हिन्दू करें कल्कि अवतार की प्रतीक्षा, क्योंकि जिनको चुना उनसे तो कुछ हो नहीं रहा

भगवान कल्कि का एक प्रतीकात्मक चित्र

इसमें कोई दोराय नहीं है कि विरोधियों ने मोदी और भाजपा को आज तक ‘हिंदुत्व’ एजेंडा चलाने वाला कहा है, जिसमें फासीवाद से लेकर तमाम मवादों के नाम एक साथ ग्राइंडर में डाल कर भगवा शेक बनाने के बाद कहा जाता है कि पूरे भारत को मोदी शाकाहारी, विशुद्ध हिन्दू और मंगलवार को हनुमान की अराधना करने वाला बना देगा। वहीं, दूसरी तरफ जिन लोगों ने मोदी को, योगी को, भाजपा को वोट दिया है, वो भी उन्हें हिन्दू हृदय सम्राट से लेकर तमाम विशेषणों से नवाजते हैं।

वस्तुस्थिति चाहे इसके उलट रही हो, और सिर्फ जून के महीने में छः जगह (एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः) मंदिरों और मूर्तियों को इस्लामी भीड़ ने तोड़ा हो, लेकिन बर्बर बहुसंख्यक का तमगा हिन्दुओं के सर पर ही चिपकाया जाता है। खबरें आती हैं जहाँ सामाजिक अपराध को मजहबी रंग देकर, हिन्दुओं को असहिष्णु बताया जाता है, स्थान विशेष से मोमबत्तियाँ निकल आती हैं, चौक-चौराहों पर हजारों की भीड़ जुटती है और बीबीसी लंदन से लेकर वाशिंगटन पोस्ट तक भारत को बताते हैं कि इस देश में अल्पसंख्यकों का जीना हिन्दुओं ने मुहाल कर रखा है।

और हिन्दू क्या करते हैं? या, हिन्दुओं के चुने हुए तथाकथित हिन्दुवादी नेता क्या करते हैं? वो तमाम पावर में बैठे लोग क्या करते हैं, जिनकी रगों के खून को भगवा बताया जाता है? वो कुछ नहीं करते। कुछ नहीं करना भी बड़ा कठिन कार्य है, क्योंकि आपको पता ही नहीं चलता कि आपने वो काम कब खत्म कर दिया। इनकी आस लगाए फेसबुक पर जनता कोसती है एक-दूसरे को कि ‘जिसको चुना वो निष्क्रिय है’, ‘हिन्दुओं इकट्ठा हो जाओ’, ‘आत्मरक्षा के लिए तैयार रहो’, ‘तैयारी करो…’ आदि। लेकिन ये सब तो समाधान नहीं है। हिंसा से किसी भी समस्या का समाधान नहीं मिल सकता।

इसी पर बात करते हुए एक सोशल मीडिया यूजर ने जो लिखा है वो हिन्दुओं के बारे में पूरी तरह से सही है कि धर्म हिन्दुओं को लिए कभी भी प्राथमिकता नहीं रहा। इसलिए फेसबुक पर लिख कर, चार सवाल फेंक कर अपनी जिम्मेदारी निभा लेने के मुग़ालते में रहने वाले लोग बहुत हैं। जबकि समुदाय विशेष आपसी दुश्मनी में भले ही अलग दिखे, लेकिन बाकी हर काम, जहाँ मजहब है, चाहे वो नमाज हो या सामूहिक हिंसा, वो एकजुट और तैयार दिखता है।

दक्षिणपंथी सरकार और दक्षिणपंथी लोग कभी भी एक साथ होना ही नहीं चाहते। यहाँ हमेशा यह देखा गया है कि सबको बॉण्ड बनना है, और जरूरत पड़े तो एक दूसरे की पतलून उतार लेनी है। जबकि ऐसे मौकों पर, जब आपका धर्म, आपकी धार्मिक जगहें, आपकी जीवनशैली और अंततः आपका अस्तित्व ही संकट में हो, आपको तय तरीके से, कश्मीर से कैराना और वहाँ से मेरठ के प्रह्लादपुर से दिल्ली के कुछ इलाकों तक से मकानों पर ‘ये मकान बिकाऊ है’ लिखना पड़ रहा हो, तो संगठित होने के अलावा कोई चारा नहीं है।

