11 फरवरी 2020। 70 सदस्यीय दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे आए। जोरदार तरीके से आप ने सत्ता में वापसी की। कॉन्ग्रेस ने जो 66 उम्मीदवार उतारे थे उनमें से 63 अपनी जमानत ही नहीं बचा पाए। आप की जीत और भाजपा की हार के चर्चे के बीच कॉन्ग्रेस को सुर्खियॉं हाथ लगनी नहीं थी। इसलिए, उसके हाई प्रोफाइल उम्मीदवारों के दयनीय प्रदर्शन की भी चर्चा नहीं हुई। फिर भी आपको संगम विहार सीट का हाल सुनाता हूॅं। यहॉं से कॉन्ग्रेस की उम्मीदवार पूनम आजाद को कुल 2,604 वोट मिले हैं। जितने वोट पड़े उसका केवल 2.23 फीसदी। वे कॉन्ग्रेस की प्रचार समिति के अध्यक्ष कीर्ति आजाद की पत्नी हैं।
यहॉं पूनम आजाद की विशेष तौर पर चर्चा की वजह शीला दीक्षित के नाम पर कॉन्ग्रेस में मचा घमासान है। इस कहानी को समझने के लिए आपको 2003 में जाना होगा। उस साल अचानक से दिल्ली के राजनीतिक सर्कल में एक महिला का नाम चर्चा में आया। यह महिला थीं, पूनम आजाद। बिहार के मुख्यमंत्री रहे भागवत झा आजाद की बहू और 1983 की वर्ल्ड चैंपियन क्रिकेट टीम के सदस्य तथा आज के दिल्ली प्रदेश कॉन्ग्रेस की चुनाव प्रचार समिति के चेयरमैन कीर्ति आजाद की पत्नी। उस समय कीर्ति बीजेपी में हुआ करते थे।
चर्चा चली कि दिल्ली की हाई प्रोफाइल गोल मार्केट विधानसभा सीट से तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ बीजेपी पूनम को मैदान में उतार सकती है। इस चर्चा से सबसे ज्यादा हैरानी दिल्ली भाजपा के नेताओं को ही हुई। उन्होंने पूनम आजाद का न तो नाम सुना था और न कभी उन्हें पार्टी गतिविधियों में शामिल होते देखा था। उस समय कीर्ति आजाद ने कहा था कि यदि बीजेपी उनकी पत्नी को टिकट देती है तो यह उनके लिए अपनी हार का बदला लेने का मौका होगा। बीजेपी ने उस साल हुए विधानसभा चुनाव में गोल मार्केट से पूनम आजाद को ही लड़ाया। लेकिन, न शीला दीक्षित हारीं और न पत्नी के जरिए प्रतिशोध की कीर्ति की मुराद पूरी हो पाई।
असल में, कीर्ति आजाद और शीला दीक्षित की राजनीतिक अदावत 1998 में ही शुरू हो गई थी। कॉन्ग्रेसी पिता के क्रिकेटर बेटे कीर्ति आजाद ने राजनीतिक पारी की शुरुआत बीजेपी से की। 1993 में पहली बार चुनावी राजनीति के मैदान में उतरे। गोल मार्केट की पिच पर ऐसा झंडा गाड़ा कि दिल्ली विधानसभा पहुॅंच गए। लेकिन, पॉंच साल बाद ही उन्हें चुनावी हार का स्वाद चखना पड़ा। कॉन्ग्रेस की शीला दीक्षित ने न केवल उन्हें चुनाव में पटखनी दी, बल्कि दिल्ली के राजनीति से कीर्ति का बोरिया-बिस्तर बॅंध गया।
साल भर बाद हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उन्हें बिहार के दरभंगा से चुनाव लड़ने भेज दिया। दरभंगा कीर्ति का ससुराल भी है और यहॉं ब्राह्मण मतदाता प्रभावी भी हैं। इस सीट से कीर्ति तीन बार लोकसभा भी पहुॅंचे। लेकिन, दिल्ली की राजनीतिक पिच पर जमने का दूसरा मौका वे तलाशते रहे। कभी पत्नी पूनम के चेहरे को आगे कर तो कभी डीडीसीए में पैर जमाने की कोशिश कर। इस कोशिश में पूनम बीजेपी से भाया आप होते हुए साल 2017 में कॉन्ग्रेस में आ गईं। वहीं, दिल्ली एवं जिला क्रिकेट संघ (डीडीसीए) को लेकर पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली के साथ उनका विवाद आखिरकार बीजेपी से उनकी विदाई का कारण बना।
