आइंस्टीन की थ्योरी को चुनौती देने वाले प्रसिद्ध गणितज्ञ डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह का आज देहांत हो गया। बिहार से निकलकर कैलिफॉर्निया में अपनी पीएचडी पूरी कर नासा में सेवा प्रदान करने वाले गणितज्ञ अब हमारे बीच नहीं है। हालाँकि ये सच है कि उनकी उपलब्धियाँ न केवल बिहार बल्कि पूरे भारत को हमेशा गौरवान्वित करेंगी। लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि इतने काबिल शख्सियत होने के बाद भी उन्होंने लंबे समय तक बीमारी के कारण गुमनामी की जिंदगी जी, फिर भी उनका इलाज संभव नहीं हुआ। डॉ वशिष्ठ नारायण की कामयाबियाँ किसी भी व्यक्ति के लिए आदर्शों का प्रतीक हो सकती है, लेकिन उनकी जिंदगी सिर्फ़ विचार का विषय…
Dr Vashistha Narayan Singh, famous mathematician from Bihar is no more with us. He received Ph.D. in Reproducing Kernels and Operators from University of California. His doctoral advisor was John L. Kelley.
— Ram Nivas Kumar ?? (@ramnivaskumar) November 14, 2019
Om Shanti ??@rahulroushan @sanjayjaiswalMP @SushilModi pic.twitter.com/LcsX3guYfa
बिहार के भोजपुर जिले के बसंतपुर में 2 अप्रैल 1942 को पैदा हुए डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह न केवल अपने हुनर से एक महान गणितज्ञ बने, बल्कि वो पूरे विश्व में भी विख्यात हुए। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। करीब 45 साल पहले उन्हें मानसिक बीमारी सिजोफ्रेनिया ने घेर लिया और धीरे-धीरे उनकी स्थिति ये हो गई कि वो एक अपार्टमेंट के भीतर गुमनामी का जीवन बिताने लगे।
बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार पटना में रहने वाले उनके भाई अयोध्या सिंह ने डॉ वशिष्ठ नारायण के बारे में जानकारी साझा करते हुए बताया था कि जब वह अमेरिका से लौटे थे, तो करीब 10 बक्से किताबें लाए थे। जिन्हें वे बीमार होने के बाद भी पढ़ते रहे। इसके अलावा उनके भाई ने ये भी बताया था कि लंबे समय से बीमार होने के बावजूद भी उनका आखिर तक किताब, कॉपी और पेंसिल से मोह नहीं छूटा। स्थिति ये थी उनके लिए किसी छोटे बच्चे की तरह हर 3-4 दिन में एक बार कॉपी पेंसिल खरीदनी पड़ती थी।
मशहूर गणितज्ञ भले ही आज हमारे बीच से चले गए। लेकिन शायद ही कोई ऐसा शख्स हो जो इस बात को भूल पाए कि उन्होंने महान वैज्ञानिक आइंस्टीन के सापेक्ष सिद्धांत को खुली चुनौती दे दी थी। इतना ही नहीं, उन्हें लेकर ये किस्सा भी बहुत मशहूर है कि नासा में एक बार अपोलो की लॉन्चिंग से ठीक पहले 31 कंप्यूटर कुछ देर के लिए बंद हो गए थे, ऐसे में उनके द्वारा किया गया सारा कैल्कुलेशन और कंप्यूटर्स के ठीक होने के बाद किया गया कैल्कुलेशन बिलकुल एक था।
वो कहावत है न कि पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं। डॉ वशिष्ठ नारायण का जीवन बिलकुल ऐसा ही था। बताया जाता है कि जब वे पटना साइंस कॉलेज में पढ़ते थे, तब अपने गणित के अध्यापक को अक्सर टोक देते थे। इसका मालूम जब कॉलेज के प्रिंसिपल को चला तो उनकी अलग से परीक्षा से ली गई। नतीजा जब आया तो वशिष्ठ नारायण सारे अकादमिक रिकॉर्ड तोड़ चुके थे।