संगठन आत्मरक्षा के लिए, धर्मरक्षा के लिए और संस्कृति की रक्षा के लिए ज़रूरी है। वरना दिल्ली के हौज़ काज़ी में दुर्गा मंदिर के सामने इस्लामी भीड़ आएगी, ‘अल्लाहु अकबर’ चिल्लाएगी, पत्थर फेंकेगी, भीतर जाकर मूर्तियों को तोड़ेगी और आप मीडिया को बाइट देंगे कि ‘उन्होंने हमारी मूर्ति पर पेशाब भी किया’।

आप इतने मजबूर कैसे हैं? हमला बोलने की परंपरा हमारी रही नहीं, लेकिन अपने आप को बचाने के लिए पहला कदम तो उठाइए! सत्ता का सिर्फ एक ही ध्येय होता है ‘सत्ता में बने रहना’। सरकारों को न तो दंगों में किसी एक समुदाय की मदद करनी चाहिए, न ही ऐसा आगे होने वाला है। याद कीजिए कि चर्च का शीशा टूटता है और यही पुलिस उपद्रवियों को कैसे पकड़ लेती है। याद कीजिए कि जयपुर में मजहबी भीड़ पुलिस स्टेशन को घेर लेती है, आग लगाती है, दंगा करती है, और वहाँ के भाजपा मंत्री को देर रात को ‘नेगोशिएशन’ करने जाना पड़ता है, और केस वापस लेने की बात माननी पड़ती है।

एक खबर पर दिल्ली में लाख लोग जुट जाते हैं और उसे मजहबी रंग देकर सबको सुना देते हैं कि जुनैद की हत्या गोमांस के कारण हुई, और तबरेज की हत्या उसके मजहब के कारण हुई, सच भले यह हो कि एक सीट के विवाद में मारा गया और दूसरा चोर था और उसकी जान भीड़ ने ले ली। आखिर तुम्हारी एक लाख लोगों की भीड़ मंगरू की हत्या पर, अंकित सक्सेना की हत्या पर, प्रशांत पुजारी की हत्या पर, ईरिक्शा चालक रवीन्द्र की हत्या पर, डॉ. नारंग की हत्या पर, ध्रुव त्यागी की हत्या पर… क्यों नजर नहीं आती? और कितने नाम लूँ?

आपका और हमारा सत्य यही है कि हम फेसबुक पर ही लाइकों की भीड़ जुटा लेते हैं और पेरिस हमलों के बाद डीपी में फ्रान्स के झंडे का फिल्टर लगा कर संवेदनशील हो जाते हैं, जबकि रामपुर में समुदाय विशेष के दस लड़के किसी हिन्दू लड़की को खींच लेते हैं, छेड़ते हैं, हाथ लगाते हैं और वो किसी लोकल न्यूजपेपर के भीतरी पन्नों की खबर बन कर गायब हो जाती है। पचास घटनाएँ तो हाल ही में हमने गिनाईं जहाँ 2016 के बाद से समुदाय विशेष के द्वारा किए गए हेट क्राइम्स की पूरी सूची है। दर्जन भर और ऐसी घटनाएँ जहाँ हिन्दू को बुरा दिखाने के लिए हेट क्राइम बताया गया, लेकिन वो निकले कुछ और। लेकिन हमने किया क्या उसके बाद?

