भारतीय सेना के गोपनीय रेजिमेंट के लिए कार्य करने वाले एक तिब्बती सैनिक ने देश के लिए बलिदान दे दिया। चीन की ‘पीपल्स लिबरेशन आर्मी’ के खिलाफ भारत की तरफ से ये किसी तिब्बती सैनिक का पहला ऐसा बलिदान था, जिसकी सार्वजनिक रूप से चर्चा हुई।
जिस पहाड़ी चोटी को 1962 युद्ध में भारत ने खो दिया था, उसे वापस दिलाने में जिन सैनिकों का अहम योगदान था, स्पेशल फ्रंटियर फोर्स (एसएफएफ) के कमांडो नीमा तेंजिन उनमें से एक थे। एसएफएफ की स्थापना 1962 में चीन से युद्ध के बाद हुई थी और इसमें अधिकतर तिब्बती शरणार्थी सैनिक के रूप में शामिल हैं।
51 वर्षीय नीमा तेंजिन की पैंगोंग झील क्षेत्र के पास 29-30 अगस्त की रात एक बारूदी सुरंग पर पैर पड़ जाने से मौत हो गई थी। भारत-चीन के बीच पिछले 5 महीनों से तनाव चल रहा है और सीमा पर कई स्तर की वार्ताओं के बाद भी कोई परिणाम निकले नहीं हैं। ‘The Epoch Times’ ने लेह के बाहरी इलाके के तिब्बती शरणार्थी कॉलोनी में स्थित बलिदानी सैनिक के घर जाकर परिजनों का हालचाल जाना।
ये जगह वहाँ से 125 मील की दूरी पर है, जहाँ नीमा तेंजिन वीरगति को प्राप्त हुए। नीमा तेंजिन के परिजन धुमुप ताशी ने बताया कि उन्होंने ‘ब्लैक टॉप’ को कब्जे में ले लिया था और अगले मोर्चे को फतह करने के लिए पेट्रोलिंग में लगे हुए थे, उसी में उनकी मृत्यु हुई। बलिदानी सैनिक के घर में 49 दिन का शोक मनाया जा रहा है। उनकी पत्नी नायमा ल्हामो और 14 वर्षीय बेटे तेंजिन दौड रोज की प्रार्थनाओं और अंतिम-संस्कार के बाद होने वाली प्रक्रियाओं में व्यस्त रहते हैं।
परिवार का कहना है कि 1962 में खोए ‘ब्लैक टॉप’ पर फिर से कब्जा जमाने के क्रम में वो बलिदान हुए। उसी सुबह उन्होंने अपनी माँ और पत्नी को फोन कर उन्हें खास ‘श्लोक’ पढ़कर प्रार्थना करने को कहा था। उन्होंने तभी बताया था कि कुछ खतरे हैं और उन्हें एक ‘विशेष कार्य’ हेतु प्रस्थान करना है। अगस्त 30, 2020 को भारतीय सैन्य अधिकारियों ने तिब्बती प्रतिनिधियों के साथ नीमा के घर जाकर परिजनों को उनके वीरगति को प्राप्त होने की सूचना दी।
इसके 3 दिन बाद भारतीय तिरंगे (बाद में साथ में तिब्बती झंडे) में लिपटा हुआ उनका शव आया। चीन में तिब्बत के झंडे पर पूर्णरूपेण प्रतिबंध लगा हुआ है। उनके दर्शन के लिए भाजपा के नेता व स्थानीय सांसद भी पहुँचे थे। नीमा तेंजिन ‘स्पेशल फ्रंटियर फोर्स’ के लिए काम करते थे, जिसे ‘विकास रेजिमेंट’ भी कहा जाता है। इस गुरिल्ला दस्ते को 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद गठित किया गया था और ये देहरादून में आधारित है।
भारत-पाकिस्तान में हुए 1971 के युद्ध के दौरान 3000 SFF के जवानों को लगाया गया था। इसी युद्ध के बाद पाकिस्तान से टूट कर बांग्लादेश नामक नए मुल्क का गठन हुआ। इनमें से 56 जवान वीरगति को प्राप्त हुए थे। SFF को शुरू में अमेरिकी CIA और फिर भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों द्वारा प्रशिक्षित किया गया। नीमा तेंजिन के घर में रोज सुबह-शाम उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना होती है, जिसमें आसपास के लोग भी जुटते हैं।
