सनातनी चेतना को खंडित करने के षड्यंत्र के अंतर्गत घात लगाकर हिन्दू समाज पर प्रहार किया जा रहा है। सनातनी वंशजों के मन मस्तिष्क को प्रभावित किया जा रहा है। आधुनिक युग के विस्मयकारी मोहित करने वाले वस्त्र में छुपा कर सनातनी संस्कृति की चेतना में विषयुक्त सुई निरंतर चुभोई जा रही है। जिससे धीमा-धीमा विष सारी सनातनी चेतना को जड़वत कर दे एवं घाव कभी न भर सके। अंततः प्रहार का प्रतिकार करने की योग्यता ही समाप्त कर दी जाए।
इस षड्यंत्र में प्रहार के भिन्न-भिन्न रूप हैं। सबसे प्रमुख मनोरंजन जगत का घात है। सिनेमा आधुनिक जगत का विलासितापूर्ण उपभोग का साधन है। यह हमारे नाट्य कला एवं मंचन विधा से पूर्णता भिन्न है। आधुनिक सिनेमा भारतीय नाट्य कला एवं मंचन विधा का विकल्प कदापि नहीं हो सकता, क्योकि भारतीय कला एवं मंचन विधा के उद्देश्य, गुणसूत्र, नियम, आचार विहार, सैद्धांतिक मूल्य सभी कुछ भिन्न हैं।
सिनेमा प्रमुख रूप से चार प्रकार के उत्पादों से जनमानस के विचार को प्रभावित करता है। 1. चलचित्र 2. धारावाहिक 3. विज्ञापन 4. आभासीलोक के मकड़जाल से निकले: यूट्यूब , प्राइम चैनल्स, नेटफिल्क्स आदि।सिनेमा के इन सभी माध्यमों का अपना अपना बड़ा दर्शक वर्ग है। बारम्बार एक ही प्रकार के विचार का दृश्यांकन हमारे मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालते हैं। हमारी दैनिक दिनचर्या, अचार-विचार में वह विशेष विचार प्रतिबिम्बित होने लगता है।
एक प्रचलित कहावत है कि सिनेमा समाज का आइना होता है। सामान्य समझ से कहे तो समाज में जो होता है सिनेमा वो ही दिखाता है। परन्तु इस कहावत का प्रभाव ठीक इसके उल्ट है। यहाँ हमे यह समझने की आवश्कयता है कि प्रतिबिम्ब आभासी होता है न की वास्तविक। यह कहावत कुशलता के साथ प्रचारित की गई, जिससे आप विरोधियों द्वारा दिए गए झूठे विचार को सच्चाई समझकर, उसे ही सत्य समझे। आभास एवं वास्तविकता के मध्य दूरी सुप्त दृष्टि से देखने पर अदृश्य लगती है, परन्तु जागृत दृष्टि से देखने पर दोनों का भेद स्पष्ट रूप से समझ आता है।
सिनेमा एक माध्यम मात्र है उसे संचालित एवं प्रभावित करने वाली शक्तियों में हिन्दू विरोधी, देश विरोधी तत्व बैठे हैं। वे सिनेमा के दर्पण को झूठे प्रतिबिम्ब खड़े करने के लिए प्रयोग कर रहे हैं। उन्ही झूठे प्रतिबिम्बों को हम हमारे समाज का प्रतिबिम्ब बता रहे हैं। यह अत्यंत जटिल षड्यंत्र है, जो हिन्दू समाज के मूल्यों को नष्ट करने के लिए रचा जा रहा है।
चलचित्र में कथा, नायक, नायिका एवं खलनायक मूल स्तंभ होते हैं। आप स्वयं निरीक्षण कीजिए सिनेमा के प्रारंभिक काल से वर्तमान समय तक आए परिवर्तन का, तब से अब तक आधुनिकता के आवरण में छुपा कर किस प्रकार सनातनी मूल्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया है।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। लेकिन परिवर्तन के नाम पर अपनी मूल पहचान एवं मूल्यों से समझौता कैसे किया जा सकता है। मूल पहचान एवं सनातनी मूल्यों को उसके मूल स्वरुप में ही अगली पीढ़ी को सौंपन हमारा दायित्व है।
लिहाजा, कुछ उदाहरणों से समझते हैं कि कैसे मनोरजंन के नाम पर हमारे मूल्यों को निशाना बनाया जा रहा है।
धारावाहिक: ये जादू है जिन्न का
दृश्यांकन: शर्मा जी के लड़के का मित्र बंटी नायिका को छेड़ता है। हिंसा करने के उद्देश्य से उस पर धावा करता है। उसका पीछा करता है। परन्तु नायक आकर उससे बचा लेता है।
