आमिर खान के बेटे जुनैद की एक फिल्म आई है ‘महाराज’, जिसमें उन्होंने एक पत्रकार का किरदार निभाया है वहीं जयदीप अहलावत एक वैष्णव संत की भूमिका में हैं जिस पर कई गंभीर आरोप लगे थे। फिल्म वास्तविक घटनाओं से प्रेरित है और जुनैद खान ने करसनदास मुळजी का किरदार निभाया है, वहीं जयदीप अहलावत ने जदुनाथजी बृजरतनजी का। असल में कहानी 19वीं सदी के मध्य में घूमती है, जब समाज सुधर के लिए बने ‘बुद्धिवर्धक सभा’ का प्रभाव बढ़ रहा था।
इस सभा में शामिल थे – नर्मदाशंकर लालशंकर, महिपतराम रूपराम और करसनदास मुळजी। इन्होंने उस दौर में यूरोपियन शिक्षा प्राप्त की थी, साथ ही अंग्रेज शिक्षकों से भी पढ़े थे। इन्होंने भारत में सामाजिक-धार्मिक सुधार का जिम्मा उठाया। इस दौरान वो स्वदेशाभिमान का लक्ष्य लेकर भी चले, जिसमें गुजराती भाषा का विकास शामिल था। साथ ही इन सबने बदलते समाज और परिदृश्य में भारत में सुधार का बिगुल फूँका। जहाँ नर्मद और महिपत नागर ब्राह्मण थे, वहीं करसन कपोल बनिया।
‘सत्यप्रकाश’, करसनदास मुळजी और ‘महाराज’
इन तीनों ने विधवा विवाह के लिए अभियान चलाया। मात्र 21 वर्ष की उम्र में करसनदास मुळजी को उनकी चाची ने पत्नी समेत घर से निकाल दिया था, वहीं नर्मदाशंकर लालशंकर को एक विधवा से शादी करने के कारण समाज से बहिष्कृत कर दिया गया था। सन् 1860 में महिपतराम पढ़ाई के लिए लंदन गए, जिसका उनके समुदाय में खूब विरोध हुआ क्योंकि तब समुद्र पार करना पाप माना जाता था। वहीं नर्मद का वैष्णव संत जदुनाथजी के साथ वाद-विवाद चालू हुआ।
इसी दौरान करसनदासजी मुळजी ने ‘सत्यप्रकाश’ नामक अख़बार में अक्टूबर 1860 में एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने वैष्णव आचार्यों के मनमाने और अनैतिक करतूतों को लेकर खुलासे किए। उस दौरान जदुनाथजी बॉम्बे में थे। इस लेख के प्रकाशित होने के बाद उन्होंने करसनदास मुळजी और ‘सत्यप्रकाश’ के संपादक रुस्तमजी राणिना के खिलाफ मानहानि का मामला दायर किया, जिसे ‘महाराज लिबेल केस’ कहा गया। इसमें जदुनाथजी की हार हुई और पत्रकार की जीत।
पूरे देश में इस मामले की खूब रिपोर्टिंग हुई। जाति और कारोबार से जुड़ी संस्थाओं को वैष्णव आचार्य ने अपने हाथ में कर रखा था, ऐसे में उनके अनुयायी भी बड़ी संख्या में उनके समर्थन के लिए उतर गए थे। तब बॉम्बे में ही सुप्रीम कोर्ट चला करता था, जिसमें इसकी सुनवाई हुई। वल्लभ संप्रदाय के जदुनाथजी की लाइफस्टाइल को लेकर देश भर में चर्चा छिड़ गई थी और भारत-इंग्लैंड में करसनदास मुळजी नायक बन गए थे। इसके कुछ महीनों बाद उन्होंने इंग्लैंड की यात्रा भी की और वापस लौट कर वृत्तांत लिखा।
दक्षिणपंथी लेखक व पत्रकार हैं सौरभ शाह, हिन्दू हित पर मुखर
फिल्म ‘महाराज’ गुजरात के वरिष्ठ पत्रकार सौरभ शाह के उपन्यास पर आधारित है। सौरभ शाह दक्षिणपंथी हैं और अक्सर हिन्दू हित के मुद्दों पे बोलते रहते हैं। फिल्म की रिलीज से पहले उनका कहना था कि YRF-Netflix अगर फिल्म में हिन्दू धर्म को गलत तरीके से दिखाता है और या फिर क्रिएटिव लिबर्टी के नाम पर धर्म को बदनाम करता है तो सबसे पहले वही विरोध करेंगे। हालाँकि, फिल्म के अंत में डिस्क्लेमर डाल कर धर्म के प्रति सम्मान प्रकट किया गया है।
फिल्म के अंत में लिखा गया है, “संप्रदाय किसी व्यक्ति या घटना से बड़ा होता है। इस एक अपवाद को पीछे छोड़, वैष्णव संप्रदाय धर्म के मार्ग पर आगे बढ़ता रहा। भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक गौरव का वैष्णव संप्रदाय और उसके लाखों भक्त एक अभिन्न अंग हैं और हमेशा रहेंगे।” एक तरह से फिल्म निर्माताओं ने ये दिखाया है कि वो ये फिल्म बना रहे हैं, जिसमें विलेन एक हिन्दू संत है, लेकिन वो वास्तविक घटना को दिखा रहे हैं और उनका इरादा धर्म को बदनाम करने का नहीं है।
बॉलीवुड पर शक क्यों न हो?