‘The Epoch Times’ में वीनस उपाध्याय की ग्राउंड रिपोर्ट के अनुसार, बलिदानी सैनिक 5 साल का बेटा इन चीजों से बेखबर गली में खेलता रहता है, इस बात से अनजान कि वो अब अपने पिता को कभी नहीं देख पाएगा। उनकी 17 साल की बेटी तेंजिन ज़म्पा ने बताया कि उनके पिता ने 36-37 वर्षों तक भारतीय सेना में सेवाएँ दी हैं वो हमेशा कहा करते थे कि वो भारत और तिब्बत से इतना प्यार करते हैं कि इसके लिए जान भी दे सकते हैं। उन्होंने बताया कि उनके पिता अगले साल ही रिटायर होने वाले थे।
उन्होंने बताया कि वो डॉक्टर बनना चाहती हैं और अगले साल रिटायरमेंट के बाद उनके पिता उनकी शिक्षा के लिए योजना बनाने वाले थे। हाल ही में परिवार ने एक कार खरीदा था और नीमा तेंजिन के वापस आने के बाद उस कार से हिमालय की सुंदरता को देखने की योजना भी बनाई गई थी। उनकी 76 साल की माँ कमरे में स्थित बैठी रहती हैं। उनकी पत्नी ने बताया कि जब वो लोग तिब्बत से हनले स्थित चैंथल आए थे, तब वो गर्भवती थीं और मात्र 22 साल की थीं।
#EpochTimes visited the home of martyred Tibetan soldier, #NyimaTenzin in #Leh. Here’s a message from the family to Prime Minister @narendramodi @PMOIndia #LadakhHeroes
— Venus Upadhayaya (@venusupadhayaya) October 11, 2020
“We request PM Modi for help for the education of the children of our martyr, Nyima Tenzin.”
Story soon. pic.twitter.com/3clLKmH5gM
वो उन 1 लाख शरणार्थियों में से एक हैं, जो माओ के आदेश से चीन की सेना द्वारा तिब्बत पर कब्ज़ा के लिए दमनकारी अभियान शुरू किए जाने के बाद भारत आ गए थे। धर्मगुरु दलाई लामा को भी ल्हासा में शरण लेनी पड़ी थी। वो लेह की 11 तिब्बती शरणार्थी कॉलनियों में से एक में रहती हैं। उनके बेटे ने बताया कि नीमा तेंजिन हमेशा कहा करते थे कि न कभी झूठ बोलो और न ही कोई बुरा काम करो।
साथ ही वो सलाह देते थे कि कभी भी ड्रग्स का सेवन नहीं करना चाहिए। उनके बेटे ने बताया कि तेंजिन जब भी घर आते थे, वो उसकी पसंदीदा चीजें खरीद दिया करते थे। पत्नी ने बताया कि घर-परिवार की जिम्मेदारियों का निर्वहन करने वाले उनके पति अब नहीं रहे, ऊपर से उनके छोटे बच्चे भी हैं। उन्होंने कहा कि वो हमेशा अपने बच्चों को कभी हार न मानने और अपने पिता के नक्शेकदम पर चलने की सलाह देती हैं।
बच्चों की शिक्षा के लिए PM मोदी से माँगी मदद
उनकी पत्नी ने कहा कि वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बस इतना ही निवेदन करती हैं कि वो उनके बच्चों की शिक्षा-दीक्षा पूरी करने में परिवार की सहायता करें। वो चीन को राक्षस बताते हैं और कहती हैं कि उसमे अब जरा भी मानवता नहीं बची है। बता दें कि तिब्बती आस्था के अनुसार, अगर अप्राकृतिक मृत्यु होने पर 49 दिनों के कर्मकांड का विधान है और इस दौरान लोग प्रार्थनाएँ करते हैं। आसपास के लोग भी जुटते हैं और उन्हें खिलाया-पिलाया जाता है।
ज्ञात हो कि नीमा तेंजिन की अंतिम विदाई में भारत और तिब्बत के झंडे साथ-साथ दिखे थे और इस मौके पर लेह में तिब्बत की आज़ादी का भी नारा गूँजा था। इस दौरान लेह में तिब्बती नागरिकों ने वहाँ के स्थानीय गीत गाए थे और ‘भारत माता की जय’ के नारे भी लगे थे। नीमा तेंजिन की अंतिम यात्रा में राम माधव जैसे बड़े भाजपा नेता का शामिल होना और उनका ससम्मान अंतिम संस्कार होने चीन के लिए एक कड़ा सन्देश था।