सवाल: जब पूरा धारावाहिक एक विशेष पंथ की पृष्ठभूमि (जो की हिन्दू नहीं है) पर आधारित है, जिसमें हिन्दू का दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं। उसमें ‘शर्मा जी का लड़का’ चरित्र क्यों लेना पड़ा, वह भी नकारात्मक भूमिका से बॅंधा हुआ।
साजिश: ब्राह्मण जाति को नकारात्मक दिखाना, एक विशेष पंथ को सकारात्मक दिखाना।
धारावाहिक: कहाँ तुम, कहाँ हम
दृश्यांकन: एक पागल प्रेमी विवाहित नायिका को अपना बनाने के लिए षड्यंत्र करता है। उस पागल प्रेमी का नाम ‘महेश’ है। उसके कंठ में रुद्राक्ष एवं हाथ पर ॐ का गोदना है। नायिका का मैनेजर जिसका नाम ‘अखिल खान’ है, वह स्त्रियों के साथ सभ्य आचरण करता हुआ दिखाया जाता है। वह एक वाक्य बोलता है “क्या करे अब पंजाबी मॉम को मुस्लिम डैड से प्यार हो गया तो इसलिए ऐसा नाम “अखिल खान”। एक हिन्दू अविवाहित युवती, एक विवाहित युवक के साथ अनैतिक सम्बन्ध रखती है।
सवाल: पागल प्रेमी का नाम हिन्दुओं के देव महादेव के नाम पर ही क्यों रखा गया? उसे हिन्दू चिह्नों से चित्रित क्यों किया गया? अंतरपंथीय विवाह के रूप में, पागल प्रेमी की साधारण कहानी में लव जिहाद को प्रचारित क्यों किया गया? जौहर एवं सतीत्व वाली पतिव्रता स्त्री शक्ति के राष्ट्र में, एक हिन्दू युवती को ही क्यों अनैतिक सम्बन्ध में दिखाया गया? अगर आप इतने ही पंथनिरपेक्ष हैं तो वह लड़की “ग़ैर” हिन्दू क्यों नहीं हो सकती, जबकि एक समुदाय में एक साथ 4-4 बीबी रखने का रिवाज है।
साजिश: लव जिहाद को प्रसारित करना। महादेव के प्रति हिन्दू आस्था पर प्रहार करना। हिन्दू कन्याओं के सनातनी मूल्यों पर प्रहार करना।
धारावाहिक: बेहद
दृश्यांकन: एक बड़ा हिन्दू व्यवसायी जो माँ दुर्गा का भक्त है, कम से कम 4-5 लड़कियों का शारीरिक शोषण करता है। एक श्री कृष्ण की भक्त, हिन्दू व्यवसायी द्वारा शोषित हिन्दू नायिका प्रतिशोध लेने के लिए षड्यंत्र करती है। नायिका हर अपराध का षडयंत्र रचते समय, गीता के श्लोक बोल कर स्वयं को सही जताने की कोशिश करती है। श्री कृष्ण की शनि देव जैसी काली प्रतिमा का पूजन मोमबत्ती से करती है। उस बड़े हिन्दू व्यवसायी से प्रतिशोध लेने के लिए, नायिका उसी के बड़े बेटे के साथ षड्यंत्र के अंतर्गत विवाह करती है और सच्चे प्रेम को दर्शाती है। बाद में उस हिन्दू व्यवसायी और नायिका के दृश्य, बहु एवं ससुर की भॉंति तो सहज नहीं होते। नायिका अपने देवर को भी प्रेम पाश में बाँधती है, उसे आत्महत्या पर विवश करती है। हिन्दू व्यवसायी की पत्नी सब कुछ जानती है, लेकिन उसके लिए मात्र पैसा और रुतबा मायने रखता है। हिन्दू व्यवसायी का सबसे विश्वासपात्र एक “ग़ैर” हिन्दू नाम वाला “आमिर” है।
सवाल: हलाला जैसे प्रथा की पृष्ठभूमि वाली कहानी को हिन्दू आवरण क्यों पहनाया गया? गैर हिन्दू नाम “आमिर” ही विश्वासपात्र क्यों लिया गया? सतीत्व वाली पतिव्रता स्त्री एवं यशोदा माँ जैसे स्त्री शक्ति के राष्ट्र में, एक हिन्दू माँ एवं स्त्री को क्यों इतना “रुतबा” प्रेमी दिखाया गया, जो अनैतिक सम्बन्ध भी स्वीकार कर लेती है? श्री कृष्णा का पूजन दीपक के स्थान पर मोमबत्ती से कब से होने लगा, ये तो ग़ैर हिन्दू, जो क्रॉस को मानते हैं उनकी रीति है। यौन शोषक माँ दुर्गा का भक्त क्यों?
