अफ्रीकी देश सूडान (Sudan) में गृहयुद्ध छिड़ा हुआ है। मारकाट मची हुई है। खाने-पीने तक की किल्लत है। ऑपरेशन कावेरी (Operation Kaveri) के जरिए मोदी सरकार ने वहाँ फँसे भारतीयों का रेस्क्यू किया है। घर लौटने वालों में एक संतोष जैन भी हैं जो अभी दिल्ली से सटे फरीदाबाद में रहते हैं।
सूडान के हालात, वहाँ से भारतीयों को निकाले जाने के अभियान संतोष जैन ने दैनिक भास्कर के नीरज झा से विस्तार से बातचीत की है। उन्होंने बताया है कि कैसे उनकी कंपनी में घुसकर सूडान की मिलिट्री ने लूट मचाई। कैसे घरों पर बम गिर रहे थे। कैसे उन्होंने कंपनी में काम करने वाले भारतीयों के बिना सूडान नहीं छोड़ा। कैसे रेस्क्यू अभियान के दौरान डीजल की कमी होने पर अपनी कंपनी का डीजल तक दे दिया।
संतोष जैन अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ सूडान में रहते थे। स्टील की बर्तन बनाने वाली एक भारतीय कंपनी में फाइनेंस हेड थे। इस कंपनी में 162 लोग काम करते थे। ज्यादातर भारतीय थे। उन्होंने दैनिक भास्कर को बताया, “वर्कर्स को न ठीक से इंग्लिश आती थी। न ही वहाँ की स्थानीय भाषा। मैंने सोचा जाएँगे तो साथ में ही। एक रोज देर रात इंडियन एम्बेसी का कॉल आया कि सुबह के तीन बजे गाड़ियाँ आ जाएँगी, लेकिन हमारे पास ऑयल नहीं है। हमारी फैक्ट्री के टैंक में डीजल भरा हुआ था। मैंने बिना कुछ सोचे-समझे कहा- मेरे पास तेल है। आप बस गाड़ी भेज दीजिए। गाड़ी सुबह 8 बजे आई। हम लोग बस से करीब 12 घंटे की दूरी तय करके पोर्ट सूडान पहुँचे और फिर भारत…।”
पर ये सफर इतना भी आसान नहीं था। खौफ को समझना है तो संतोष की पत्नी ज्योति के इस बयान से समझिए। वे कहती हैं, “जो हालात थे, हमें भारत लौटने की उम्मीद नहीं थी। अपनी छोटी बहन से आखिरी बातचीत में मैंने कहा था यदि दो-तीन दिन फोन न करूँ तो समझना बिजली नहीं है। यदि उससे ज्यादा दिन हो जाए तो समझना अब हम जिंदा नहीं हैं।” वे कहती हैं, “मार्केट में कुछ नहीं था। जो कुछ घर में स्टोर था उससे ही हमारा खाना-पीना हो रहा था। करीब एक सप्ताह तक हम चावल-दाल ही खाते रहे थे। बिजली नहीं थी और गर्मी ऐसी मानो हम उबल जाएँगे। मेरी बेटी कहती थी बिना बिजली के मर जाऊँगी, या बम-गोली से। घुट-घुटकर मरने से अच्छा है कि एक बार में मर जाऊँ।”
जैन परिवार के लिए त्रासदी का ये सिलसिला 15 अप्रैल 2023 को शुरू हुआ था। संतोष फैक्ट्री जा चुके थे। बच्चे स्कूल। वे कहते हैं, “उस दिन भी हमेशा की तरह हमारा सामान्य रूटीन ही था। मैं ऑफिस में काम कर रहा था अचानक बम-बारूद के गिरने की आवाज आने लगी। बाहर फायरिंग हो रही थी। सड़को और गलियों में टैंक दिख रहे थे। फैक्ट्री के सारे वर्कर लाइट बंदकर छिप गए। घंटों फायरिंग चलती रही। सामने की एक बिल्डिंग पर बम गिरा और वह ध्वस्त हो गई। इस बीच सूडान की मिलिट्री उनके फैक्ट्री में घुस गई। मोबाइल,पैसा सब कुछ छीनकर ले गई। उनके जाने के बाद भी करीब 24 घंटे तक वे लोग फैक्ट्री में ही कैद रहे।”
इधर संतोष फैक्ट्री में फँसे थे। उधर उनके बच्चे स्कूल में। एक टीचर उनके दोनों बच्चों को अपने साथ ले गए। अगले दिन फिर वे अपने बच्चे को घर लाए। अब संतोष नए सिरे से अपनी गृहस्थी बसाने के प्रयास में हैं। बच्चों का फरीदाबाद के ही एक स्कूल में दाखिला कराया है। वे कहते हैं, “सूडान की मिलिट्री और पारा मिलिट्री की चेंकिग से बच-बचकर हम पोर्ट सूडान पहुँचे। मात्र दो जोड़ी कपड़े लेकर आए हैं। सब कुछ खत्म हो गया है। 10 साल में जो कुछ भी हमने सूडान में बनाया घर-परिवार, दोस्त-रिश्तेदार… सब खत्म हो गया है।” पर उम्मीद का ही नाम जिंदगी है। संतोष और उनकी पत्नी ने एक स्टार्टअप शुरू किया है।