नाकामयाब होने के पीछे अक्सर लोगों को कहते सुनते हैं कि घर की हालत के कारण वो आगे नहीं बढ़ पाए, लेकिन डॉ वशिष्ठ नारायण ऐसे उदाहरण थे, जिनसे हर किसी को सीख लेनी चाहिए। पाँच भाई-बहनों के उनके परिवार में हमेशा आर्थिक तंगी रहती थी, लेकिन फिर भी वो स्थितियों से जूझे और अपनी प्रतिभा पर कभी आँच नहीं आने दिया।
साल 1965 में पटना कॉलेज ऑफ साइंस में पढ़ने के दौरान जब कैलिफोर्निया के प्रोफेसर जॉन कैली की नजर उन पर पड़ी, तो वह उनकी प्रतिभा देखकर अचंभित रह गए। वे नारायण वशिष्ठ से इतने प्रभावित हुए कि अपने साथ कैलिफोर्निया लेकर चले गए। वहाँ 1969 तक उन्होंने अपनी पीएचडी की और कुछ दिन बाद वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर बन गए। उन्होंने इस बीच नासा में भी काम किया, लेकिन मन उनका भारत में लगा रहा।
1971 में वे भारत लौट आए और पहले आईआईटी कानपुर, फिर आईआईटी बंबई और फिर आईएसआई कोलकाता में अपनी सेवाएँ प्रदान कीं। साल 1973 में उन्होंने वंदना रानी सिंह नाम की महिला से शादी की। जिसके बाद ही उनके आसामान्य व्यवहार के बारे में लोगों को पता चलना शुरू हुआ।
उनके घरवाले बताते हैं कि वे छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा हो जाते थे, पूरा घर सिर पर उठा लेते थे, कमरा बंद करके सिर्फ़ पढ़ते रहते थे, रात भर जगते थे। इसके अलावा वह कुछ दवाइयाँ भी खाते थे, लेकिन जब उनसे सवाल किया जाता था कि ये किस चीज की है तो वह उस बात को टाल देते थे।
धीरे-धीरे उनकी पत्नी वंदना उनसे परेशान हो गईं और उन्हें तलाक दे दिया। डॉ वशिष्ठ नारायण के जीवन में यह बहुत बड़ा झटका था। क्योंकि इसी दौरान वह आईएसआई कोलकाता में अपने सहयोगियों के बर्ताव से भी परेशान थे।
वशिष्ठ नारायण सिंह के भाई अय़ोध्या सिंह ने इस बात को बताया कि उनके साथी प्रोफेसर्स ने उनके शोध को अपने नाम से छपवा लिया था, जिसे सोच-सोच कर उन्हें बहुत दिक्कत होती थी। उनकी स्थिति दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी। 1974 में उन्हें पहला दौरा पड़ा। जिसके बाद उनका इलाज शुरू हुआ। जब बहुत दिन तक उपचार से उनमें सुधार नहीं दिखा तो 1976 में उन्हें राँची में भर्ती करवा दिया गया।
परिवार गरीबी से लाचार था और सरकार की तरफ से मदद बहुत कम मिल रही थी। नतीजतन 1987 में वह अपने गाँव लौट आए और 1989 में अचानक गायब हो गए। करीब चार साल बाद 1993 में बेहद दयनीय हालत में डोरीगंज, सारण में पाए गए। धीरे-धीरे उनका परिवार उनके इलाज को लेकर नाउम्मीद हो गया और वह गुमनामी में जीवन बिताने लगे।
अभी कुछ समय पहले खबर आई थी कि वह पीएमसीएच के आईसीयू वार्ड में भी भर्ती थे, जहाँ से ठीक होने के बाद उन्हें 10 अक्टूबर को ही छुट्टी मिली थी। लेकिन करीब एक महीने बाद ही आज उनके देहांत की दुखद खबर आ गई।
आज 14 नवंबर बाल दिवस के अवसर पर एक महान गणितज्ञ, भारत के गौरव, कइयों के आदर्श अपनी देह त्याग कर जा चुके हैं। अब उनके पीछे रह गई है तो सिर्फ उनकी किताबें, उनके बक्से, उनकी कलम। जो रह-रह कर उनके घरवालों को डरा रहे होंगे कि क्या अब ये सब रद्दी हो जाएगा? असल मायने में डर तो खैर उस विज्ञान-जगत को लगना चाहिए, जिसने वशिष्ठ बाबू की मौत से काफी पहले काफी कुछ खो दिया था – उनके इलाज के लिए सामूहिक प्रयास न करके, उनको उनके हाल पर छोड़ देने के लिए!