साजिश: हलाला प्रथा की स्वीकारोक्ति बढ़ाना, हिन्दू मूल्यों के प्रति झूठ प्रचारित करना। माँ दुर्गा, श्री कृष्णा के प्रति हिन्दू आस्था पर प्रहार करना। हिन्दू स्त्रियों के सनातनी मूल्यों पर प्रहार करना। “आमिर” के समुदाय को सकारात्मक दिखाना।
धारावाहिक: गुड्डन तुमसे ना हो पायेगा
दृश्यांकन: फिल्म का अधेड़ नायक 18 वर्ष की एक कन्या का पिता है, लेकिन एक 21 वर्ष की नायिका से विवाह करता है। एक और अधेड़ हिन्दू चरित्र कलवा और रुद्राक्ष माला हाथ में पहन मदिरा पान करता है। नायक की 18 वर्षीया बेटी अपने ही परिवार के विरोध षड्यंत्र करती है। पिता के अधेड़ मित्र पर रेप का आरोप लगाकर उससे विवाह रचाती है। घर पर पत्रकार बुला कर परिवार का तिरस्कार करती है।
सवाल: अपवाद को छोड़े तो सामान्य परिस्थिति में इतनी आयु अंतर का विवाह हिन्दू धर्मानुसार कदापि नहीं है। एक “ग़ैर” हिन्दू समुदाय विशेष में 12-13 वर्ष की बच्ची के साथ निकाह का प्रचलन जरूर है। हिन्दू चिह्नों के साथ नकारात्मक किरदार क्यों, जबकि हिन्दू नायक कभी ऐसे चिह्नों के साथ नहीं दिखता।
साजिश: हिन्दू समाज और मूल्यों पर प्रहार करना। अतार्किक अनुपयुक्त अस्वीकार्य आयुभेद के विवाह का हिन्दू समाज में प्रचार करना।
धारावाहिक: पटियाला बेब्स
दृश्यांकन: पंजाबी पृष्ठभूमि की कहानी है। एक स्त्री को उसका पति धोखा देता है। विदेश में दूसरा विवाह कर लेता है। सम्बन्ध विछेद होता है, वो फिर स्वाभिमान से खड़ी होती है। इसमें एक नइबी नामक “ग़ैर” हिन्दू पड़ोसी दादी का चरित्र है। वह स्वभाव से बहुत अच्छी है और हरसंभव सहायता करती है। जबकि अपनी हिंदू सास पुत्र मोह में साथ देने में विलंबर करती है। मोहल्ले की अन्य हिन्दू स्त्रियॉं भी नायिका पर ताने मारती रहती हैं।
सवाल: जब पंजाबी पृष्ठभूमि की कहानी है, तो उसमे नइबी नामक “ग़ैर” हिन्दू चरित्र क्यों गढ़ा गया?