क्या हमारा इकोसिस्टम ऐसा है कि हम किसी आतंकी के लिए इकट्ठे हो जाएँ? क्या हमारे तथाकथित चिंतित हिन्दू मित्रों ने लाख तो छोड़िए, सौ की भीड़ इकट्ठा कर के पूछा कि दिल्ली का दुर्गा मंदिर कैसे टूट जाता है? क्या कभी ऐसा हुआ है कि आपने गलत आदमी को तो छोड़िए, सही आदमी को भी छुड़ाने का कोई प्रयास किया? क्या आपने वामपंथियों की तरह, इस समुदाय विशेष की भीड़ की तरह कासगंज के चंदन को गोली मारने की घटना पर कभी कैंडल मार्च भी किया?

नहीं किया, क्योंकि जब तक अपने घर का कोई नहीं मर जाता, आप में वो संवेदना नहीं जगती कि आप इकट्ठे हो सकें। एक तरफ आतंकियों की सजा पर या तो विरोध प्रदर्शन होता है, या फिर हर ऐसी घटना पर ये समुदाय चुप्पी साध लेता है, और दूसरी तरफ आप हैं जो यह कह कर डिफेंड करने लगते हैं कि हिन्दू टेरर नहीं होता, उस पर तो इल्जाम लगा है, साबित कुछ नहीं हुआ है। आपको हमेशा कोर्ट के आदेश का इंतजार होता है, आप वोट की शक्ति के बल पर चलते हैं, आपको तंत्र पर विश्वास है।

जबकि उधर तंत्र को भीड़ के सामने झुकना पड़ता है। हर बार तंत्र झुकता है। पत्थरबाजों के केस वापस लिए जाते हैं। उनकी सरकारी नौकरी के लिए आपकी चुनी हुई सरकार इंतजाम में लग जाती है। उन्हें मजहब के आधार पर छात्रवृत्ति दी जाती है। उन्हें विश्वास दिलाया जाता है कि उनके साथ नाइंसाफी नहीं होगी। उनके मस्जिद की दीवार पर कीचड़ भी पड़ता है तो वो उस इलाके के पुलिस की सबसे बड़ी प्राथमिकता बन जाती है।

आखिर आपको ये सुविधा क्यों नहीं मिलती? क्या आपने कभी तंत्र को झुकाने का तो छोड़िए, अपनी शक्ति दिखाने भर का भी प्रयत्न किया है? आपकी हालत यह है कि आपका बेटा इस्लामी भीड़ द्वारा अगवा कर लिया जाता है, गायब रहता है और पुलिस आपको चुप रहने को कहती है। आपकी हालत यह है कि आपके मंदिर तोड़े जाते हैं, आपकी मूर्तियाँ तोड़ी जाती हैं और आपके हिन्दू हृदय सम्राट की पुलिस इस फिराक में रहती है कि नई मूर्ति लगा दी जाए और ‘इलाके की स्थिति को नियंत्रण’ में लाया जा सके। आखिर पीड़ित के साथ ही नाइंसाफी कर के आप स्थिति को नियंत्रण में कैसे ले आते हैं? ये स्थिति ऐसे ही नियंत्रित क्यों होती है? नियंत्रित तो तब होगी जब उस भीड़ में शामिल हर व्यक्ति को जेल में डाला जाए, न कि किसी तीन को पकड़ कर दिखाने के लिए कहा जाए कि हिन्दू घरों के साथ न्याय हो गया!

ये प्रतीक हैं, ये लगातार चलती रही बेकार-सी परंपरा का घिसा-पिटा रूप है, जब हमला करने वाली भीड़, जानबूझकर उपद्रव करती है, और अपने शक्ति प्रदर्शन के बाद आपको चिढ़ाती हुई ऑफर करती है कि ‘हम लोग मिल-जुल कर मंदिर को दोबारा बना देंगे’। ये शांति की पेशकश नहीं है, ये हिन्दुओं की भीरुता पर तमाचा है, लेकिन नींद में सोया हिन्दू इन थप्पड़ों के बाद भी जगता नहीं, खुश हो जाता हो कि देखो हमारे मजहबी भाई कितने शांतिप्रिय हैं।

