दिल्ली सीमा पर जारी किसान विरोधी आंदोलन को बिचौलियों, खालिस्तानियों के साथ ही वामपंथी और अन्य इस्लामी तत्वों द्वारा हाइजैक किए जाने के बाद इसकी विश्वसनीयता खो चुकी है। PFI का समर्थन मिलने के बाद अब अनुभवी प्रदर्शनकारी और भारत विरोधी लेखिका अरुंधति रॉय किसान विरोध वाली जगह पर उपद्रव करने के लिए पहुँच गई है।
9 जनवरी को अरुंधति रॉय ने बहादुरगढ़ में एक धरना-प्रदर्शन स्थल पर बीकेयू के सदस्यों की एक सभा को संबोधित किया। किसानों से बात करते हुए उन्होंने अपने सामान्य लहजे के साथ शुरू किया कि कैसे ‘गोदी मीडिया’ ने पहले ही उन्हें एक नक्सली और राष्ट्र-विरोधी के रूप प्रचारित किया, इसलिए वह पहले किसानों से ‘मिलने नहीं’ आई, ताकि कहीं उन्हें भी उनकी तरह की नक्सली न साबित कर दे। हालाँकि, चूँकि मीडिया ने पहले ही उन्हें ‘आतंकवादी’ के रूप में ब्रांडेड कर दिया है, इसलिए अब वह उनसे मिलने आई है।
दिलचस्प बात यह है कि वास्तव में मीडिया ने इन प्रदर्शनकारी ‘किसानों’ को समर्थन दिया है और जिसने भी वैध सवाल उठाए हैं, उन्हें बदनाम किया। उदाहरण के लिए, जब खालिस्तानी तत्व प्रधानमंत्री की हत्या के बारे में बयान दे रहे थे, तो मीडिया ने देखा और उन लोगों को बदनाम किया जो खालिस्तानियों की उपस्थिति के बारे में सवाल पूछ रहे थे। इसके अलावा, जब ये बात सामने आई थी कि अधिकांश किसानों को उन तीन कृषि कानूनों के बारे में पता ही नहीं है, जिसका ये विरोध कर रहे थे, तब भी मीडिया ने इनसे सहानुभूति दिखाते हुए इनका समर्थन किया था।
अरुंधती रॉय कहती है कि पूरा देश ‘किसानों’ को दिल्ली की सीमा पर देख रहा है और उन पर अपनी उम्मीदें टटोल रहा है। उसने कहा कि किसानों ने उन वास्तविकताओं को जमीन पर लाया है, जिसे उसके जैसे लोग पिछले 20 वर्षों से लिख रहे थे। याद दिला दें कि अरुंधति रॉय वही लेखिका हैं जिन्होंने सशस्त्र आतंकवादियों और नक्सलियों को ‘बंदूकों के साथ गाँधीवाद’ की संज्ञा दी थी।
हालाँकि, उसके भाषण का सबसे खतरनाक पहलू बाद में आता है। वह कहती है कि सरकार उनके साथ जो भी कर रही है या करने जा रही है, वो ठीक वैसा ही जैसा उन्होंने ‘बस्तर में लड़ने वालों के साथ’ किया। किसानों से बात करते समय उन्होंने यह कहते हुए बस्तर के नक्सलियों के कार्यों का बचाव किया कि वे ‘लड़ाई’ लड़ रहे हैं क्योंकि सरकार ने आदिवासियों के जल, जंगल, ज़मीन को छीन लिया और इसे बड़े उद्योगपतियों को दे दिया। वह फिर कहती है कि किसानों के साथ वही खेल खेला जा रहा है।
यह बयानबाजी और कितनी खतरनाक है, इसे 2018 के साक्षात्कार से समझा जा सकता है, जो कि पहाड़ सिंह ने ऑपइंडिया को दिया था। पहाड़ सिंह एक नक्सली थे, जिन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया था। उन्होंने 18 साल तक जंगल में लड़ाई लड़ी थी।
पहाड सिंह ने कहा कि ये ‘निठल्ले बुद्धिजीवी’ आदिवासियों को गुमराह कर रहे हैं और जल, जंगल, ज़मीन के बारे में बयानबाजी करके उन्हें भी नक्सलवाद का लालच दिया गया था।
उन्होंने बताया कि उन्होंने पहली बार तेंदू के पत्तों को इकट्ठा करते समय जंगलों में पहली बार नक्सलियों को देखा था। उन्होंने कहा कि नक्सली आदिवासियों से संपर्क करते थे और दावा करते थे कि वे जनजातीय अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। आदिवासी अस्मिता। नक्सली आदिवासियों को बताते थे कि सरकार भ्रष्ट है और आदिवासियों को रोज़गार देने में असमर्थ है इसलिए उन्हें उनकी गरिमा के लिए लड़ने के लिए उनके साथ जुड़ना चाहिए।
