1976 में आज ही के दिन (10 अगस्त) हार्वर्ड में अर्थशास्त्र पढ़ाने वाले एक तमिल प्रोफेसर ने इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी के मुँह पर ऐसा तमाचा मारा, वह भी ‘शेर की मांद’ संसद के भीतर, जिसकी झन्नाटेदार गूँज 43 साल बाद भी सुनाई पड़ रही है। सुब्रमण्यम स्वामी, जो कॉन्ग्रेस में उन दिनों भी वैसे ही ‘कुख्यात’ थे जैसे आज हैं, ने वाँछित होते हुए भी न केवल राज्य सभा में प्रवेश किया बल्कि सदन की कार्रवाई में टोका-टाकी भी की (ताकि सदन की कार्रवाई के आधिकारिक रिकॉर्ड में दर्ज हो जाए), और उसके बाद किसी के कुछ समझ पाने के पहले ही रफूचक्कर हो वापस अमेरिका लौट गए आपातकाल की कहानी NRI और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को सुनाने।
पाँच दिन घर में रहे, बाहर पुलिस को खबर नहीं
जब इस दुःसाहस को अंजाम देने की योजना बनी तो उस समय स्वामी विदेश में थे। उनके नेटवर्क और बौद्धिक क्षमता को देखते हुए जेपी ने उन्हें ‘ज़मीनी लड़ाई’ से हटाकर NRI और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच आपातकाल की पोल खोलने के लिए विदेश जाने को कह रखा था। लेकिन जब योजना बन ही गई तो स्वामी भी स्वदेश आ ही गए- अपने खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस होते हुए भी।
वह अपने घर में टीवी रिपेयर वाले बन कर घुसे- पत्नी के साथ पहले ही सारी बात तय हो गई थी। समय चुना शाम 7.30 बजे का, जिस समय घर के बाहर उनका इंतज़ार कर रहे पुलिस वालों की ड्यूटी बदलती थी। जा रहे पुलिसकर्मी आ रहे पुलिसकर्मियों को बताना भूल गए कि अंदर एक टीवी वाला गया है टीवी ठीक करने, और इसलिए ‘केबिलवाले’ के न निकलने पर किसी को शक नहीं हुआ। इस तरह स्वामी पांच दिन घर में रहे।
छठे दिन वह बेधड़क अपनी कार में पत्नी के साथ संसद भवन पहुँचे। वहाँ एक पुलिस वाले ने उन्हें पहचान तो लिया लेकिन वे राज्य सभा सदस्य थे, इसलिए उन्हें गिरफ्तार करने के लिए उसने अपने एसपी को फोन करना चाहा। लेकिन स्वामी जानते थे कि उस दिन (10 अगस्त को) गाँधी जी के ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ आंदोलन की सालगिरह के कार्यक्रम (जिसमें कॉन्ग्रेस के तत्कालीन ‘युवराज’ संजय गाँधी की रैली थी) के चलते वह पुलिस वाला अपने एसपी तक समय पर नहीं पहुँच पाएगा। स्वामी सीना तान कर अंदर घुस गए।
शोक-सभा में विघ्न
जब स्वामी अंदर पहुँचे तो उन्हें देख कर सभी लोग सन्नाटे में आ गए। वह राज्य सभा में थे, और इंदिरा गाँधी लोक सभा में थीं। राज्य सभा के सभापति बीडी जत्ती पिछले सत्र से अब के बीच में मृत सदस्यों की सूची पढ़ रहे थे। उनके खत्म करने से पहले ही स्वामी ने टोका, “सर, इस सूची में एक और नाम है। इन सत्रों के बीच लोकतंत्र भी मर गया है। इसलिए उसका नाम भी आपको शामिल करना चाहिए।”
उनको अनसुना कर जत्ती ने सभी सदस्यों को दो मिनट मौन धारण कर खड़े होने का निर्देश दिया। और स्वामी चल दिए। उनका काम हो चुका था। उनकी बातें सदन की कार्रवाई में दर्ज थीं, और तारीख गवाह बन चुकी थी कि अपने खिलाफ वॉरंट, पूरे देश की पुलिस और इंटरपोल का रेड कॉर्नर नोटिस होने के बावजूद सुब्रमण्यम स्वामी न केवल सदन में आए, बल्कि लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा भी, और फिर भी इंदिरा की पुलिस उन्हें नहीं पकड़ पाई।
पुलिस को फटकार कर पकड़ी ट्रेन
यूथ कॉन्ग्रेसियों जैसे कपड़े पहन कर स्वामी ने टैक्सी की और रेलवे स्टेशन पहुँचे, जहाँ उन्हीं को पकड़ने के लिए भारी मात्रा में पुलिस इकट्ठा थी- इस उम्मीद/अंदेशे में कि वे भागने की कोशिश इधर से ही करेंगे। स्वामी ने एक सब-इंस्पेक्टर से ही कहा, “मेरी ट्रेन निकलने वाली है आगरा।” स्वामी को कॉन्ग्रेसी समझ उस सब-इंस्पेक्टर ने खुद उन्हें पुलिस के पार ट्रेन तक पहुँचाया।
छिपते-छिपाते स्वामी जब मथुरा होते हुए माटुंगा (मुंबई) पहुँचे तो वर्तमान रेल मंत्री पीयूष गोयल के पिता वेद प्रकाश गोयल के घर नाश्ता किया। नेपाल के तत्कालीन सम्राट बीरेंद्र हार्वर्ड में स्वामी के छात्र रह चुके थे। उन्होंने वादा किया था कि स्वामी कैसे भी अगर एक बार नेपाल की सीमा में पहुँच जाएँ तो उनके नेपाल से अमेरिका जाने का इंतज़ाम हो जाएगा।
रॉयल नेपाल एयरलाइन्स के हवाई जहाज में एक कंटेनर में छिप कर नेपाल पहुँचे स्वामी ने वहाँ से बैंकाक की फ्लाइट की, और बैंकाक से अमेरिका। इधर झेंपी हुई इंदिरा सरकार ने न केवल उनके सिर पर ईनाम रख दिया, बल्कि उन पर आरोप भी लगाया कि सांसदों के भत्ते लेने के लिए उन्होंने किसी और से अपने जाली हस्ताक्षर कराए। लेकिन इतनी फजीहत के बाद भी वह स्वामी को गिरफ्तार नहीं कर पाई।
10 August 1976, Dr @Swamy39
— swamilion (@swamilion) August 10, 2019
point of order @ Rajya Sabha pic.twitter.com/6fuKthyu6g
राज्य सभा की कार्रवाई का 10 अगस्त, 1976 का वह पेज, लोकतांत्रिक गणतंत्र के इतिहास का महत्वपूर्ण दस्तावेज है।