मजहबी भाई बेशक शांतिप्रिय होंगे, लेकिन बारह घंटे पहले मंदिर तोड़ने वाली भीड़ को शांतिप्रिय कैसे कहा जा सकता है? इतने ही शांतिप्रिय थे तो पत्थर उठा कर मंदिर पर हमला कैसे बोला? खबर तो यह भी थी कि मंदिर तोड़ने के बाद यही शांतिप्रिय भीड़ छतों से हिन्दुओं पर पत्थर फेंक रही थी और तलवार लिए ‘शांतिप्रिय’ इलाके में घूम रहे थे।

हिन्दुओं को एक बात गाँठ बाँध कर रख लेनी चाहिए कि जब तुम्हारे 59 कारसेवकों को साबरमती एक्सप्रेस की बॉगी में जला दिया जाए, तो तुम्हें उसके बाद होने वाली प्रतिक्रिया को सत्रह साल बाद भी अपनी गलती मान कर डिफेंड नहीं करना चाहिए, बल्कि यह याद करना चाहिए कि गुजरात में उस आगजनी के बाद आज तक कोई दंगा नहीं हुआ।

‘शठे शाठ्यम समाचरेत्’ कहा जाता है। यानी, दुष्ट के साथ दुष्टता का ही आचरण करना चाहिए। आज तक हिन्दुओं ने न तो जलमार्ग ढूँढ कर दूसरे देशों के साथ व्यापार करने की कोशिश की, न ही उन्होंने उपनिवेश बनाए, न ही दूसरे देशों में घुस कर मस्जिदों को तोड़ा, न ही गाँवों में आग लगा कर लूट-पाट और बलात्कार किए, न ही किसी को तलवार की नोंक पर हिन्दू बनाया, तो आज के समय में वैसी अपेक्षा करना मूर्खता होगी।

लेकिन यह आशा तो की जा सकती है कि आस्था को निजी के साथ-साथ सामूहिक मान कर, दिल्ली में मंदिर तोड़े जाने पर चेन्नई में कैंडल मार्च हो। यह आशा तो की जा सकती है कि किसी मंगरू को अगर मजहब विशेष के तीन ‘शांतिप्रिय’ चाकुओं से इसलिए गोद दें कि उसने अपने घर के सामने उन्हें गाँजा पीने से मना किया था, तो उस मंगरू की लिंचिंग पर एक लाख लोग इंडिया गेट पर इंसाफ माँगने पहुँच जाएँ। यह आशा तो की जा सकती है कि तुम उस पुलिस स्टेशन को तब तक घेरे रखो जब तक सीसीटीवी में दिखने वाला हर अपराधी पुलिस पकड़ न ले।

लेकिन वो हमसे नहीं हो पाएगा, हम दलित-सवर्ण में, डोम-चमार में, इस ब्राह्मण और उस ब्राह्मण में, तीन गाँठ और दो गाँठ के जनेऊ में, उत्तर और दक्षिण में, हिन्दी और तमिल में, नौकरी और आस्था में तोल-मोल करते रहेंगे। हम निजी नफा-नुकसान तब तक देखते रहेंगे जब तक कि हमारे घर के भीतर के मंदिर में कोई आकर पेशाब न कर दे, जब तक हमारे घर की किसी लड़की को कोई खींच न ले जाए, जब तक हमारा भाई तीन दिनों के लिए किसी मजहबी भीड़ द्वारा गायब न कर दिया जाए।

इसलिए, इंतजार करो कल्कि अवतार का जो कि कलियुग में होना लिखा है। इसका इंतजार इसलिए करो क्योंकि तुम्हारे विरोध में बैठे लोगों का तंत्र, सत्ता से बाहर होते हुए भी इतना प्रबल है कि चोर की भीड़ हत्या पर प्रधानमंत्री को बोलने पर मजबूर कर देता है, लेकिन मंगरू जैसे दसियों हिन्दुओं की कट्टरपंथियों द्वारा की गई हत्या पर उससे कोई सवाल ही नहीं करता।

