ऐसी मिसाल शायद ही मिले की कोई राजनीतिक दल चुनावों में पिछली बार से भी ज्यादा जोरदार बहुमत हासिल करे और उसका मुख्यमंत्री ही चुनाव हार जाए। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में इस बार ऐसा ही हुआ। खैर, नंदीग्राम में शुभेंदु अधिकारी से पटखनी खाने के बावजूद ममता बनर्जी ने आज (मई 5, 2021) पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
वे लगातार तीसरी बार सीएम बनी हैं। उन्होंने शपथ ऐसे वक्त में ली है जब बंगाल में राजनीतिक हिंसा चरम पर है। 2 मई को नतीजों में टीएमसी की जीत स्पष्ट होते ही विपक्ष खासकर बीजेपी समर्थकों, उनके घरों और दफ्तरों को निशाना बनाया गया। कई हत्या की भी खबर आ चुकी है।
Mamata Banerjee takes oath as the Chief Minister of #WestBengal for a third consecutive term. She was administered the oath by Governor Jagdeep Dhankhar. pic.twitter.com/IXy05xNZPZ
— ANI (@ANI) May 5, 2021
बता दें कि पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के नतीजे 2 मई को घोषित किए गए थे। 292 सदस्यीय विधानसभा में TMC को 213 सीटों पर जीत हासिल हुई है। भाजपा की सीटें 2016 के 3 के मुकाबले बढ़कर 77 हो गई है। कॉन्ग्रेस और वामदलों का इस बार खाता भी नहीं खुला है। इतने जबर्दस्त जीत के बावजूद नंदीग्राम में ममता बनर्जी खुद 1622 वोटों के अंतर से चुनाव हार गईं।
ऐसे में एक सहज सवाल उठता है कि चुनाव हारने के बावजूद उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ कैसे ली? ध्यान रहे हम नैतिकता की नहीं, उन संवैधानिक प्रावधानों की बात कर रहे हैं, जिनके कारण उन्हें लगातार तीसरी बार सीएम पद की शपथ लेने का मौका मिला है।
क्या चुनाव में हारने के बाद ली जा सकती है सीएम या मंत्री पद की शपथ?
दरअसल, राज्य में मुख्यमंत्री या मंत्रियों की नियुक्ति को लेकर संविधान के आर्टिकल 164 में व्यवस्था दी गई है। इसके मुताबिक, हार के बाद भी कोई नेता मुख्यमंत्री पद की शपथ ले सकता है। उसके पास चुनाव लड़कर सदन की सदस्यता हासिल करने के लिएविधायक बनने के लिए 6 माह का समय रहता है। इसी कानून की धारा में व्यवस्था दी गई है कि राज्यपाल ही मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाएँगे और इसके बाद मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों का चयन करेंगे, फिर उनका शपथ ग्रहण होगा।
1971 में पहली बार सुप्रीम कोर्ट पहुँचा था ऐसा मामला
बता दें कि देश में इस तरह का यह पहला मामला नहीं है। इससे पहले 1971 में एक केस सुप्रीम कोर्ट पहुँचा था। उस समय उत्तर प्रदेश में त्रिभुवन नारायण सिंह को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई थी। उस समय तक त्रिभुवन नारायण सिंह विधानसभा सदस्य नहीं थे। कॉन्ग्रेस ने तय किया था कि उनके लिए उपचुनाव करवाया जाएगा और जीतकर वे विधानसभा में आ जाएँगे।
इस बीच त्रिभुवन नारायण सिंह के शपथ ग्रहण के खिलाफ इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका दायर हुई, जिसे खारिज कर दिया गया। तब हाई कोर्ट ने बताया कि संविधान के आर्टिकल 164 की धारा (1) के अनुसार, कोई भी शख्स छह माह तक विधानसभा का सदस्य बने बगैर मुख्यमंत्री या मंत्री बन सकता है। मामला सुप्रीम कोर्ट और फिर संवैधानिक बेंच के पास गया और वहाँ भी हाई कोर्ट का फैसला बरकरार रहा।
बाद में त्रिभुवन नारायण सिंह के लिए उपचुनाव हुए। बड़े-बड़े नेताओं का समर्थन मिला। लेकिन तभी इंदिरा ने अपनी ओर से राम कृष्ण द्विवेदी को उनके सामने प्रत्याशी के तौर पर उतार दिया और अंतत: मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके व्यक्ति को हारना पड़ा।
अब संविधान के इसी अनुच्छेद की तर्ज पर संभव है उपचुनाव करवाए जाएँ। जिसमें टीएमसी की पूरी कोशिश रहेगी की ममता बनर्जी को एक सीट से प्रत्याशी बनाकर जीत दिलवा दी जाए।
अगर इस बीच ऐसा नहीं होता तो इस संबंध में एक बार पंजाब मंत्री तेज प्रकाश की नियुक्ति पर कोर्ट ने बताया था कि अगर कोई मंत्री लगातार छह माह तक नियुक्त होने के बावजूद खुद को सदन के लिए निर्वाचित नहीं कर सका, तो उसका पद पर बने रहन असंवैधानिक, अनुचित, अलोकतांत्रिक और अमान्य है। कोर्ट ने यह भी साफ कहा था कि किसी सदन का सदस्य निर्वाचित हुए बगैर किसी व्यक्ति को बार-बार छह माह की अवधि बीतने के बाद मंत्री या अन्य पद नहीं दिए जा सकते। यह संविधान के अनुच्छेद 146 (4) की आत्मा के खिलाफ होगा और संविधान के साथ खिलवाड़ होगा।
इस तरह का एक प्रयास कुछ साल पहले बंगाल से सटे झारखंड में भी हुआ था। लेकिन अंतत: शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था। असल में 27 अगस्त 2008 को मधु कोड़ा ने झारखंड के सीएम पद से इस्तीफा दे दिया था। उसके बाद झामुमो के तत्कालीन मुखिया शिबू सोरेन ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। लेकिन वे विधानसभा के सदस्य नहीं थे।
पद पर बने रहने के लिए उन्हें 6 महीने के भीतर सदन का सदस्य बनना था। लेकिन तमाड़ सीट पर हुए उपचुनाव में वे हार गए। आखिरकार शिबू सोरेन को सीएम पद से इस्तीफा देना पड़ा।