बीते साल आम चुनावों से पहले कीर्ति आजाद कॉन्ग्रेस में आए थे। उस समय पार्टी अध्यक्ष रहे राहुल गॉंधी ने खुद उनका इस्तकबाल किया था। यह दूसरी बात थी कि बिहार में कॉन्ग्रेस उनके लिए सहयोगियों से न दरभंगा की सीट ले पाई और न राज्य में दूसरा कोई सीट तलाश पाई। आखिरकार, उन्हें चुनावी भट्ठी में पार्टी ने झारखंड की धनबाद सीट से झोंक दिया। चमत्कार होना न था और कीर्ति हार गए।
इस चुनावी पराजय के बाद कीर्ति राजनीति के नेपथ्य में चले गए। फिर अक्टूबर 2019 में अचानक से चर्चा में आए। कहा गया कि उनका दिल्ली प्रदेश कॉन्ग्रेस अध्यक्ष बनना तय है और कभी भी नाम का ऐलान हो सकता है। लेकिन, जब नाम का ऐलान हुआ तो कीर्ति के हिस्से चुनाव प्रचार समिति आई। उस समय ऐसा दावा किया गया था कि कीर्ति के हाथ से अध्यक्ष की कुर्सी पार्टी के प्रदेश प्रभारी पीसी चाको और शीला दीक्षित के पूर्व सांसद बेटे संदीप दीक्षित के बीच की लड़ाई के कारण फिसली है। शीला दीक्षित का बीते साल 20 जुलाई को निधन हुआ था। उनके चाको से मतभेद जगजाहिर थे। संदीप ने इसे अपनी माँ की मौत का कारण बताया था। चाको चाहते थे कि शीला की जगह प्रदेश की कमान कीर्ति को मिले।
ऐसे में सोनिया ने बीच का रास्ता चुना। लेकिन, विडंबना देखिए सोनिया के नेतृत्व में जिस शख्स का दिल्ली की राजनीति से शीला ने बोरिया-बिस्तर बॅंधवाया था, दो दशक बाद सोनिया ने शीला की मौत के 94 दिन के बाद उसे ही मोर्चे पर लगा दिया। इस उम्मीद में कि शीला जैसा कमाल कर दिखाएँ। इसके पीछे कॉन्ग्रेस की दो दशक पुरानी वही रणनीति है जिसके बलबूते उसे 1998 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत मिली और फिर अगले डेढ़ दशक तक वह राज्य की सत्ता में बनी रही। पंजाबी और पूर्वांचल मतदाताओं को एक साथ साधना। उस समय भी पार्टी के अध्यक्ष सुभाष चोपड़ा ही थे, जिन्हें एक बार फिर से अध्यक्ष बनाया गया है। पार्टी का चेहरा थीं शीला दीक्षित, जो उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता रहे उमाशंकर दीक्षित की बहू थीं।
लेकिन, शायद सोनिया यह भूल गईं थी कि वह साल दूसरा था, यह साल दूसरा है। इस बीच यमुना में काफी पानी बहा। उसका ही असर था कि इस बार चुनाव में पहले कॉन्ग्रेस के नेतृत्व ने सरेंडर किया फिर उम्मीदवार पॉंच फीसदी वोट भी नहीं ला पाए। लगातार दूसरे विधानसभा चुनाव में पार्टी का खाता नहीं खुला। नतीजों के बाद पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने वाले सुभाष चोपड़ा की बेटी भी जमानत नहीं बचा पाई। आखिर में रही-सही कसर चाको ने हार की जिम्मेदार दिवंगत दीक्षित के मत्थे मढ़ कर पूरी कर दी है। जबकि सच्चाई यही है कि दिल्ली की सत्ता में वापसी के लिए सोनिया ने हर उस शख्स को गले लगाया जिससे पूर्व मुख्यमंत्री के मतभेद थे, जो उनसे कभी बदला लेना चाहता था।