पहाड सिंह से पूछा गया था कि वह ‘बेरोजगार बुद्धिजीवियों’ द्वारा प्रदर्शित विरोधाभास के बारे में क्या सोचते हैं क्योंकि वे एक ओर दावा करते हैं कि सरकार द्वारा आदिवासियों को ब्राह्मणवादी दमन द्वारा दबाया जा रहा है और दूसरी ओर आदिवासी स्वयं श्रम का उपयोग करते हैं। उनका जवाब था कि नक्सल नेताओं की कथनी और करनी में बहुत अंतर है। वे जनजातीय अधिकारों और शक्तियों के बारे में प्रचार करते हैं, जबकि वे आदिवासी आबादी की बुनियादी संरचनाओं और जरूरतों से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं।
यह पूछे जाने पर कि ‘चार मंजिल’ (एक पहाड़ी जहां बॉलर के साथ सेंट्रल कमेटी के सदस्य या नक्सली विचारक बैठते हैं) में बैठे आदिवासियों पर हुकूमत करने और शासन करने वाले लोग कौन हैं, उन्होंने जवाब दिया कि आदिवासी अधिकारों और न्याय पर बात करने वाले पाखंडी हैं। उनके पास शक्ति थी, उनके पास हथियार थे। जिन आदिवासियों की वे भर्ती करते हैं, उन्हें दुनिया की वास्तविकताओं के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है, उनमें से कई ऐसे निर्दोष हैं, जिन्होंने अपने जीवन में कभी ट्रेन नहीं देखी थी, ऐसे लोगों का उनकी सेवा के लिए शोषण किया जाता है।
उन्होंने कहा कि आदिवासी यह भी नहीं जानते हैं कि गाँव का मुखिया कौन है, माओ की विचारधारा क्या है, यह समझना भूल जाते हैं। वे भरोसा करते हैं कि उन्हें जल, जंगल, ज़मीन’ के नाम पर मनाया जा सकता है। वह कहते हैं कि जबकि बाकी दुनिया विज्ञान और विकास के साथ आगे बढ़ रही है, आदिवासियों के उत्थान के लिए एक असफल विचारधारा कैसे हो सकती है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि पहाड सिंह ने खुद को शहर में 18 वर्षों में पहली बार देखा था।
पहाड़ सिंह ने कहा कि जनजातीय क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण हैं और यही कारण है कि नक्सली नेता वन क्षेत्रों पर नियंत्रण रखने का प्रयास करते हैं। वे जंगलों से प्राप्त हर प्राकृतिक उत्पाद और खनिज के लिए ठेकेदारों और व्यापारियों से हिस्सेदारी की माँग करते हैं। करोड़ों रुपए जमा होते हैं और इसमें से कोई भी आदिवासियों या निचले कैडर नक्सलियों के पास नहीं जाता है। सारा पैसा उच्च समिति को जाता है।
वह बताते हैं कि निचले कैडर के नक्सलियों को न तो वेतन मिलता है और न ही लाभ। उनके परिवारों को बताया जाता है कि माओवादी के लिए सेवा निस्वार्थ और समर्पित होनी चाहिए। वह आगे कहते हैं कि शीर्ष नेता और शहरी नक्सली अक्सर बाहरी दुनिया के लिए एक और चेहरा बनाए रखते हैं ताकि सरकार और मीडिया को आदिवासी क्षेत्रों में उनकी गतिविधियों का पता न चले।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि ‘जल, जंगल, ज़मीन’ की ट्राफियाँ गरीब वनवासियों को राज्य के खिलाफ हथियार उठाने के लिए लालच देती हैं और अरुंधति रॉय जैसे विचारधारा वाले लोग अच्छी तरह से कमाते हैं।
यह जगजाहिर है कि अरुंधति का प्रयास न केवल प्रदर्शन पर बैठे तथाकथित किसानों को कट्टरपंथी बनाना और यह सुनिश्चित करना है कि वे सरकार के खिलाफ रहें, बल्कि यह भी है कि वो ‘बेरोजगार बुद्धिजीवियों’ के कहने पर उन नक्सलियों का भी बचाव करें जो राज्य के खिलाफ लड़ रहे हैं और पुलिसकर्मियों की हत्या कर रहे हैं।