भूतपूर्व ‘सेक्स-स्लेव’ महिलाएँ वह बुरखे जला रहीं हैं जो उन्हें इस्लामिक स्टेट के आतंकी पहनने को विवश करते थे। आइएस के चंगुल से पिछले हफ़्ते फ़रार हुईं यज़ीदी महिलाओं के एक समूह ने कुर्दिश सेना (PKK) के समक्ष समर्पण करने के बाद पहला काम किया अपने बुरखे इकठ्ठा कर उन्हें आग के हवाले करने का।
‘काश मैं दएश (आइएस) को यहाँ ला पाती और जला पाती, जैसे मैंने अपने उन कपड़ों को जला दिया है।’
इस ‘हिंसक’ उद्गार के पीछे है अपमान और प्रताड़ना की वो दास्ताँ जहाँ इन यज़ीदी युवतियों को एक ओर रेगिस्तानी रातों में नंगा कर रात भर उनके साथ हिंसक-से-हिंसक तरीकों से बलात्कार किया जाता था। वहीं दूसरी ओर दिन की चिलचिलाती गर्मी में, भीषण-से-भीषण उमस में, बुरखे के पीछे कर दिया जाता था। बुरखा उतारने देने के लिए जब वह मिन्नतें करतीं थीं, गिड़गिड़ाती थीं कि इसके अन्दर से साँस नहीं ली जा रही, तो उन्हें कहा जाता था कि बाकी सब औरतें कैसे कर ले रहीं हैं।
एक ओर अपना मन भर जाने पर आइएस लड़ाके सेक्स-गुलामों की अदला-बदली कर लेते थे, और दूसरी ओर जब तक वह लड़की/औरत उनकी property रहती थी, उसके चेहरे पर अपने ही साथियों की नज़र भर पड़ जाना नागवार था।
अपना बुरखा उतार कर जलाते हुए इस युवती के चेहरे पर जो राहत, जो catharsis दिख रही है, वह इंसानी सभ्यता के लिए शर्मिंदगी का सबब है।
फिर जड़ में असहिष्णु, वर्चस्ववादी इस्लाम
इन महिलाओं, और इनके निर्ममता से क़त्ल कर दिए गए भाईयों, पिताओं, बेटों का गुनाह केवल इतना था कि वह ऐसी आबादी (यज़ीदियों) में पैदा हुए थे जिन्हें सलाफ़ी-वहाबी इस्लाम (जो कि आइएस ही नहीं, लगभग हर जिहाद के वैचारिक स्तम्भ हैं) शैतान के पुजारी और “काबिल-ए-क़त्ल” मानता है। आइएस के कट्टरपंथियों का मानना है कि उन्हें पूरी आज़ादी है यज़ीदी लोगों के साथ हत्या, बलात्कार, शोषण, और अत्याचार करने की क्योंकि यज़ीदी शैतान के पुजारी माने जाते हैं।
पुराना है इस्लाम के हाथों यज़ीदियों के उत्पीड़न का इतिहास
इस्लाम के हाथों यज़ीदी आज से नहीं, सदियों से कुचले जाते रहे हैं- और हर बार मज़हबी कारणों से ही। 1640 में 40,000 तुर्की इस्लामिक लड़ाकों ने सिंजर की पहाड़ी के आस-पास बसे यज़ीदियों पर हमला कर दिया, और 3000 से ज़्यादा यज़ीदी केवल जंग के मैदान में क़त्ल हो गए। उसके बाद अल्लाह के ‘जाँबाज़’ लड़ाकों ने 300 से ज़्यादा यज़ीदी गाँवों को आग के हवाले कर दिया। सिंजर पहाड़ी की गुफ़ाओं में बैठ कर किसी तरह जान बचाने की जद्दोजहद कर रहे हज़ारों यज़ीदियों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर मौत के घाट उतारा।
1892 में इसी तुर्की खिलाफ़त के आख़िरी ‘ताकतवर’ चश्मोचिराग सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय ने यज़ीदियों को अपने जिहादी दस्ते में शामिल हो जाने या उन्हीं जिहादियों के हाथों क़त्ल हो जाने का फ़रमान दिया।
2007 में इराक के मोसुल शहर में सुन्नियों ने एक बस को रोका, बस में सवार ईसाईयों और समुदाय विशेष को बाइज्ज़त रुखसत किया और 23 यज़ीदियों को इकठ्ठा कर उनकी गोली मारकर हत्या कर दी।
