विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।।
अर्थात, एक विद्वान और राजा की कभी कोई तुलना नहीं की जा सकती। क्योंकि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है, परंतु एक विद्वान हर जगह सम्मान पाता है। महामना पंडित मदन मोहन मालवीय का व्यक्तित्व उपरोक्त श्लोक में वर्णित ‘विद्वान’ शब्द का पर्यायवाची था।
आज ही के दिन महामना पंडित मदन मोहन मालवीय का जन्म हुआ था। भारतीय समाज, राजनीति एवं शिक्षा जगत में उनका योगदान अप्रतिम है। समस्त जन तक ‘सत्यमेव जयते’ के नारे को लोकप्रिय बनाने वाले, काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक, राष्ट्रवाद के प्रखर समर्थक, एक कुशल अधिवक्ता, महान स्वतंत्रता सेनानी, निर्भीक पत्रकार, शिक्षा और ज्ञान की अखंड ज्योति प्रज्ज्वलित कर सामाजिक कुरीतियों पर कठोर प्रहार करने वाले महान शिक्षाविद एवं भारत रत्न पंडित मदन मोहन मालवीय का जीवन प्रेरणादायक है।
अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतन्त्रता आन्दोलन में पंडित मालवीय ने अपनी महती भूमिका निभाई। महात्मा गाँधी ने उन्हें ‘भारत निर्माता’ कहकर पुकारा। उनकी राष्ट्रभक्ति को देखकर महात्मा गाँधी भावविभोर हो गए और उन्होंने कहा:
“जब मैं मालवीय जी से मिला वह मुझे गंगा की धारा की तरह निर्मल और पवित्र लगे। मैंने तय कर लिया कि मैं उसी निर्मल धारा में गोता लगाऊँगा।”
पंडित मालवीय समाज में व्याप्त असमानता, अस्पृश्यता, अशिक्षा, बाल विवाह, रूढ़िवादी परंपराओं और तुष्टिकरण की नीतियों के विरुद्ध थे। वे सभी के लिए एक समान न्याय और समानता के पक्षधर थे। उन्होंने सामाजिक न्याय और समानता को स्थापित करने हेतु ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जंग छेड़ा और भावशाली तरीके से अपना पक्ष रखा। पंडित मालवीय का स्वभाव बिल्कुल सरल एवं सहज था और इसका प्रभाव कमोबेश सभी पर था। फिर चाहे वो भारतीय जनमानस था या ब्रिटिश हुक्मरान। सभी उनके असाधारण व्यक्तित्व से प्रभावित थे।
वैसे तो पेशे से वे वकील थे परंतु स्वतन्त्रता आंदोलन में उन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। राष्ट्र हेतु जरूरत पड़ने पर वे कभी पीछे नहीं हटे। आजादी की लड़ाई लड़ने वालों के लिए उन्होंने अपने दरवाजे हमेशा खुले रखे। एक समय था 1922 में, जब चौरीचौरा कांड में करीब 172 में से 153 लोगों को अकाट्य तर्कों के आधार पर फाँसी की सजा से उन्होंने बचाया था।
शिक्षा के क्षेत्र में पंडित मदन मोहन मालवीय का उत्कृष्ट योगदान रहा। भारत में जब भी शिक्षा की क्रांति की मशाल जगाने की बात होगी, उनका नाम सर्वप्रथम आएगा। अपनी कड़ी मेहनत, चातुर्य एवं लगन से 4 फरवरी 1916 को काशी हिंदू विश्वविद्यालय की नींव डाल कर अंग्रेजी हुकूमत को करारा जवाब दिया था। इस संदर्भ में हैदराबाद के निजाम से विश्वविद्यालय के लिए चंदे की कहानी बहुत प्रसिद्ध है कि कैसे निजाम उनको नीचा दिखाना चाहते थे, पर वे पंडित मालवीय के सामने झुक गए, और महत्वपूर्ण आर्थिक मदद देकर विश्वविद्यालय के निर्माण में अपना योगदान दिया। आज इस बात से कौन अवगत नहीं कि भारतीय शैक्षिक जगत, राजनीतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक एवं प्रशासनिक क्षेत्र में इस विश्वविद्यालय का योगदान अप्रतिम रहा है।
महामना पंडित मदन मोहन मालवीय की सादगी, शैक्षिक गुणवत्ता, ईमानदारी एवं गरिमा उच्चकोटी की थी। इस संदर्भ में एक कहानी प्रसिद्ध है। जब पंडित मालवीय अपनी कॉलेज की शिक्षा पूरी किए थे तब उनकी आर्थिक स्थिति बेहद नाजुक थी। लेकिन उनकी प्रतिभा, योग्यता और विद्वता की चर्चा चारों तरफ थी। उस समय कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह को अपने समाचारपत्र ‘हिंदोस्थान’ के लिए एक योग्य संपादक की जरूरत थी और उन्होंने पंडित मालवीय के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। राजा ने उन्हें बुलवाकर संपादक पद हेतु पूछा और करीब 250 रुपए मासिक वेतन का प्रस्ताव रखा।
पंडित मालवीय ने अपनी आर्थिक परिस्थिति को देखते हुए राजा रामपाल सिंह के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। परंतु उन्होंने एक शर्त रखी कि वो सम्पादन का काम तो करेंगे लेकिन राजा रामपाल सिंह जब नशे में हों तो उनके करीब न आएँ। राजा ने हामी तो भर दी लेकिन एक बार वे शर्त को भूल गए और नशे में पंडित मालवीय के पास चले गए। उन्होंने नाराज होकर अपना त्यागपत्र दे दिया। राजा को अपनी गलती का अहसास हुआ और वे उनसे क्षमा भी माँगे फिर भी वे नहीं नहीं माने। पंडित मालवीय ने कहा:
“मैं क्षमा करने से कहीं अधिक अपने आदर्श और मूल्यों को मानता हूं। अतः मैं अब सम्पादन का कार्य नहीं कर सकता।”
फलत: राजा को ग्लानि हुए और इस घटना का इतना असर पड़ा कि उन्होंने नशे की लत को छोड़ दिया। कहा जाता है कि पंडित मालवीय को कोई आर्थिक नुकसान ना हो, इसीलिए वेतन के बराबर राशि राजा उन्हें वकालत की पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति के रूप में देने लगे।
भारतीय समाज एवं स्वतन्त्रता आंदोलन में पंडित मालवीय का योगदान अमर है। वह भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के चार बार अध्यक्ष के रूप में चुने गए (1909, 1918, 1930, 1932)। स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होकर करीब 35 वर्षों तक राष्ट्र सेवा में अपना अद्भुत योगदान दिया। कष्ट इस बात का रहा कि आजादी मिलने के कुछ ही महीने पूर्व उनका निधन हो गया और वे आजाद भारत को न देख सके। लेकिन भारत को आजाद कराने में उनका योगदान सदैव याद किया जाएगा। उनकी तपस्या, संघर्ष और योगदान को पढ़ कर हर भारतीय हमेशा प्रेरणा लेता रहेगा।