कई बार हमने हॉलीवुड और बॉलीवुड की फ़िल्मों में देखा है कि पूरे डिपार्टमेंट की इज़्ज़त बचाने के लिए एक गंदे अफसर को डिपार्टमेंट स्वयं ही मार देती है, और उसे शहीद का दर्जा दे दिया जाता है। इससे दोनों समस्याएँ सुलझ जाती हैं कि पब्लिक में पुलिस या सेना जैसी संस्था पर विश्वास बना रहता है, और डिपार्टमेंट से एक भ्रष्ट या सड़ा सेव बाहर कर दिया जाता है।
साध्वी प्रज्ञा की बहन और कर्नल पुरोहित की पत्नी का इंटरव्यू पढ़िएगा या देखिएगा कहीं से खोज कर। सेना के एक डेकोरेटेड अफसर पर हिन्दू टेरर का टर्म पोलिटिकल मास्टर्स को खुश करने के लिए ही गढ़ा गया था। उसका और कोई औचित्य नहीं था। इसके लिए सबूत चाहिए थे, धाराओं को संतुष्ट करने के लिए घटनाएँ चाहिए थीं, और उसके लिए लोग चाहिए थे।
आरवीएस मणि जो उस समय सरकारी अफसर थे, उन्होंने बताया है कि हेमंत करकरे की इसमें कितनी इन्वॉल्वमेंट थी और वो दिग्विजय सिंह के साथ गृहमंत्री पाटिल के साथ क्या करते थे। करकरे को सरकार और डिपार्टमेंट ने सम्मान दिया क्योंकि करकरे की असामयिक मृत्यु हो गई। अगर करकरे ज़िंदा होते तो शायद उन पर हिन्दू टेरर गढ़ने और झूठे केस बनाने के आरोप पर मामले चल रहे होते। या, करकरे कॉन्ग्रेस की योजना को सफल करके इस्लामी आतंक में मज़हब के न होने और चार लोगों के ब्लास्ट में संलिप्त होने की कहानी के आधार पर पूरा हिन्दू समाज भगवा आतंक का धब्बा लिए जी रहा होता।
मैं इस बात से इनकार नहीं कर रहा कि समुदाय विशेष को भी गलत आरोप और अपराध के नाम फँसाया गया है लेकिन न्याय का एक सीधा दर्शन है कि हजार गुनहगार छूट जाएँ लेकिन किसी भी बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिए। आप जब उन यातनाओं के बारे में सुनिएगा तो शायद समझ में आएगा कि आज अगर साध्वी प्रज्ञा ने हेमंत करकरे को शाप देने की बात कही, तो वो किसी भी रूप में ज़्यादती नहीं।
ज़्यादती इसलिए नहीं कि इसी देश के वही बुद्धिजीवी सेना द्वारा मारे आतंकियों के भाई द्वारा हथियार उठा लेने को जस्टिफाय करते हैं, सेना के अफसर द्वारा डाँटे जाने के बाद पुलवामा जैसी घटना करने वाले को जस्टिफाय करते हैं, आतंकी के बाप का हेडमास्टर होना और आतंकी के बेटे का दसवीं एग्ज़ाम पास करना ऐसे शेयर करते हैं जैसे उनका आतंकी होना मामूली बात थी, और आतंकी भाई या आतंकी बाप के मारे जाने के बाद, बदले की भावना में कोई बेटा या भाई आतंकी बन जाए तो उसके पास पर्याप्त कारण हैं, ऐसा मानते हैं, उनके लिए यह सोचना दुखप्रद है कि एक आम नागरिक को लगभग दस सालों तक यातनाएँ दी गईं, और वो उन लोगों के खिलाफ कुछ कहे!
साध्वी प्रज्ञा पर जो बीती है, वो हम या आप महसूस भी नहीं कर सकते। हेमंत करकरे एक भ्रष्ट अफसर थे या नहीं, यह तो बाद की बात है, लेकिन क्या किसी की रीढ़ की हड्डी तोड़ देना, उसे अश्लील फ़िल्में दिखाना, लगातार पीटना, गोमांस खिलाना, यह जान कर कि वो एक धार्मिक महिला है, उस यातना को झेलने वाली स्त्री को वैसे अफसर के खिलाफ बोलने का भी हक़ नहीं?
