समाजशास्त्र कहता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, फिर भी दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्हें अकेलापन पसन्द है। कुछ के लिए एकांतवास की वजह व्यक्तिगत, कुछ की आध्यात्मिक और कुछ की आकस्मिक के लिए घटनाएँ होती हैं, लेकिन इन सभी से अलग कर्नाटक के चंद्रशेखर के जंगल में लगातार 17 वर्ष बिताने की खबर ने लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा है।
कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ जिले में पड़ने वाले गाँव अड़ताले और नक्कारे के नजदीक सुल्लिअ तालुक क्षेत्र में आने वाले घने जंगलों में लगभग 4 किलोमीटर जाने के बाद प्लास्टिक शीट से ढकी बाँस के खूंटों से बनी एक छोटी-सी झोपड़ी है। झोपड़ी के पास एक पुरानी अम्बेस्डर कार और कार के ऊपर एक पुराना रेडियो रखा है, जिसमें पुराने जमाने के गाने बजते सुनाई दे जाएंगे। वहीं, बगल में खड़ी एक पुरानी साइकिल खड़ी है। बस यही दुनिया है चंद्रशेखर की।
चंद्रशेखर लगभग 56 वर्ष के हो चुके हैं। 39 वर्ष की उम्र में उन्होंने जंगल के जिस स्थान पर डेरा डाला था, आज भी वे जमे हुए हैं। इन लगभग 2 दशकों में न उन्होंने बाल कटवाए और न ही शेविंग की। अब सवाल ये उठता है कि क्या चंद्रशेखर शुरू से ही ऐसे हैं और अगर ऐसे नहीं हैं तो उन्हें ऐसा क्यों होना पड़ा? इसका जवाब खोजने के लिए वर्ष 2003 में जाना पड़ेगा।
न्यूज़ 18 के अनुसार, सन 2003 में चंद्रशेखर ने को-ऑपरेटिव बैंक से 40 हजार रूपये का कर्ज लिया था। इस कर्ज को वो अपनी डेढ़ एकड़ जमीन की खेती से चुकता नहीं कर पाए और बैंक ने उनकी जमीन नीलाम कर दी। अपनी जमीन गँवाने के बाद चंद्रशेखर अपनी ऐम्बेसडर कार लेकर अपनी बहन के घर रहने लगे, लेकिन वहाँ परिवार वालों से विवाद के बाद वो एकांतवासी हो गए और आकर जंगल में आकर रहने लगे।
मात्र 2 जोड़ी कपड़े और 1 हवाई चप्पल में घर छोड़ने वाले चंद्रशेखर के पास कुल जमापूँजी के रूप में आज भी वही उतना ही है। कार ही उनका घर है, जिसे धूप और बरसात से बचाने के लिए उन्होंने प्लास्टिक से ढक दिया है। बगल में बहती नदी में नहाते हैं और जीविका चलाने के लिए जंगल के पेड़ों की सूखी पत्तियों से टोकरी बनाकर उसे बेचते हैं। इससे जो पैसे मिलते हैं, उससे वो राशन आदि खरीद कर जंगल में खाना बनाते हैं और वहीं सो जाते हैं।
इस दिनचर्या के बाद भी चंद्रशेखर को ये आशा है कि बैंक द्वारा नीलाम की गई उनकी जमीन उनको वापस मिल जाएगी। कार को बसेरा बनाने वाले चंद्रशेखर साइकिल का उपयोग आसपास के गाँवों में जाने के लिए करते हैं। जिस जंगल में चंद्रशेखर पिछले 17 सालों से रह रहे हैं, वह हिंसक पशुओं से भरा हुआ है। हाथियों ने कई बार उनके छोटे-से आशियाने पर हमला किया। तेंदुआ जैसे खतरनाक जानवर उनकी झोपड़ी के आसपास चहलकदमी करते रहते हैं, फिर भी चंद्रशेखर अपना ठिकाना छोड़ने या बदलने के लिए तैयार नहीं हैं।
वन विभाग के अधिकारियों को भी चंद्रशेखर के वहाँ रहने से कोई परेशानी नहीं है। बतौर चंद्रशेखर, उन्होंने भी वन विभाग के विश्वास पर खुद को खरा उतारा है और टोकरी बनाने के लिए सिर्फ उन्हीं पत्तियों और टहनियों का प्रयोग करते हैं, जो सूख चूकी हैं। कोरोनाकाल में लॉकडाउन के कारण चंद्रशेखर को अपनी जीविका चलाने में काफी परेशानी उठानी पड़ी। उस समय उनकी बनाई टोकरियों के खरीदार ही नहीं मिल रहे थे।
ऐसे में चंद्रशेखर ने कई बार पानी पीकर और जंगल के फल खाकर अपने दिन बिताए थे। चंद्रशेखर के पास आधार कार्ड नहीं है, लेकिन मानवीय आधार पर अरणथोड ग्राम पंचायत के सदस्यों ने आकर उन्हें कोरोना वैक्सीन दी। चंद्रशेखर की जिद है कि जब तक उनकी नीलाम हुई जमीन उन्हें वापस नहीं मिलती, वो जंगल छोड़कर वापस घर नहीं जाएँगे।