80 के दशक में कपड़े धोने के साबुन का एक विज्ञापन बड़े जोर-शोर से चलता था। इसमें एक पात्र दूसरे से कहता है – ‘भला उसकी कमीज मेरी कमीज से सफ़ेद कैसे है?’ इस विज्ञापन के पीछे ईर्ष्या और द्वेष का भाव है।
आज अपने देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर चल रही बहस पर मुझे यह विज्ञापन पूरी तरह लागू होता दिखाई देता है। ऐसा लग रहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी खांचों में बाँट दिया गया है। मानो कुछ लोग कह रहे हैं – “मेरी वाली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तेरी वाली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से बेहतर है।”
कुछ तो लिखकर भी साफ़ कह रहे हैं कि क्योंकि उनकी कमीजें बाकी जनता की कमीज़ों से ज़्यादा सफ़ेद हैं, इसलिए सिर्फ वे ही अभिव्यक्ति के सही हकदार हैं। किसको बोलने की कितनी आज़ादी दी जाए, यह तय करने का ठेका भी कुछ लोगों ने अपने नाम लिखा लिया है। इसके लिए मीडिया, लेखकों, बुद्धिजीवियों, रचनाधर्मियों का एक पूरा पारतंत्र यानि ‘ईको सिस्टम’ बाकायदा काम में अनवरत लगा हुआ है।
आप सोच रहे होंगे कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे गंभीर विषय के बीच में यह साबुन का विज्ञापन क्या कर रहा है? पर सोचिए क्या आज ऐसा ही नहीं हो रहा? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो अधिकार भारत का संविधान भारत के हर नागरिक को देता है, उसे भी कुछ ठेकेदारों द्वारा आज जैसे बाज़ारू माल बना कर बेचा जा रहा है। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर दो बड़ी घटनाएँ पिछले हफ्ते हुई।
प्रशांत भूषण के खिलाफ मानहानि का मुकदमा
उच्चतम न्यायालय में वकील प्रशांत भूषण के खिलाफ मानहानि मुकदमा हुआ। जिसमें उच्चतम न्यायालय ने प्रशांत भूषण को मानहानि का दोषी मानकर उन्हें सजा देना तय किया। मीडिया का एक वर्ग, कथित बुद्धिजीवी, कतिपय कलाकार, वामपंथी एक्टिविस्ट और वकीलों का एक वर्ग इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का विरोध कर रहा है। इन लोगों का कहना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार एक मूलभूत अधिकार है और न्यायालय की अवमानना के नाम पर इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को छीना नहीं जा सकता।
प्रशांत भूषण का समर्थन करने वाले यहीं तक नहीं रुके। जिस दिन प्रशांत भूषण के मामले की सुनवाई उच्चतम न्यायालय में हो रही थी, उस दिन न्यायालय के बाहर कुछ लोग इकट्ठे हुए, उन्होंने हाथ में तख्तियाँ ली हुई थीं। ये लोग उच्चतम न्यायालय के आने वाले फैसले का विरोध करने के लिए पहले से तैयार थे।
इनमें से कई लोगों ने सोशल मीडिया पर ये कहा कि भारतीय लोकतंत्र के लिए यह काला दिन है। ये लोग मानते हैं कि प्रशांत भूषण को उच्चतम न्यायालय के खिलाफ कुछ भी कहने का अधिकार है चाहे वह तथ्यपरक, न्यायपूर्ण या विधि सम्मत हो या नहीं। हालाँकि भारत का कानून इसकी इजाजत नहीं देता।
सवाल है, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट तक की निंदा करने वाले क्या सच में ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के पक्षधर हैं? या फिर ये बुद्धिजीवी का नक़ाब ओढ़े हुए राजनीतिक एक्टिविस्ट हैं? जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस भाव को पिछले हफ्ते ही हुए एक और मामले पर लागू किया जाता है तो कई लोगों की कलाई खुल जाती है। इनमें से अधिकतर बिना पालक झपकाए अपना रुख एकदम बदल लेते हैं। मानो नक़ाब उतर जाते हैं।
ब्लूम्सबरी प्रकाशन द्वारा दिल्ली के दंगों पर प्रकाशित होने वाली पुस्तक Delhi Riots 2020
Untold Story को रद्द करना। ये पुस्तक दिल्ली की जानीमानी वकील मोनिका अरोड़ा, सोनाली चितालकर और प्रेरणा मल्होत्रा ने मिलकर लिखी है। इस पुस्तक में इस साल के शुरू में दिल्ली के दंगों की कहानियों को उजागर किया गया है। हम इस बहस में नहीं जाते कि इस पुस्तक के अंदर क्या लिखा गया है।
असली बात यह है कि ब्लूम्सबरी ने इस पुस्तक का प्रकाशन करना तय किया था। तयशुदा बात है कि जब ब्लूम्सबरी जैसे जाने-माने प्रकाशक ने इस पुस्तक को निकालने का फैसला किया तो उन्होंने पहले से यह जांँच पड़ताल की थी कि इस पुस्तक में जो लिखा गया है, वह उनके मानकों के अनुसार है या नहीं।
जाहिर है कि सम्पादकों ने यह भी देखा होगा कि ये किताब कहीं समाज में वैमनस्य तो नहीं फैलाएगी? उनके वकीलों ने ठोक बजाकर लेखकों के साथ पुस्तक छापने का करार किया था। अगर ऐसा नहीं होता तो ब्लूम्सबरी जैसा प्रकाशक इस पुस्तक को शुरू में ही इसे छापने के लिए तैयार नहीं होता।
पुस्तक में क्या कहा गया है, यह हमारे तर्क के लिए महत्वपूर्ण नहीं है। उससे सहमत या असहमत होना हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का मूल आधार है। हम तो बात कर रहे हैं भारत के संविधान में दिए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की। ये अधिकार यदि अपने मनमाफिक फैसला न आने पर उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को गाली तक देने वाले वकील प्रशांत भूषण को है, तो फिर वही अधिकार मोनिका अरोड़ा, सोनाली और प्रेरणा जैसे लेखकों को क्यों नहीं है?
