Thursday, November 7, 2024
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वक्फ ट्रिब्यूनल होने का मतलब कोर्ट की कोई औकात होना नहीं: केरल हाई कोर्ट ने कर दिया क्लियर, कहा- सिविल कोर्ट को आदेश लागू कराने का अधिकार; जानिए क्या है मामला

वक्फ अधिनियम की धारा 85 सिविल न्यायालयों, राजस्व न्यायालयों और अन्य अधिकारियों को वक्फ संपत्ति, विवादों, प्रश्नों और अन्य मुद्दों से संबंधित मामलों पर कानूनी कार्रवाई करने से रोकती है। उस अधिनियम में कहा गया है कि इन मुद्दों को वक्फ ट्रिब्यूनल द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिए।

केरल हाई कोर्ट ने वक्फ को लेकर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। हाई कोर्ट ने कहा कि वक्फ न्यायाधिकरण होने के बावजूद सिविल कोर्ट को पुराने वक्फ विवादों से संबंधित अपने आदेशों को लागू करने का अधिकार है। कोर्ट ने कहा कि न्यायाधिकरण की स्थापना से पहले शुरू किए गए वक्फ विवादों से संबंधित आदेशों को निष्पादित करने के सिविल न्यायालय के अधिकार क्षेत्र पर रोक नहीं लगता है।

हाई कोर्ट ने कहा कि वक्फ अधिनियम में ऐसा कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है कि वक्फ न्यायाधिकरण वक्फ विवादों से संबंधित डिक्री को निष्पादित करने वाला एकमात्र मंच है। वक्फ अधिनियम के तहत ट्रिब्यूनल के गठन के बाद भी सिविल कोर्ट के पास वक्फ न्यायाधिकरण द्वारा पारित डिक्री को निष्पादित करने का अधिकार क्षेत्र बना हुआ है।

न्यायमूर्ति कौसर एडप्पागथ ने कहा, “मेरा मानना ​​है कि वक्फ न्यायाधिकरण के गठन के बाद भी सिविल न्यायालय द्वारा वक्फ विवाद से संबंधित पारित डिक्री को निष्पादित करने पर कोई रोक नहीं है।” इसमें प्रिवी काउंसिल द्वारा 1872 में की गई टिप्पणी का उल्लेख किया गया है, जिसमें कहा गया था, “भारत में एक वादी की मुश्किलें तब शुरू होती हैं, जब वह डिक्री प्राप्त कर लेता है।”

उच्च न्यायालय ने कहा कि वर्तमान मामला उस भावना का स्पष्ट उदाहरण है, क्योंकि इसमें डिक्री वर्ष 2000 में जारी की गई थी, जो 1996 में दायर एक मुकदमे में थी। यह डिक्री अभी भी निष्पादन की प्रतीक्षा कर रहा है। यहाँ तक कि इसके निष्पादन के लिए उचित मंच का प्रश्न भी अनसुलझा रह गया था। इस मामले में याचिकाकर्ता ने एक मस्जिद पर कानूनी मान्यता और नियंत्रण की माँग की थी।

याचिकाकर्ता ने बताया कि उसके पूर्वजों ने केरल राज्य वक्फ बोर्ड में पंजीकृत कुट्टिलांजी मुस्लिम मस्जिद बनवाई था। आरोप है कि प्रतिवादियों ने मस्जिद के प्रशासन के लिए गैर-कानूनी तरीके से एक समिति बनाई और मस्जिद पर नियंत्रण की कोशिश की। इस तरह, याचिकाकर्ताओं ने 1996 में मस्जिद की घोषणा, स्थायी निषेधाज्ञा और कब्जे की वसूली के लिए मुकदमा दायर किया।

जब मुकदमा शुरू हुआ था, तब केरल में वक्फ ट्रिब्यूनल का गठन नहीं हुआ था। मुकदमा लंबित रहने के दौरान इसे स्थापित किया गया। ट्रिब्यूनल के गठन के बाद प्रतिवादियों ने वक्फ अधिनियम 1995 की धारा 85 का हवाला देते हुए सिविल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र को चुनौती दी। उन्होंने तर्क दिया कि उक्त प्रावधान न्यायाधिकरण के गठन के बाद सिविल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र को समाप्त कर देता है।

वक्फ अधिनियम की धारा 85 सिविल न्यायालयों, राजस्व न्यायालयों और अन्य अधिकारियों को वक्फ संपत्ति, विवादों, प्रश्नों और अन्य मुद्दों से संबंधित मामलों पर कानूनी कार्रवाई करने से रोकती है। उस अधिनियम में कहा गया है कि इन मुद्दों को वक्फ ट्रिब्यूनल द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिए।

सिविल कोर्ट ने साल 2000 में याचिकाकर्ताओं के पक्ष में फैसला सुनाया और उन्हें मस्जिद पर नियंत्रण दे दिया। साल 2016 में अपील अंतिम होने पर डिक्री को बरकरार रखा गया। जब याचिकाकर्ताओं ने सिविल कोर्ट (निष्पादन न्यायालय) में इस डिक्री को निष्पादित करने की माँग की तो अदालत ने सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) की धारा 37(B) का हवाला दिया।

कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं को उचित अदालत के समक्ष निष्पादन याचिका दायर करने का आदेश दिया, जिसमें कहा गया कि केवल वक्फ न्यायाधिकरण ही डिक्री को निष्पादित कर सकता है। इस आदेश से दुखी होकर याचिकाकर्ताओं ने केरल हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। आखिरकार हाई कोर्ट ने सिविल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र को बरकरार रखा।

हाई कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि निष्पादन न्यायालय ने सीपीसी की धारा 37(बी) की गलत व्याख्या की है, क्योंकि उसने उसकी धारा 38 और आदेश XXI नियम 10 की अनदेखी की है। इसमें स्पष्ट रूप से किसी डिक्री को या तो उसे जारी करने वाली अदालत द्वारा या किसी भी अदालत द्वारा निष्पादित करने की अनुमति देता है, जिसे इसे निष्पादन के लिए स्थानांतरित किया गया है।

न्यायालय ने आगे कहा कि अधिनियम की धारा 7(5) यह सुनिश्चित करती है कि ट्रिब्यूनल के गठन से पहले सिविल अदालतों में शुरू किए गए पहले से मौजूद मामले वक्फ ट्रिब्यूनल के चालू होने के बाद भी सिविल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में रहेंगे। अंत में न्यायालय ने निष्पादन न्यायालय को तीन महीने के भीतर डिक्री को लागू करने का निर्देश दिया।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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