“भीड़ तो दशहरे के मेले में गज़ब की होने वाली है।” बटुकेश्वर बोले।
जोगेश बाबू तो कह कर चले गए थे कि दशहरे के मेले में मात्र पर्चे बाँटने हैं लेकिन भगत सिंह को चैन नहीं था। आदत के मुताबिक, बिना किसी तैयारी और योजना के वो किसी भी घटना को अंजाम नहीं देने वाले थे। जोगेश बाबू के जाने के बाद दूसरे ही दिन वो मेस पहुँचे और सभी को इकट्ठा किया।
“योजना क्या है?”, अजय ने पूछा।
“योजना क्या बनानी है? मेले में पहुँचों, पर्चे बाँटो और आ जाओ।”, सुरेन्द्र पाण्डेय ने कहा।
“नहीं, ऐसे नहीं होगा।”, भगत सिंह ने सिर हिलाया।
“मतलब?”
“यह एक छोटा सा काम है और मैं नहीं चाहता कि हम इस छोटे से ही काम में फँसकर अपनी जान गँवा दें। पहले यह मालूम करो कि पुलिस और CID का कितना इंतज़ाम है।” भगत सिंह ने कहा।
“और पर्चा कहाँ है?” बटुकेश्वर में पूछा।
“आज रात को प्रेस पर आ जाना। पर्चा तैयार मिलेगा।”
“और बाकी इंतज़ाम भी है क्या?” पाण्डेय ने पूछा।
“बाकी क्या?” अजय ने चौंक कर पूछा।
“अरे भाई, कुछ गड़बड़ हो गई तो डराने के लिए बन्दूक-पिस्तौल का इंतज़ाम होना चाहिए या नहीं?” बटुकेश्वर ने अजय को समझाते हुए कहा।
“वो मैं देख लूँगा।” भगत उठ खड़े हुए।
“और हाँ, मेले में पर्चे शांति के साथ बाँटे जाएँगे। कोई हल्ला-गुल्ला नहीं करेगा और आधे घंटे के अंदर ही हम सभी मेले से बाहर निकल आएँगे।” भगत सिंह ने सभी को याद दिलाया।
“और कुछ बॉस?” अजय ने हँसते हुए पूछा।
“हाँ, सबसे ख़ास बात यहाँ कि वहाँ से निकलने के बाद कोई भी अपने ठिकाने पर नहीं जाएगा। आप लोग वहाँ से निकल कर दिन भर कहीं भी घूमते-टहलते रहना और रात होने के बाद ही अपने ठिकाने पहुँचना।”
“ओके बॉस!” अब पाण्डेय भी हँसने लगे।
“हँसो मत आप लोग। अगर आगे चलकर आपको कोई बड़ा कार्य करना है तो इस प्रकार के छोटे से छोटे कार्य को भी गंभीरता से निभाना है। हो सकता है कि हमारा यह छोटा सा कार्य हमारे आपसी मेलजोल और प्रणाली को टटोलने के लिए ही दिया गया हो।” भगत सिंह गंभीरता से बोले।
“ठीक है भाई, ठीक है। हम समझ रहे हैं तुम्हारी बात।” बटुकेश्वर बोले।
“एक आख़िरी बात यह कि एक्शन के बाद उस दिन कोई भी साथी, दूसरे साथी से मिलने की कोशिश नहीं करेगा।”
सभा बरख़ास्त हो चुकी थी। रात को आकर सभी साथियों ने प्रेस से पर्चा उठाया और अपने-अपने ठिकाने जा पहुँचे।
दूसरे ही दिन भगत सिंह और उनके साथी मेले में अलग-अलग रास्तों से पहुँचे। ‘प्रताप प्रेस’ में छपा हुआ ‘जागो मेरे देश के लोग’ पर्चा उनको थमाया जा चुका था।
योजना के अनुसार, सभी साथियों ने चुपचाप अपना काम करना शुरू कर दिया था। पर्चे की भाषा आक्रामक थी। देशवासियों को उनकी ग़ुलामी का अहसास कराया गया था। उनको बताया गया था कि कैसे अंग्रेज़ उनका खून चूस रहे हैं और आम आदमी के अधिकारों से उनको वंचित कर रहे हैं। कैसे भारत माँ को जंज़ीरों में जकड़ कर उनके बच्चों पर अत्याचार किया जा रहा है, ज़ुल्म किया जा रहा है।
तभी मेले में आए एक आदमी ने पर्चा पढ़कर जोश में नारा लगा दिया,
“भारत माँ की जय!”
