Tuesday, September 17, 2024
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वही इस्लाम, वही कट्टरपंथ: आज जिस आग में जल रहा बांग्लादेश, कभी उसी आग में एक ही रात में कर दिया गया था शेख हसीना के परिवार का सफाया

बांग्लादेश की राजधानी ढाका के धनमंडी में यह नरसंहार रोड नंबर 32 के हाउस नंबर 677 में 15 अगस्त 1975 को हुआ था। उस तारीख के बाद शेख मुजीबुर रहमान के परिवार से सिर्फ दो लोग जिंदा बचे थे एक मौजूदा प्रधानमंत्री शेख हसीना और दूसरी शेख रेहाना। इन दोनों बहनों की जान भी इसलिए बच पाई क्योंकि ये जर्मनी में थीं।

बांग्लादेश में प्रधानमंत्री शेख हसीना के इस्तीफे की माँग में आज पूरे मुल्क में हिंसा हो रही है। उनके इस्तीफे के नाम पर पुलिस थानों पर हमले किए जा रहे हैं, सुरक्षाकर्मियों का कत्ल हो रहा है, निर्दोष हिंदुओं को बेवजह निशाना बनाया जा रहा है, सरकार को डराया जा रहा है… इन हालातों में वहाँ की सेना कह रही है कि वो स्थिति को नियंत्रित कर लेंगे, हालाँकि उनके द्वारा किए गए प्रयास से ऐसा लग नहीं रहा। उलटा अनुमान तो लगने लगे हैं कि सेना अब प्रधानमंत्री शेख हसीना से मुल्क की कमान ले सकती है। ये अनुमान ही कारण है जिसकी वजह से साल 1975 में बांग्लादेश में जो हुआ उसे याद करना जरूरी है जब सेना के कुछ बागी अधिकारियों के कारण शेख हसीना के घर में 20 लाशें गिरी थीं और बांग्लादेश की राजनीति में उथल-पुथल हुई थी।

बात 15 अगस्त 1975 की है। बांग्लादेश के संस्थापक और मुल्क के पहले राष्ट्रपति ‘बंगबंधु’ शेख मुजीब-उर-रहमान को परिवार समेत मौत के घाट उतारा था। शेख मुजीब-उर-रहमान को यकीन नहीं था कि उनके अपने ही लोग उनके खिलाफ बगावत कर सकते हैं, इसीलिए उन्होंने भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ के दिए इनपुट को नकार दिया। उन्होंने रॉ के संस्थापक आरएन काव द्वारा आगाह किए जाने पर जवाब दिया था- ‘ये मेरे बच्चे हैं मुझे नुकसान नहीं पहुँचाएँगे।’

शेख मुजीब-उर-रहमान उस समय अपने और अपने परिवार पर मंडराने वाले खतरे को समझ ही नहीं पाए। हकीकत वही थी जिसके लिए भारतीय खुफिया एजेंसी उन्हें आगाह कर रहे थी। अगस्त 1975 में बांग्लादेश के सेनाध्यक्ष जनरल शफीउल्ला को सेना की दो बटालियन के बिना किसी आदेश के शेख मुजीब के घर की ओर बढ़ने की सूचना मिली। उन्होंने शेख मुजीब को फोन मिलाया, लेकिन लाइन व्यस्त थी। बहुत कोशिशों के बाद उनका शेख मुजीब से संपर्क हुआ। शेख मुजीब गुस्से में बोले, “शफीउल्ला तोमार फोर्स आमार बाड़ी अटैक करोछे। तुमि जल्दी फोर्स पठाओ (तुम्हारे फोर्स ने मेरे घर पर हमला किया है, जल्दी सेना भेजो)।”

एंथनी मैस्करेनहास अपनी किताब ‘बांग्लादेश ए लेगसी ऑफ ब्लड’ में इस घटना का जिक्र करते हुए लिखते हैं, “शेख मुजीब को देखते ही मोहिउद्दीन नर्वस हो गया। उसके मुँह से केवल इतना ही निकला, सर आपनी आशुन (सर आप आइए)। मुजीब ने चिल्ला कर कहा-क्या चाहते हो? क्या तुम मुझे मारने आए हो? भूल जाओ। पाकिस्तान की सेना ऐसा नहीं कर पाई। तुम किस खेत की मूली हो?” तभी स्टेनगन लिए मेजर नूर ने प्रवेश किया और मोहिउद्दीन को धक्का देते हुए पूरी स्टेनगन खाली कर दी। मुजीब मुँह के बल गिरे और शेख मुजीब उर रहमान के बाद देखते ही देखते उस घर में मौजूद हर शख्स का सफाया हो गया।

बांग्लादेश की राजधानी ढाका के धनमंडी में यह नरसंहार रोड नंबर 32 के हाउस नंबर 677 में 15 अगस्त 1975 को हुआ था। उस तारीख के बाद शेख मुजीबुर रहमान के परिवार से सिर्फ दो लोग जिंदा बचे थे एक मौजूदा प्रधानमंत्री शेख हसीना और दूसरी शेख रेहाना। इन दोनों बहनों की जान भी इसलिए बच पाई क्योंकि ये जर्मनी में थीं। अगर उस समय ये दोनों बहनें घर में होती तो शायद इन्हें भी बागी अधिकारी मौत के घाट उतार चुके होते।

इस पूरे हत्याकांड को अंजाम देने वाले कर्नल फारूक रहमान, मेजर हुदा सहित पाँच हत्यारों को ढाका की केंद्रीय जेल में 2010 में फाँसी दी गई थी। इसके अलावा हत्या में शामिल अब्दुल मजीद को कोरोना समय के बीत साल 2020 में फाँसी हुई थी। वह मजीद शेख मुजीबुर रहमान के 12 हत्यारों में शामिल था। वो पाकिस्तान और भारत में डेरा जमाने से पहले लीबिया में छिपा हुआ था।जब शेख हसीना की सरकार बांग्लादेश में बनी तो उन्होंने पिता के हत्यारों को सजा देनी शुरू कर दी। इसी क्रम में अब्दुल मजीद का नंबर भी आया और कोरोना पाबंदियों के बीच उसे फाँसी पर लटकाया गया।

मालूम हो कि 1975 में जिस तरह से बंगबंधु के परिवार को घेरकर मारा गया था वैसे स्थिति 1971 में भी आई थी। तब, उन्हें पाकिस्तानी सेना ने घेरा था मगर तब एक भारतीय कर्नल अशोक तारा उन्हें सुरक्षित बचाकर बाहर ले आए थे। मगर अफसोस 1975 में शेख मुजीब उर रहमान को बचाने वाला कोई था। उनके अपनों ने ही उनकी पीठ पर खंजर घोंपा था जिन्हें वो अपना बच्चा कहते थे।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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