प्रशांत भूषण भी वकील है और मोनिका अरोड़ा भी वकील हैं। दोनों की राजनीतिक सोच में अंतर हो सकता है। लेकिन क्या किसी के राजनीतिक विचारों में अंतर होने के आधार पर यह तय किया जाएगा कि संविधान में प्रदत्त अधिकार उसे मिलने चाहिए कि नहीं? और, इस मामले में तो प्रशांत भूषण को भारत के उच्चतम न्यायालय ने अवमानना का दोषी माना है।
प्रशांत भूषण ने जो कहा वह सीधे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भी नहीं कहा जा सकता। यह अन्य किसी ने नहीं बल्कि, भारत की सबसे बड़ी अदालत ने तय कर दिया। किताब लिखने वालों ने तो ऐसा कुछ भी गैरकानूनी नहीं किया।
हैरत की बात है कि जो लोग दोषी करार दिए जाने के बाद भी न्यायाधीशों को गाली दिए जाने की हद तक जाने वाले प्रशांत भूषण के लिए बोलने की आज़ादी की वकालत कर रहे हैं, वे ही पुस्तक को छपने से रोक रहे हैं। यहाँ ‘भला उसकी कमीज मेरी कमीज़ से सफेद कैसे हैं’ का भाव आ गया है।
प्रश्न है कि क्या दलगत प्रतिबद्धताओं, राजनीतिक विचारों और विचारधारा की कमीज देखकर संविधान के अधिकारों का रंग तय किया जाएगा? क्या अपने को ‘लेफ्ट लिबरल’ कहने वाले मुट्ठीभर लोग तय करेंगे कि देश में किसे बोलने की कितनी स्वतंत्रता है और किसे नहीं है?
कुतर्क की भी हद होती है। इस पुस्तक को छापने से रोकने के लिए जो दलीलें दी गई हैं, वे बौद्धिक रूप से असंगत तो है ही। भारत जैसे प्रजातान्त्रिक और खुले समाज में तार्किक रूप से ये बातें भी सही नहीं बैठती।
लेखक विलियम डेलरिंपल कहते हैं उन्होंने ब्लूम्सबरी के ब्रिटेन स्थित मुख्यालय को इसके बारे में सूचना दी कि दिल्ली दंगों पर पुस्तक को लेकर विवाद चल रहा है। उनसे पूछा जाना चाहिए कि वे लेखक हैं या फिर इस असंगत बौद्धिक घमासान में किसी पक्ष के मुखबिर? मतलब साफ़ है कि विलियम डेलरिंपल पुस्तक न छपे, इसके लिए ही काम कर रहे थे।
मीना कंदसामी नाम की कवियत्री कहती हैं कि ‘साहित्य को फासीवाद’ से बचाने के लिए वे इसे छापने का विरोध कर रहीं हैं। पर ये ठेका उन्हें किसने दिया? सद्भावना देशपांडे नाम की लेखक और डायरेक्टर कहती हैं कि इस पुस्तक का ज्ञान से कोई लेना देना नहीं है। बल्कि यह पुस्तक भारत के सेकुलर ढाँचे पर प्रहार करती है, इसलिए इसे छपना ही नहीं चाहिए। क्या बात है? भई ये तो बता दीजिए कि भारत में लोकतंत्र है या अधिनायकवाद? और ऐसा कह कर किस तरफ खड़े हैं?
अगर इनके तर्कों को सही मान भी लिया जाए तो फिर प्रशांत भूषण को सुप्रीम कोर्ट ने उनकी अवमाननापूर्ण ट्वीट्स के लिए जो सजा दी, उसका बचाव और पुस्तक प्रकाशन का विरोध – ये दोनों बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं?
दरअसल आभिजात्य मानसिकता वाले इस कथित बुद्धिजीवी वर्ग का सोचना है कि वही इस देश में तय करेंगे कि किसको कौन सा अधिकार कब और कितनी मात्रा में मिलना चाहिए। अपनी जन्मजात, कुलीन बौद्धिकता के गर्व में जीने वाले ये कथित बुद्धिजीवी और मीडिया का एक वर्ग असल में बौद्धिक बेईमानी और दोगलेपन का शिकार है।
देखा जाए तो ये बुद्धिजीवी है ही नहीं। वे तो राजनीतिक एक्टिविस्ट हैं, जिन्होंने पिछले कई दशकों से सत्ता प्रतिष्ठान का सहारा लेकर बौद्धिकता का लबादा ओढ़ लिया है। अपने को लेफ्ट लिबरल कहने वाले ये तत्व हर मुद्दे पर अति-वामपंथ, अराजकतावादियों और जिहादी इस्लामिक एक्टिविस्ट के बौध्दिक चम्पुओं की तरह व्यवहार करते दिखाई देते हैं।
इसलिए कोई भी बात जब उनके आकाओं के राजनीतिक स्वार्थों या उनकी विचारधारा से भिन्न होती है तो वे ऊलजलूल तर्क देकर दूसरों की आवाज दबाने का प्रयास करते हैं। यह प्रयास बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि प्रशांत भूषण कई बार अपने प्रलाप और उच्चतम न्यायालय में अपनी दलीलों के द्वारा करते आए हैं।
आज जब उच्चतम न्यायालय ने उनको दोषी करार दे दिया है तो वे न्यायालय को ही मानने को तैयार नहीं है। अपनी राजनीतिक दलीलों को वे ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, ‘अंतरात्मा की आवाज़’, ‘नैतिक दायित्व’ और ‘लोकतान्त्रिक मूल्यों की रक्षा’ जैसे बड़े-बड़े शब्दजाल के पीछे छिपाना चाहते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने शायद इन्हीं के बारे में लिखा था:
‘पंडित सोइ जो गाल बजावा।’
समवेत स्वरों में बस जोर से शोर मचाने वाले इन ‘विद्वान् पंडितों’ के तर्क नितांत बेढव और अटपटे हैं।
Delhi Riots 2020: The Untold Story का प्रकाशन ब्लूम्सबरी द्वारा रद्द लिए जाने का मामला तो बेहद गंभीर है। लेखिका मोनिका अरोड़ा का कहना है कि ‘किताब का विरोध करने वाले ज़्यादातर लोगों ने किताब पढ़ी तक नहीं है। तो फिर ये कैसे तय कर दिया गया कि किताब छपनी ही नहीं चाहिए?
इनके साझा शोर से ये प्रकाशक भी डर गया और उसने बिना सोचे-विचारे प्रकाशन रद्द कर दिया। ब्लूम्सबरी प्रकाशन की व्यावसायिक प्रतिबद्धता पर भी हजार सवाल उठने स्वाभाविक है। मूल बात है कि क्या इस पुस्तक के लिखने वालों को अपनी बात कहने का अधिकार है कि नहीं?
लोकतान्त्रिक समाज में कुछ लोग ये कैसे तय कर सकते हैं कि सिर्फ वही जब चाहेंगे और जैसी चाहेंगे, वैसे ही पुस्तकें लिखी जाएँगी। उनके मन मुताबिक ही लेख लिखे जाएँगे। वही बात सार्वजनिक जीवन में आएगी, जिस रूप में ये तत्त्व चाहते हैं। अगर ये फासीवाद नहीं तो क्या है? असल में फासीवादी इस पुस्तक के लेखक नहीं। असली फासीवादी वे लोग हैं, जिन्होंने इस पुस्तक के ब्लूम्सबरी द्वारा प्रकाशन को लेकर हो हल्ला मचाया और इसे रद्द कराया।
हमने अपनी बात 80 के दशक के एक विज्ञापन से शुरू की थी। अपनी बात का अंत हम आजकल चल रहे एक अन्य विज्ञापन से करेंगे। ये विज्ञापन भी कपड़ों की सफाई का ही है। ये कहता है – ‘दाग अच्छे हैं।’ इन अनुदारवादी पॉलीटिकल एक्टिविस्ट को ये समझ लेना चाहिए कि ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सफेद कमीज’ पहनने का अधिकार भारत के हर नागरिक को है। चाहे वह किसी भी राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन या विचारधारा का प्रतिनिधित्व क्यों न करता हो।
मीडिया, अकादमिक संस्थानों, कला क्षेत्र और साहित्यिक जगत पर अब तक राज करते आए ये लोग अक्सर दूसरे की सफेद कमीज तक को खराब घोषित करते आए हैं। इन घटनाओं ने साबित कर दिया है कि बौद्धिक दोगलेपन की जो छीटें इनके दामन पर पड़े हैं, वे अब अनुदारवाद और घोर असहिष्णुता के स्याह काले दागों में तब्दील हो गए हैं। कुछ भी हो भारतीय लोकतंत्र के लिए ये दाग अच्छे नहीं हैं।