हमारी लड़ाई उस इकोसिस्टम से है जो हमें यह बताता है कि भले ही इस्लामी आक्रांताओं ने हिन्दुओं के मंदिर तोड़े, गाँवों को आग लगाया, जगहों की पहचान मिटाने के लिए नाम बदले, बलात्कार और लूट-पाट की, लेकिन देखो उन्होंने तो मुगलई व्यंजनों की रेसिपी भी तो बताई! ये इकोसिस्टम बार-बार बताता है कि ठीक है, उन्होंने लाखों हत्याएँ कि लेकिन वो दिल के बड़े अच्छे थे।

उनके नाम का सत्संग तुम्हें इतिहास में पढ़ाया जाता रहेगा। तुम्हारे नायकों को एक वाक्य में डिसमिस किया जाएगा लेकिन मुगल सल्तनत में किसके बाप ने किस-किस की बेटियों से शादी करके, कितने बच्चे पैदा किए और उसने फिर किस तरीके से कितने साल भारत पर राज किया, ये सब विस्तार से पढ़ाया जाएगा। और तुम्हारी तथाकथित हिन्दूवादी सरकार, जो कि भारतीय संस्कृति और इतिहास को संरक्षित करने का दावा किया करते थकती नहीं, एक शिक्षा नीति तक अपने पहले कार्यकाल में नहीं ला पाई। सरकारों से उम्मीद रखोगे तो ऐसे ठगे जाओगे कि शिकायत करने के लिए कोई मिलेगा नहीं।

इसलिए हे हिन्दुओ! तुम गाय के झुंड के सामने हाथ जोड़ कर ऐसे ही बैठे रहो कि भगवान शंकर का घर है, वो रक्षा करेंगे जबकि एक उन्मादी भीड़ आएगी और उसी शिवलिंग को लूट कर चली जाएगी जिससे तुम किसी प्रकाशपुंज के निकलने की प्रतीक्षा में हो कि त्रिशूल चमकेगा और दुश्मनों का नाश हो जाएगा। शंकर ऐसे कायरों पर अपनी ऊर्जा व्यर्थ नहीं करते। शंकर की ऊर्जा का पात्र बनने के लिए स्वयं का स्तर बढ़ाओ।

तुम्हें लगता है कि नोबेल पीस प्राइज की राह तकता सत्ताधीश तुम्हारे पक्ष में बयान देकर अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि बर्बाद करेगा कि उससे वैश्विक पटलों पर यह पूछ दिया जाए कि आपने तो बहुसंख्यकों के पक्ष में बयान दिया था। जब तक सामूहिक प्रतिकार करना नहीं सीखोगे, हमारे जैसे लोग इन खबरों को गिनते रहेंगे जहाँ फलाँ साल कितने मंदिर गिरे, कितनी जगहों पर मजहबी भीड़ ने किसी की हत्या कर दी, किसने लस्सी विक्रेता से हुई बाता-बाती पर मजहबी भीड़ बुला कर हिन्दू व्यक्ति की जान ले ली।

रीढ़हीन व्यक्ति के लिए तो मेडिकल साइंस ने सपोर्ट की व्यवस्था की है, लेकिन रीढ़हीन व्यक्तित्व के लिए किसी भी तरह का सपोर्ट बाजार में उपलब्ध नहीं है। अंग्रेजी में एक कहावत है कि भगवान उसी की मदद करता है जो स्वयं अपनी मदद करने को तैयार हों। यहाँ वैसी स्थिति नहीं है। रोने-गाने वालों की एक आभासी भीड़ का खून तीन सेंकेंड के लिए ऐसे ही उबल कर नीचे चला जाता है जैसे इंडक्शन चूल्हे पर स्टील के बर्तन में रखा दूध।

कल्कि आएँगे, सफेद घोड़े पर आएँगे और उसे मजहबी भीड़ घोड़ा समेत काट कर फेंक देगी और हम फेसबुक पर अपडेट करके उस समय की सरकार से पूछेंगे कि क्या तुम्हें इसी समय के लिए चुना था!

अजीत भारती: पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी