जब बड़ी-बड़ी घोषणाएँ हो रही हों तो लोगों का ध्यान किस पर जाता है? पक्षकार लिखने-कहने लगेंगे कि ये तो चुनावों की तैयारी है जी! इस नीति से तो नुकसान ही होता दिखता है जी! जनता को धोखा दिया जा रहा है जी!
मोटे तौर पर ये “प्रतिक्रियावादी” लोग होते हैं। इनका काम होता है किसी भी किस्म के बदलाव का विरोध करना। आसान शब्दों में प्रतिक्रियावादी को आप मिथकों वाली चुड़ैल से समझ सकते हैं। मिथकों की ये चुड़ैल देखने में आकर्षक होती है ताकि अपने शिकार को लुभा सके, लेकिन इसकी एक विशेषता और भी होती है।
कहते हैं कि चुड़ैल के पैर उल्टे होते हैं। यानी ये देखेगी तो आगे की तरफ लेकिन चलेगी उल्टा, पीछे की तरफ। अतीत को पकड़े बैठे रहने की ये जिद, मिथकों की चुड़ैल को तो मुक्ति से दूर रखती ही है, साथ ही उसके चंगुल में फँसे लोगों को भी पीछे ले जाती है।
इसका एक अच्छा नमूना पर्यावरण सम्बन्धी चर्चाओं में दिखेगा। हाल में जब लॉकडाउन हुआ और गाड़ियाँ, फैक्ट्री सभी बंद हो गए तो धुएँ के कम होते ही लोगों को एक अनोखा मंजर दिखा। उनके घर से जो दो सौ किलोमीटर दूर का हिमालय था, वो अचानक नजर आने लगा था। चकित हुए लोगों ने इस पर बात की मगर “प्रतिक्रियावादी”?
वो इस मुद्दे पर कैसे बोलते? अगर वो स्वीकारते कि लॉकडाउन से प्रकृति को, पर्यावरण को कोई फायदा हुआ है, तो फिर तो वो सरकार का समर्थन हो जाता और ऐसा करने वाले गिरोह से लतिया कर निकाल दिए जाते। एक तथ्य ये भी था कि जैसे भीख माँगने वाले गिरोह बच्चों को भूखा रखकर दयनीय दिखाते हैं, ताकि ज्यादा भीख ली जा सके, वैसे ही चंदा तो बुरा हाल दिखाने पर आता! ऐसे में अच्छा हो रहा है, ये दिखाना कहीं से भी फायदे का सौदा नहीं था।
इस लॉकडाउन का असर नदियों पर भी पड़ा होगा। गंगा, जिसे फिर से स्वच्छ करने के लिए लम्बी कवायद चल रही है, उस पर भी कुछ ना कुछ असर तो हुआ ही होगा। फ़िलहाल स्थिति ये है कि 34 स्थलों से संग्रहित गंगा जल की जाँच में उसे जलीय जीवन के अनुरूप पाया गया है लेकिन मल-जल व सीवेज के पानी के कारण गंगा जल पीने या नहाने लायक नहीं है।
पर्यावरण की दृष्टि से गंगा का महत्व एक और कारण से भी बढ़ जाता है। नदी में रहने वाली डॉलफिन, जिसे अक्सर गंगेटिक डॉलफिन, और स्थानीय भाषा में सोइंस आदि नामों से भी जानते हैं, वो बिहार के क्षेत्र में गंगा और उसकी सहायक नदियों (कोसी आदि) में पाई जाती है। पिछले वर्ष (2018-19 में) जब सर्वेक्षण हुआ था तो पूरे देश में 3031 डॉलफिन थीं, जिसमें से करीब आधी (1455) केवल बिहार में हैं।
थोड़े समय पहले सुल्तानगंज-कहलगाँव के 60 किलोमीटर के क्षेत्र को “विक्रमशिला गांगेय डॉलफिन सैंक्चुअरी” घोषित किया जा चुका है। इस काम को और एक कदम आगे ले जाते हुए गंगा के किनारे 57 ऐसे उद्योगों की पहचान की गई है, जो सबसे ज्यादा प्रदूषण फैला रहे हैं। इन जगहों पर लिक्विड डिस्चार्ज ट्रीटमेंट और इफ्लूएंट ट्रीटमेंट प्लांट की स्थापना का काम चल रहा है। जल्दी ही औद्योगिक कचरा इन जगहों से भी सीधा गंगा में जाना बंद हो जाएगा।
सुधार के तौर पर इसे और आगे बढ़ाकर पटना जैसे शहरों से निकलने वाले शहरी कचरे को भी परिशोधित करने का काम किया जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी के बिहार से जुड़ी घोषणाओं में शुरुआत में ही पटना विश्वविद्यालय के 2 एकड़ परिसर में 30.52 करोड़ रुपए की लागत से एशिया का पहला डॉलफिन रिसर्च सेंटर की स्थापना किए जाने की घोषणा आ गई थी।
इस खबर पर सोशल मीडिया में बहसें ना दिखने के दो प्रमुख कारण हो सकते हैं। एक संभावित कारण तो ये है कि डॉलफिन ना तो खुद वोट देती है, ना ही उसके नाम पर वोटों की फसल काटी जा सकती है। ऐसे में आयातित विचारधारा के टुकड़ाखोर गिरोहों को डॉलफिन पर चर्चा करना जरूरी नहीं लगता। फिर इसमें सरकार कुछ कर रही है, ये पर्यावरण में रूचि रखने वाले लोगों को पता चल जाता, जो कि उनके “चंदे” के लिए नुकसानदायक हो सकता था।
दूसरा संभावित कारण उनका क्षेत्रवाद और बिहार से द्वेष हो सकता है। बिहार में कुछ अच्छा हो और तथाकथित बुद्धिपिशाच अनदेखी या विरोध ना करें, ऐसा कैसे होगा? फेंकी गई बोटियों के बदले उन्हें बिहार के बारे में नकारात्मकता फ़ैलाने की आदत है और भारत के डॉलफिन मैन कहलाने वाले पद्मश्री प्रोफेसर रविन्द्र कुमार सिन्हा, बिहार के हैं! बिहार के किसी का नाम, किसी अच्छे काम के लिए ना लेना पड़े, इसलिए भी इस मुद्दे पर चुप्पी साधना जरूरी था।
बाकी चुनावों के बीच पर्यावरण और जीव-जंतुओं सम्बन्धी इस फैसले का स्वागत डॉलफिन भले ना कर पाएँ लेकिन कुछ लोग तो कर ही लेंगे। क्या है कि गरमा-गर्म बहसें हों ना हों, लोग अपने काम की ख़बरें तो ढूँढ ही लेते हैं ना?