर करता है। बच्चा इन बातों से अबोध होता है कि आस-पास के माहौल का उस पर क्या असर पड़ रहा है, वो धीरे-धीरे चीज़ों को ग्रहण करता है और अपने मनमुताबिक उसमें खुद को ढाल लेता है। वो अपने हिसाब से चीजों को देखता-समझता और उस पर प्रतिक्रिया देता है। हम बड़े उसे कितना ही क्यों न समझा लें, लेकिन वो करता वही है जो उसकी इच्छा हो, फिर चाहे वो उसके लिए ‘सीमा’ तय करने वालों की आँखों के आगे उसे पेश करे या फिर अकेले में ही उस पर काम करता रहे।
हाल-फिलहाल में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा एक एडवाइजरी जारी की गई, जिसमें कहा गया कि बच्चों की नृत्य प्रतियोगिता कराने में उनके मानसिक और शारीरिक विकास को ध्यान में रखना चाहिए। मंत्रालय का मानना है कि रियलिटी शो में बच्चों को जिन गानों पर जिस तरह के नृत्य करते दिखाया जा रहा है, मूल रूप से वह वयस्कों के लिए उपयुक्त हैं, या यूँ कह लें कि वयस्कों के लिए ये विचारोत्तेजक और उम्र के अनुकूल होते हैं। ऐसे में इन नृत्यों को छोटे बच्चों से करवाने पर उनके मानसिक और संरचनात्मक विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए चैनलों को इस तरह के शो के दौरान एतिहात बरतने की सलाह दी जाती है।
सरकार का यह फैसला हो सकता है आधिकारिक तौर या फिर कागजी नैतिकता के आधार पर उचित हो, लेकिन तकनीक के दौर में बच्चों के लिए ऐसे दायरे तय कर देना या उनकी सलाह देना बेहद हास्यास्पद है। आप यदि सिर्फ़ नृत्य प्रतियोगिताओं में बच्चों के प्रदर्शन मात्र को विचारोत्तजक बताकर उन पर रोक लगाना चाह रहे हैं, तो फिर आपको तकनीक से भी गुरेज़ करना चाहिए क्योंकि कहीं न कहीं आज बच्चे अपनी उम्र से बड़ी बातें इसलिए करते हैं क्योंकि तकनीक ने ऐसा मुमकिन किया है।
बच्चे पूरे दिन तकनीक के इर्द-गिर्द रहते हैं, वह वो सब जानना चाहते हैं जिन्हें आपके अनुसार एक तय उम्र के बच्चों को नहीं जानना चाहिए। मैं इस बात से बिलकुल मना नहीं कर रही कि वयस्कों के नृत्य में और बच्चों के नृत्य में फर्क नहीं होना चाहिए है। होना चाहिए, लेकिन अब के समय में केवल यही एक चीज बच्चों के मानसिक विकास को प्रभावित करती है, ऐसा नहीं है। क्योंकि ये भी सच है कि कुछ समय पहले तक वयस्कों वाले गाने और धुन से बच्चों के सोचने-समझने की शक्ति पर काफ़ी फर्क पड़ता था, लेकिन तकनीक के दखल ने इस लकीर को अब लगभग धूमिल कर दिया है। अब इस बात से भी मना नहीं किया जा सकता कि सिर्फ़ ऐसे नृत्यों के प्रदर्शन पर रोक लगा देने से नैतिकता का मूल उद्देश्य बिलकुल पूरा हो जाएगा।
आज दुनिया भर में कई ऐसे रिएलिटी शो हो रहे हैं, जिसमें बच्चे आनंद ले-लेकर हर प्रकार के नृत्यों का प्रदर्शन करते हैं, और आप मानें, चाहे न मानें लेकिन विकल्पों के कारण हमें पिछले कुछ सालों में मात्र नृत्य प्रदर्शन करने से कई अच्छे कलाकार मिले हैं, जिन्हें उनके हाव-भाव के कारण ऑन स्क्रीन बतौर एक्टर और एक्ट्रेस काम करने का मौक़ा मिला। सुपर डांसर रियलिटी शो की दिपाली इसका हालिया उदाहरण है, जिसके डांस और एक्सप्रेशन के तालमेल ने उसे टीवी पर्दे पर लीड रोल दिलाया। मुमकिन है अगर इस जगह उसे दायरे में रहकर परफॉर्म करने की सलाह दी जाती, या फिर उसकी परवरिश विचारोत्तेजक नृत्य और उसकी उम्र के नृत्य में फर्क़ बताने में हुई होती तो ऐसा संभव नहीं हो पाता।
मुझे लगता है कि हमें इस बात को स्वीकार लेना चाहिए कि 90 के दशक में बनाए गए कुछ तय नियम आज किसी भी रूप में उचित नहीं हैं। एक बच्चे को मालूम है कि वो किस कार्य को बेहतर तरीके से कर सकता है और जिसे नहीं मालूम उसे हमें सही दिशा दिखानी चाहिए, उसके प्रयासों को सराहना चाहिए न कि उसमें ‘विचारोत्तेजक’ जैसे शब्द खोजने चाहिए। बच्चों के स्वभाव के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ उनके आस-पास का माहौल उत्तरदायी होता है, न कि ऐसी चीजें जिनमें उसे मनोरंजन दिखे। अगर माहौल में मिली शिक्षा उचित है तो उस पर ऐसी फिजूल की चीजों का कोई असर नहीं पड़ेगा, जिनका हमें डर है। अबोध अवस्था की खासियत यही होती है कि इसमें हम चीजों को आँकने से ज्यादा उनसे सीखने की कोशिश करते हैं।
ऐसे निर्देश और सलाह देना कहीं न कहीं उन बच्चों की स्पर्धा पर पर्दे डालने जैसा है जिन्होंने आगे बढ़ने के लिए दायरों की कद्र नहीं की, जिन्होंने अपनी सृजनात्मकता का विकास किया, खुद को मानसिक रूप से संतुलित किया और प्रदर्शन के दौरान अपनी जी-जान झोंक दी। मैं मानती हूँ कि हमें ऐसे फैसलों और सलाह से ज्यादा बच्चों को भीतर से मजबूत बनाने की तैयारी करनी चाहिए, ताकि अगर कहीं हमारा डर सही भी हो, तो बच्चे विकल्पों के साथ समझौता किए बिना खुद को उस परिस्थिति के अनुरूप ढाल पाएँ और खुद को आगे बढ़ा पाएँ।
आज मात्र बच्चों के नृत्य प्रदर्शन से आप उनमें आत्मविश्वास, मजबूती, सहजता जैसे कई गुणों को आँक सकते हैं और उन्हें सही दिशा दिखा सकते हैं। ये बिलकुल सच है कि बच्चा नृत्य के दौरान बिलकुल हू-ब-हू उस कलाकार को अपने भीतर उतारने की कोशिश करता है लेकिन वो भी एक कला या फिर फैंटसी है जिसे वो अपने अंदर विकसित करना चाहता है। उसे सीमित करके हम न केवल उनके लिए विकल्पों को खत्म कर रहे हैं बल्कि इच्छाओं के साथ समझौता करना भी सिखा रहे हैं। उम्मीद है कि डांस रियलिटी शो और इससे जुड़े कोरियोग्राफर लोग भी इस विषय की गंभीरता को समझेंगे, जिसके कारण मंत्रालय को डर सताया कि नृत्य प्रदर्शन से बच्चों की अभद्र छवि पेश की जा रही है।