अब चूँकि फिल्म में आमिर खान के बेटे जुनैद हैं, निर्माता यशराज फिल्म्स है और रिलीज नेटफ्लिक्स ने किया है – इसीलिए, विवाद तो स्वाभाविक है। आमिर खान ने ‘PK’ (2014) में किस तरह से भगवान शिव की वेशभूषा वाले व्यक्ति को बाथरूम में छिपते दिखा कर मजाक बनाया है, ये सर्वविदित है। नेटफ्लिक्स ने कैसे ‘लीला’ (2019) वेब सीरीज के जरिए हिन्दुओं को आतंकवादी दिखाया, ये भी हमें पता होना चाहिए। YRF ने ‘शमशेरा’ (2022) में कैसे एक त्रिपुण्ड तिलकधारी ब्राह्मण को जनजातीय समाज के खिलाफ और गुंडे के रूप में दिखाया, ये भी हमने देखा।
ऐसे में शक किसे न हो? और हाँ, आज के दौर में जब मदरसों से यौन शोषण की खबरें आ रही हैं और मौलवियों द्वारा कुकर्म की घटनाएँ सामने आ रही हैं – एक 164 साल पुराने मामले को अचानक से उखाड़ने के पीछे क्या मकसद हो सकता है? सौरभ शाह ने तो 2014 के उपन्यास पर आधारित है, उन्हें पैसे मिले और उन्होंने अपनी कहानी बेची जैसा कि प्रक्रिया है। लेकिन, उसके बाद सब कुछ निर्माता-निर्देशक के हाथ में होता है। अब ये तो दर्शक तय करेंगे कि फिल्म इस घटना के साथ न्याय करती है या नहीं।
सौरभ शाह ने ऑपइंडिया से बात करते हुए बताया कि वो खुद भी वैष्णव संप्रदाय के वल्लभ पंथ के अनुयायी हैं और करसनदास मुळजी भी एक कट्टर वैष्णव थे। बतौर पत्रकार वो चाहते थे कि महाराज अपने अनुयायियों का सही तरीके से मार्गदर्शन करें और अपनी जीवनचर्या को सुधारें। घूस और धमकी के जरिए उन्हें अपने पाले में करने की कोशिश की गई। वैष्णव महाराजों ने कोर्ट में पेशी से छूट हासिल की, दस्तावेज पर प्रभावशाली लोगों से हस्ताक्षर कराया और महिलाओं को विश्वास में लेकर पुरुषों पर दबाव बनाया कि वो उनका समर्थन करें।
करसनदास मुळजी ने नए संप्रदायों में चल रहे ठगी को उजागर करते हुए अपने लेख में बताया कि असली हिन्दू धर्म क्या है, शास्त्र क्या कहते हैं। बॉम्बे में जब मामला चला तो कई प्रभावशाली लोग उनकी तरफ से ही कोर्ट में गवाही देने के लिए पेश हुए। इनमें से अधिकतर कट्टर वैष्णव थे। 21 अख़बारों ने करसनदास मुळजी की जीत पर खबर प्रकाशित की थी। जज जोसेफ अर्नोल्ड ने भी उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि उन्होंने एक बड़ी लड़ाई लड़ी है, साथ ही उन्होंने कहा कि जो अनैतिक है उसे धर्म के आधार पर सही नहीं ठहराया जा सकता।
खैर, इस बहस में हम कोई निर्णय नहीं देना चाहेंगे क्योंकि एक तरफ बॉलीवुड और इस फिल्म से जुड़ी संस्थाओं और लोगों का इतिहास ख़राब है तो दूसरी तरफ एक दक्षिणपंथी लेखक ने इसकी कहानी लिखी है और ये वास्तविक घटनाओं पर आधारित है। क्या बॉलीवुड सुधर गया है? – इस प्रश्न का उत्तर एक फिल्म के आधार पर नहीं दिया जा सकता। जब माँ भवानी का अपमान करने वाले को जवाब देने कारण हकीकत राय नामक बच्चे का खुलेआम सिर कलम कर दिया गया था। इस पर फिल्म बनाएगा बॉलीवुड?
वैष्णव आचार्यों को ‘गुंडा’ दिखाना अगर ठीक है तो फिर औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ व श्रीकृष्ण मंदिर मंदिर ध्वस्त किया, मीर बाक़ी ने राम मंदिर ध्वस्त किया और सिकंदर बुतशिकन ने मार्तण्ड मंदिर को ध्वस्त किया – इन सब कहानियों पर फिल्म कब बनेगी? इन सब कहानियों पर फिल्म इंडस्ट्री का एक छोटा सा समूह फिल्म बना तो रहा है, लेकिन उसके पास न संसाधन है और न समर्थन। खैर, ‘सनातन के सम्मान’ के साथ ‘व्यभिचारी वैष्णव आचार्य’ की कहानी को पर्दे पर दिखाना हिन्दू विरोधी है या हिन्दू हित में – आप तय कीजिए।