अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में एक गुरुद्वारे पर आतंकी हमला हुआ, जिसमें 27 अल्पसंख्यक सिखों को निशाना बनाकर मार दिया गया। यह घटना उस समय की है जब लगभग 150 सिख गुरुद्वारे में प्रार्थना के लिए इकट्ठा हुए थे। अचानक से एक फिदायीन ने अपने को पहले बम से उड़ा दिया और बाकि आतंकियों ने गुरुद्वारे पर ताबड़तोड़ गोलियाँ बरसानी शुरू कर दी। जैसा हमेशा होता है और इस बार भी, आतंकी हमले की जिम्मेदारी एक इस्लामिक संगठन ने ली है।
खबर सिर्फ यही नहीं है कि किसी इस्लामिक आतंकी संगठन ने हमले के पीछे अपना हाथ बताया है। असल में मुद्दा यह है कि अफगानिस्तान के 27 अल्पसंख्यक सिखों का नरसंहार हुआ है। फिलहाल 8 सिख गंभीर घायल हैं और संभव है कि इनमें से कुछ लोगों की मौत भी हो जाए। दुर्भाग्य यह भी है कि इनके परिवारों को कोई आर्थिक सहायता नहीं मिलने वाली है। संयुक्त राष्ट्र संघ और दूसरे मानवाधिकारों के हितैषी संगठन भी इनके लिए कोई पहल नहीं करेंगे।
दरअसल, यह कोई मेरा स्वयं का मूल्यांकन नहीं है। अफगानिस्तान में हिन्दू और सिखों पर पहले भी आतंकी हमले हो चुके हैं। कभी किसी को आर्थिक सहायता तो दूर, दिलासा और भरोसा तक नहीं दिया गया। अभी 2018 में ही जलालाबाद में 10 सिखों का नरसंहार कर दिया गया। तब भी किसी ने उन सिखों के परिजनों को सांत्वना तक नहीं दी।
एक साधारण सा सवाल है – इन सिखों का क्या दोष है? क्या इन्हें जीवन जीने का अधिकार नहीं है? इनकी किस्मत में बम और बंदूकें ही लिखी हैं! आतंकी हमले के अलावा उनका हर दिन सामाजिक बहिष्कार और दमन भी होता है। साल 2016 में रॉयटर्स ने काबुल के जगतार सिंह की कहानी को प्रकाशित किया। सिंह ने तब समाचार एजेंसी को बताया था, “अफगानिस्तान में अगर आप मुस्लिम नहीं तो आप इन्सान नहीं हैं। हम अपने दिन की शुरुआत डर और अलगाव से करते है। मेरे आठ साल के बेटे जसमीत सिंह ने स्कूल जाना बंद कर दिया क्योंकि वहाँ उसे ‘हिन्दू काफिर’ कहकर बुलाया जाता था।”
वास्तव में यह मानवाधिकारों के हनन ही नहीं, बल्कि मानवता को शर्मसार करना है। सोचिए, इन सिखों की स्थिति कितनी मार्मिक रहती होगी। साल 2010 में तालिबान आतंकियों ने दो सिखों के सिर काट दिए और उनके कटे हुए शीशों को गुरूद्वारे में रखवा दिया। यह घटना किसी विश्व युद्ध के दौरान नहीं हुई थी, जिसे सामान्य मानकर छोड़ दिया जाए। उन सिखों के सिर तब काटे गए थे, जब विश्वभर में मानवाधिकारों के संगठन स्थापित हो चुके थे। संयुक्त राष्ट्र संघ का काबुल में भी एक दफ्तर कार्यरत था।
वैसे तो, अफगानिस्तान के पिछले 1400 सालों का इतिहास इस तरह के नरसंहारों से भरा हुआ है। मगर आज जब हम एक सभ्य और आधुनिक समाज की कल्पना करते हैं, तो ऐसे अमानवीय कृत्य कहाँ तक जायज हैं? अब जब इन अल्पसंख्यकों की सुध लेने वाला कोई है, तो ऐसे हमलों से बचने का क्या रास्ता हो सकता है? एक संभव और आसान तरीका है कि यह लोग अपनी पहचान ही छिपा लें। मगर, अफगानिस्तान के कट्टर धर्मांध संगठनों और आतंकियों ने इसका पहले ही तोड़ निकाल लिया है। वहाँ के हिन्दू और सिखों के घरों को विशेष निशान से चिन्हित किया गया है। यही नहीं, उनकी पहचान को समुदाय विशेष से अलग करने के लिए उन्हें लेबल्स लगाने का फरमान भी सुनाया जा चुका है।
अफगानिस्तान का कोई आधिकारिक सेन्सस नहीं है। अमेरिका के स्टेट्स डिपार्टमेंट और मीडिया के अनुसार 1990 में वहाँ 1 लाख हिन्दू और सिख आबादी थी, जोकि अब 3000 के आसपास है। अब यह समझना कोई कठिन काम नहीं है कि उन 97,000 हिन्दुओं और सिखों के साथ क्या हश्र हुआ होगा। संभव है कि उन्हें मार दिया गया होगा अथवा उनका जबरन धर्म परिवर्तन हुआ होगा और कुछ भागकर दूसरे देशों में शरण ले चुके होंगे।
सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक तौर पर भारत उनके लिए एकमात्र उम्मीद की किरण है। भारत में भी पिछले कई दशकों से यह सवाल उठता रहा है कि अफगानिस्तान के अल्पसंखक समुदाय के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए संवैधानिक कदम उठाए जाने चाहिए। पिछली सरकारों ने कुछ राहत दी लेकिन वह कोई स्थाई समाधान नहीं था। आखिरकार, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की केंद्र सरकार ने साल 2019 में भारतीय नागरिकता कानून में एक संशोधन संसद से पारित करवाया। जिसका एकमात्र मकसद पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता प्रदान करना है। यह नागरिकता कानून में दसवाँ संशोधन था, इससे पहले सात संशोधन कॉन्ग्रेस की सरकारों ने किए। बाकि एक संशोधन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय हुआ और दूसरा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 2015 में किया गया।
इन पिछले नौ संशोधनों का कोई विरोध नहीं हुआ, लेकिन इस दसवें संशोधन को लेकर देशभर में विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए। राजधानी दिल्ली सहित देशभर के शहरों में कट्टरपंथियों द्वारा पत्थरबाज़ी, हिंसा और आगजनी की गई। शाहीनबाग़ के नाम पर देश की राजधानी को असहाय बना दिया गया। जबकि इस संशोधन का भारतीय नागरिकों से कोई लेना-देना नहीं था। सरकार की तरफ से लगातार भरोसा दिया गया कि किसी भी भारतीय नागरिक विशेषकर मजहब विशेष की नागरिकता को कोई नुकसान नहीं है।
एक तरफ अफगानिस्तान है, जहाँ की बहुसंख्यक आबादी ने हिन्दू और सिख अल्पसंख्यकों का जीवन जीना दूभर कर दिया। दूसरी तरफ भारत के अल्पसंख्यकों ने उन्हीं हिन्दू और सिखों को भारतीय नागरिकता दिए जाने पर हंगामा मचा दिया। दुर्भाग्य देखिए, अफगानिस्तान के इस अल्पसंख्यक समुदाय ने पहले आतंकियों से सामना किया, तो यहाँ उन्हें राजनैतिक तुष्टिकरण देखने को मिला। अंत में बस एक यही सवाल पैदा होता है कि आखिर इन लोगों की किस्मत में और क्या देखने को बचा है।