साजिश: हिन्दू अवचेतन मस्तिष्क में “ग़ैर” हिन्दू चरित्र को सकारात्मकता के साथ जोड़ना।
धारावाहिक: नाटी पिंकी की लम्बी लव स्टोरी
दृश्यांकन: एक ब्राह्मण समाज का अध्यक्ष जो हर क्षण मर्यादा सम्मान की बात करता है, अपने परिवार की किसी भी स्त्री को अधिकार नहीं देता। यहाँ तक की अपनी माँ को भी नहीं। परिवार की स्त्रियों से अपेक्षा रखता है कि वो हमेशा एक प्रकार के बॅंधे हुए आचरण में ही जिए। अपनी बेटी का विवाह अपनी जाति के एक अवैध सम्बन्ध रखने वाले लालची परिवार के लड़के से करता है। अपनी बड़ी स्वर्गवासी बेटी को घर से निकाल देता है, जब वो एक दूसरी जाति के मद्रासी लड़के से प्रेम विवाह कर लेती है, कभी नहीं अपनाता।
सवाल: इसकी पृष्ठभूमि ब्राह्मण ही क्यों चुनी गई। क्या सामाजिक सम्मान “ग़ैर” ब्राह्मण या “ग़ैर” हिन्दू समुदाय में प्रतिष्ठा विषय नहीं होता। मद्रास में ब्राह्मण नहीं होते हैं क्या। “ग़ैर” हिन्दू पंथ में जहाँ फ़ोन पर सन्देश से ही तलाक दे दिया जाता है, उस पर चुप्पी क्यों। यहाँ तक की बहु बेगम धारवाहिक में दो निकाह को भावुकता के आवरण से सिद्ध किया गया है।
साजिश: ब्राह्मण समाज को नकारात्मक रूप में दिखाना। उत्तर भारत–दक्षिण भारत में जाति के नाम पर द्वेष बढ़ाना। पितृसत्ता का भ्रम बनाना।
धारावाहिक: दिल जैसे धड़के धड़कने दो
दृश्यांकन: देवगुरु नामक चरित्र देवी को तलाश रहा। उसे अपनी देवी एक छोटी बच्ची में मिलती है। वह देवी मंत्र का छाती पर गोदना बनाकर घूमता है। एक चालाक स्त्री उसकी अनुयायी है, जो दान का दुरुपयोग करती है। उसके अधिकतर भक्त पढ़े लिखे उच्च पद के लोग हैं। देवगुरु मासिकस्त्राव वाली स्त्री को पारम्परिक नियमों को तोड़ने के लिए बढ़ावा देता है। एक मित्र उस देवगुरु को मानसिक बीमार मानता हैं। देवगुरु छोटी बच्ची को सन्यांसी देवी बनाने को आतुर है। छोटे बच्चों का एक जोड़ा ऐसे दर्शाया जा रहा है जैसे बचपन से प्रेम का अंकुर फूट रहा है।
सवाल: देवगुरु का चरित्र सद्गुरु से मिलता जुलता ही क्यों लिया गया। हमारे तप साधना के नियम, अचार विहार आदि को इतने निम्न स्तर पर चालाकी से दिखाया गया कि ज्ञान के आभाव में दर्शक उन्हें ही सत्य मान ले। बालरूप में देवी बनाने की प्रथा जो अब समाप्त हो चुकी है उसे क्यों दिखाया जा रहा है, उस परंपरा के मूल सिद्धांत को समझे बिना ही। बच्चों के जोड़े में भाई बहन का प्रेम क्यों नहीं दिखाया जा सकता? हिन्दू मंत्रों के उच्चारण का नियम तरीका होता है, उन्हें “पॉप” गीत की भॉंति क्यों बजाना?
साजिश: हिन्दू संत गुरुजन को मानसिक बीमार दिखाना। चालक चोर या राजनीति करनेवाला बता कर हिन्दू समाज में भ्रम बढ़ाना। भारतीय मूल्यों–परम्पराओं को उल्टा-सीधा प्रस्तुत कर उनका महत्व कम करना।
ये तो महज कुछ उदाहरण हैं सनातनी समाज की चेतना पर घात करने के। इस मानसिक युद्ध का प्रतिकार बेहद जरूरी है, क्योंकि हमारे हिन्दू समाज के एक अत्यंत छोटे धड़े में इसके लक्षण स्पष्ट दिखाई देने लगे हैं। नासूर बनने से पूर्व ही समय पर इसकी चिकित्सा अत्यंत आवश्यक है।