वर्णव्यवस्था के अलावा आज हमारा समाज ‘अमीर-गरीब’ मानसिकता की ऐसी कसी हुई जकड़ में है, जिसके कारण हम समानता का अधिकार हासिल करने के बाद भी दो वर्गों में विभाजित हैं। हालाँकि, इस विभाजन में ज्यादा और कम के फर्क से अधिक ‘गहराई’ का अंतर है।
एक ऊँचे पद पर बैठे व्यक्ति में और एक आम इंसान में क्या फर्क़ होता है? इस सवाल से हम अक्सर हर दूसरे इंसान को जूझते हुए देखते हैं बशर्ते उसके लिए व्यक्ति की ‘आय’ मापदंड न हो। लेकिन हकीक़त तो यही है कि ओहदे पर बैठा व्यक्ति चाहे तो समाज के बनाए नियमों को अपनी मर्जी के अनुसार ढाल सकता है लेकिन एक आम जन ऐसा करता है तो उसे मानवाधिकारों का हनन करने वाला माना जाता है। साथ ही उसपर कानूनी कार्रवाई करते वक्त एक भी बार विचार नहीं होता। वहीं पद पर आसित व्यक्ति की मनमानियों की ढाल खुद कानून बनता है। इसका हालिया उदाहरण मध्य प्रदेश में एक आईपीएस अफसर की बचकानी हरकत से लगाया जा सकता है, जो अपने मृत पिता की जाँच को रोकने के लिए अपने पद का गलत इस्तेमाल कर रहे हैं।
कमलनाथ सरकार वाले मध्यप्रदेश में पिछले दो महीनों से एक वरिष्ठ आईपीएस अफ्सर अपने बंगले में अपने मृत पिता का इलाज करा रहे हैं। जी हाँ, मृत पिता। आज से ठीक दो महीने पहले एक निजी अस्पताल ने राजेन्द्र मिश्रा के 84 वर्षीय पिता को मृत घोषित किया था और साथ ही उनका डेथ सर्टिफिकेट भी दिया था। लेकिन राजेंद्र का कहना है कि उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं है।
सोचिए!
राजेंद्र का कहना है कि उनके पिता का इलाज अभी चालू है और वह अपनी पत्नी (राजेन्द्र की माँ), अपने बच्चों और पारंपरिक जड़ी-बूटियों से उनका इलाज करने वाले वैद्य के सिवा किसी से भी मुलाकात नहीं करते हैं। आप सोच रहे होंगे कि हर किसी को अपने माता-पिता से अटूट प्रेम होता है… अगर कोई उन्हें जीवित रखने के लिए इलाज करा रहा है तो इसमें हैरानी कैसी?
लेकिन सोचिए, यह अधिकार किसी आम व्यक्ति के पास है क्या? समाज की बनाई रीतियाँ क्या उसे ऐसा करने के लिए स्वतंत्रता देती है? और अगर कोई अड़ कर ऐसा करे भी तो क्या आधिकारिक पुष्टि के बाद वो अपनी जिद पर अड़ा रह सकता है ? ऐसे बहुत से सवालों का सिर्फ़ एक जवाब है “शायद नहीं।”
आईपीएस पद पर आसित एक व्यक्ति सरकारी बंगले में मृत पिता का इलाज कराता है और साथ ही जब प्रदेश मानवाधिकार आयोग से डॉक्टरों की टीम को उनकी स्थिति का जायजा लेने के लिए भेजता है तो वो अफसर इसके विरोध तक करने पर उतर आता है। हम किसी के पिता-प्रेम पर सवाल नहीं उठा रहे। लेकिन जानने की इच्छा जरूर रखते हैं कि अगर 84 वर्षीय बुजुर्ग वाकई जीवित हैं तो फिर उनकी एक रूटीन जाँच कराने में क्या आपत्ति है? साथ ही अगर राजेन्द्र के पिता जीवित हैं तो उन्हें उस निजी अस्पताल से कोई शिकायत क्यों नहीं है, जो उन्हें मृत घोषित कर चुका है?
वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी का कहना है कि चिकित्सा के क्षेत्र में एलोपैथी, आखिरी विकल्प नहीं है। बहुत सी ऐसी चीजें हैं जो विज्ञान से आगे हैं। उनकी मानें तो उनके पिता जिंदा है और उनका इलाज चल रहा है। अपने पिता द्वारा 6 दशकों से योग करने का हवाला देते हुए वह कहते हैं कि वह ‘योग निंद्रा’ में हैं। जाँच पर रोक लगाने के लिए वो तर्क देते हैं कि क्या होगा अगर डॉक्टरों ने उनको योग निंद्रा से उठाने का प्रयास किया और उन्हें कुछ हो गया? क्या इसे मर्डर नहीं कहा जाएगा?
जाँच रोकने के लिए पहुँच गए कोर्ट तक
इंडियन एक्सप्रेस में छपी रिपोर्ट के अनुसार राजेन्द्र कहते हैं कि उनके पिता का इलाज कराना उनका मौलिक अधिकार है और बाहर वाले इसमें दखलअंदाजी क्यों कर रहे हैं? यह उनकी समझ से बाहर है। 23 फरवरी को 6 डॉक्टरों की टीम जब राजेन्द्र के बंगले पर पहुँची तो बाहर तैनात पुलिस ने उन्हें अंदर जाने से मना कर दिया। इसके अलावा पिछले महीने राजेश की माँ भी मध्य प्रदेश के हाई कोर्ट में इस मामले में किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ अपनी याचिका लेकर पहुँची थी, उन्होंने मानवाधिकार आयोग को भी लिखा, जिसमें दावा किया गया था कि पैनल द्वारा उनके जीवन, सम्मान और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन किया जा रहा है।