क्यों? क्योंकि वो चुनाव लड़ रही है? उसके तो चुनाव लड़ने पर भी आपको आपत्ति है कि चूँकि उस पर आरोप है, तो वो आतंकी हो गई। इस हिसाब से तो आधे नेता चोर, बलात्कारी, या हत्यारे हैं क्योंकि सब पर केस तो हैं ही। फिर आप किस पार्टी या नेता को समर्थन दे रहे हैं? आपको कोई हक़ ही नहीं है साध्वी प्रज्ञा के निजी अनुभवों के आधार पर यातना देने वाले अधिकारी को शापित करने पर उन्हें कोसने का।
आपकी समस्या है कि आपको आपके विरोधी में आदर्शवाद देखना है। आपको सेना के जवानों से सबूत माँगते वक्त लज्जा नहीं आई, आपको एयर स्ट्राइक पर यह कहते शर्म नहीं आई कि वहाँ हमारी वायु सेना ने पेड़ के पत्ते और टहनियाँ तोड़ीं, आपको बटला हाउस एनकाउंटर वाले अफसर पर कीचड़ उछालते हुए हया नहीं आई, लेकिन किसी पीड़िता के निजी अनुभव सुनकर आपको मिर्ची लगी कि ये जो बोल रही है, वो तो पूरी पुलिस की वर्दी पर सवाल कर रही है।
इस देश का संविधान और कानून साध्वी प्रज्ञा को चुनाव लड़ने की भी आज़ादी देता है, और उसे अपनी अभिव्यक्ति का भी मौलिक अधिकार है। बात यह नहीं है कि कल को वो अपराधी साबित हो गई तो? बात यह है कि अभी वो अपराधी नहीं है, और हेमंत करकरे भले ही अपना पक्ष रखने के लिए ज़िंदा न हों, पर इतने सालों की यातना झेलने के बाद, एनआईए द्वारा चार्ज हटा लिए जाने और राहत पाकर बाहर आई इस महिला को कड़वे वचन कहने का हक़ है।
डिपार्टमेंट हेमंत करकरे को सम्मानित मानता रहे, देश भी माने लेकिन खोजी प्रवृत्ति के पत्रकार इस विषय पर शोध करना मुनासिब नहीं समझते क्योंकि ये उनकी विचारधारा को सूट नहीं करता। मेरा तो बस यही कहना है, जैसे कि बड़े पत्रकार अकसर हर बात पर कह देते हैं, कि जाँच करवाने में क्या है। करवा लीजिए जाँच करकरे की भी और साध्वी प्रज्ञा की भी। करवाते रहिए जाँच कि किसने आरडीएक्स रखवाए थे और क्यों।
मृतक का सम्मान करना ठीक है, समझदारी भी इसी में है कि अगर पुलिस नामक संस्था की इज़्ज़त बचाने के लिए किसी घटिया पुलिसकर्मी को मेडल भी देना पड़े तो दे दिया जाना चाहिए, लेकिन किसी के जीवन के दस-दस साल बर्बाद करने, उन्हें लगातार टॉर्चर करने वालों के खिलाफ पीड़िता अपना दुःख भी न बाँटे?
और हाँ, जैसा कि ऊपर लिखा, राजनीति है यह। राजनीति में शब्दों से सत्ता पलटी जा सकती है। हिन्दू टेरर भी शब्द ही थे। यहाँ आदर्शवाद को बाहर रखिए। यहाँ हर शब्द तौल कर बोले जाएँगे और हर तरफ से बोले जाएँगे। आपको किसी पीड़िता के द्वारा किसी आततायी को शाप देने पर आपत्ति है कि वो लोकसभा चुनाव लड़ रही है, फिर ‘ज़हर की खेती’, ‘मौत का सौदागर’, ‘भड़वा’, ‘दल्ला’, ‘दरिंदा’, ‘आतंकवादी’ पर आपको आपत्ति क्यों नहीं होती?
या तो आपने हर सच को परख लिया है, आपने हर बयान का सच जान लिया है, या फिर आप अपनी विचारधारा से संबंध रखने वालों के लिए सहानुभूति रखते हैं, और विरोधी विचारों के लिए आप असहिष्णुता दिखाते हैं। साध्वी प्रज्ञा ने भले ही अपने बयान पर खेद व्यक्त किया हो, लेकिन वो एक राजनैतिक निर्णय है, निजी नहीं। इतने समझदार तो आप भी हैं।