(Apologists यह कह कर डिफेंड कर सकते हैं कि बस घटना के पीछे यज़ीदियों द्वारा की गई एक यज़ीदी किशोरी की honor-killing थी, जो एक सुन्नी लड़के से प्रेम करती थी, पर सामूहिक-पहचान के आधार पर इस कत्ले-आम को सही ठहराना मानसिक दिवालियापन ही कहा जायेगा।)
मंडी भी थी, और रेट भी
जवान मर्दों और वृद्धों का क़त्ल करने के बाद उन्हें सामूहिक कब्रों में दफना दिया गया।
आइएस ने बचे हुए यज़ीदियों को तीन हिस्सों में बाँटा। सबसे छोटे बच्चों को $500 में संतानहीन दम्पतियों को बेच दिया गया ताकि वे मजहबी परवरिश में ही पलें-बढ़ें।
उनसे थोड़े बड़े लड़कों को जिहादी लड़ाके बनने की ट्रेनिंग लेने भेज दिया गया। जो लड़ाके बनने में शारीरिक रूप से अक्षम पाए गए, उन्हें घरेलू नौकरों के तौर पर बेच दिया गया। अब बचीं किशोरियाँ और युवतियाँ। इनकी बाकायदा मंडी लगी और खरीददारों ने बोली लगाई- और हर लड़की को बेच दिया गया।
‘शरिया हमें इज़ाज़त देता है’
आइएस एक डिजिटल मैगज़ीन निकालता है- Dabiq। (‘अशिक्षा’ को आतंकवाद की जड़ के तौर पर प्रचारित करने वाले अब यह भी बता सकते हैं कि ज़रूरी नहीं है दो साल तक कई-कई भाषाओं में डिजिटल मैगज़ीन प्रकाशित और वितरित करने वाला पढ़ा-लिखा, और इस हैवानियत के अलावा दूसरे काम करने में भी सक्षम, हो)
अक्टूबर, 2014 के अपने अंक में आइएस ने साफ़-साफ़ कहा कि उसके इस भयावह कृत्य को शरिया का पूरा समर्थन है। वहाँ कहा गया है कि हज़रत मुहम्मद के साथी जीती हुई युद्धबंदी औरतों/लड़कियों को सेक्स-स्लेव के तौर पर बाँटते थे।
यज़ीदी औरतों और बच्चों के बारे में Dabiq में लिखा है, “… यज़ीदी औरतों और बच्चों को शरिया के मुताबिक सिंजर की लड़ाई में हिस्सा लेने वाले लड़ाकों में बाँट दिया गया… मुशरिक (मूर्ति-पूजक) गुलामों का इतने बड़े पैमाने पर बँटवारा शरिया हटाए जाने के बाद से शायद पहली बार हो रहा है।”
आइएस लक्षण है, बीमारी नहीं
महज़ कुछ साल पहले तक सीरिया के अलेप्पो से लेकर के इराक के बगदाद तक यही नंगा-नाच करने वाला आइएस भले ही आज एक कस्बे तक सीमित हो चुका है, पर वर्चस्ववाद को मज़हब बनाने वाली जिस ज़हरीली जड़ का वह फल है, वो आज भी कश्मीर, कन्नूर, से लेकर नाइजीरिया के बोको हराम तक खाद पानी पा रही है। जड़ में मट्ठा डाले बिना कल इसी पेड़ से ऐसा फल उगेगा, कि आइएस उत्पाती बच्चों का गुट लगने लगेगा।
इसका अर्थ यह बिलकुल नहीं कि क्राइस्टचर्च के पागल हमलावर की तरह मजहब के हर आदमी को गोली मारनी शुरू कर दी जाए। पर इसका यह अर्थ ज़रूर है कि पूरी दुनिया को इकठ्ठा होकर समुदाय विशेष पर यह दबाव बनाना ही होगा कि वह अपनी मज़हबी किताबों को सम्पादित कर उन हिस्सों को अप्रासंगिक घोषित करें जिनमें अल्लाह को न मानने भर से काफ़िर, मुशरिक, आदि गैर-इस्लामी लोगों के गैर-इस्लामी होने भर से उनके तौर तरीकों को हराम, और उन्हें काबिल-ए-क़त्ल, घोषित कर दिया जाता है।
जब तक 180 करोड़ लोगों की आस्था से ऐसे हिंसक और ज़हरीले ख्यालों को साफ़ तौर पर बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जाता, आइएस जैसे संगठन दर्जनों के भाव आते ही रहेंगे।