कुछ ही देर बाद मेले के हर एक कोने से नारेबाज़ी बढ़ने लगी। उस भीड़ में यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल था कि कौन आम आदमी है और कौन सादी वर्दी में पुलिसवाला। इसी वजह से जैसे ही भगत सिंह के एक साथी ने पर्चा आगे बढ़ाया, उसी क्षण दो आदमियों ने उस साथी को पीछे से पकड़ लिया। ग़लती हो चुकी थी। ‘जागो मेरे देश के लोग’ पर्चा CID के हाथ लग चुका था और साथ ही पुलिस के कब्ज़े में दो साथी भी आ चुके थे।
भगत सिंह को ख़बर लगी तो वो भागकर घटनास्थल पर पहुँचे। अभी मेले में फैली पुलिस को इस गिरफ़्तारी की ख़बर नहीं लगी थी और गिरफ़्तार किए हुए दोनों साथियों के आसपास मुश्किल से आधा दर्जन पुलिसवाले ही पहरे पर थे। ज़्यादा सोचने का समय नहीं था।
“तुम यह पर्चे लो और सिपाहियों से थोड़ी दूर जाकर हवा में उड़ा दो।” भगत ने अपने साथी को कहा।
“इससे क्या होगा?”
“जो कह रहा हूँ वो करो बस! पर्चे हवा में उड़ाकर और नारे लगाकर दौड़कर पीछे से निकलकर यहीं आ जाना।” भगत सिंह गुस्से में बोले।
साथी ने जाकर जैसे ही पर्चे हवा में उड़ाए, दौड़ते हुए भगत सिंह पुलिसवालों के पास गए और बोले,
“वो देखो थानेदार साहब! वो रहे क्रांतिकारी लोग! वो बाँट रहे हैं पर्चे! पकड़ लो जाकर!”
गिरफ़्तार हुए भगत सिंह के साथी को घेरे छह में से चार सिपाही तुरंत भीड़ की तरफ़ भागे जहाँ पर्चे उड़ रहे थे। पीछे से भगत के बाकी दो साथी भी आ चुके थे। अब मुक़ाबला दो सिपाही और पाँच जाँबाज़ों के बीच था। सिपाहियों ने भगत सिंह और उनके साथियों को चतुराई से मुस्कुराते हुए देखा तो माज़रा समझ आ गया।
“भाग पाण्डेय…! भगत चिल्लाये।
सुरेन्द्र पाण्डेय और बटुकेश्वर ने पुलिस के सिपाहियों से अपने हाथ छुड़ाए पर कामयाब नहीं हुए। इतनी देर में पुलिस वालों ने ‘डकैत-डकैत’ चिल्लाना शुरू कर दिया था। बाकी पुलिस वाले कभी भी आ सकते थे। भगत सिंह के पास अब कोई चारा नहीं था। उन्होंने जेब से पिस्तौल निकालकर जैसे ही हवा में दो-तीन फायर किए और पुलिसवाले जान बचाकर वहाँ से भाग लिए। मेले में भगदड़ मच चुकी थी लेकिन अब सभी साथी आज़ाद थे।
कानपुर का पहला एक्शन असफल होने से बच गया था। आधी रात के बाद जब भगत सिंह प्रेस पहुँचे तो विद्यार्थी जी और जोगेश चर्चा में लीन थे।
“कैसा रहा, भगत?”
“आज तो बाल-बाल बचे हैं, गुरुजी।” भगत सिंह ने पूरा किस्सा सुनाया तो विद्यार्थी जी के माथे पर शिकन आ गयी।
“क्या हुआ, गुरुजी?”
“मुझे यही डर था।”
“मतलब?”
“देखो मुझे ख़बर लगी है कि साथी लोग कुछ बड़ा काम करने की फ़िराक में हैं और इसकी ख़बर पुलिस तक पहुँच चुकी है। कानपुर में बहुत सख़्ती हो रखी है और आने वाले दिनों में सख़्ती बढ़ती चली जाएगी।” विद्यार्थी जी बोले।
जोगेश भी चिंतित दिख रहे थे।
“तुम्हारा क्या प्रोग्राम है जोगेश?”
“मैं बंगाल के लिए निकल रहा हूँ।”
“इन्हें ले जाना है साथ में?” विद्यार्थी जी ने भगत की ओर इशारा करते हुए कहा।
“नहीं, अभी नहीं, विद्यार्थी जी।”
“ह्म्म्म…!!!”
“क्या हुआ?”
“मेरे मित्र ठाकुर टोडर सिंह ने एक नेशनल स्कूल की स्थापना की है। वो एक हेडमास्टर की तलाश में हैं। क्यों ना भगत को कुछ दिन के लिए वहाँ भेज दिया जाए?”
“कहाँ है यह स्कूल?”
“अलीगढ़ के ग्राम शादीपुर की खैर तहसील में खोला है उन्होंने स्कूल।”
“सुरेश भट्टाचार्य से बात हुई आपकी?”
“हाँ, वो कहता है कि भगत सिंह निभा ले जाएगा।”
“तुम जाओगे, भगत?” जोगेश ने पूछा।
भगत सिंह ने हामी में सिर हिला दिया।
“देखो भगत, तुम एक अच्छे परिवार से हो और शहर में पले-बढ़े हो, इसलिए तुम्हें गाँव में कुछ कठिनाई महसूस हो सकती है। तुम रह पाओगे?” विद्यार्थी जी ने पूछा।
“आप बिलकुल चिंता ना करें। यह मेरा सौभाग्य है कि आप मुझे इतने बड़े पद के लायक समझ रहे हैं।” भगत सिंह ने हाथ जोड़े।
“देखो भगत, तुम्हारी बुद्धि, चरित्र और समझदारी के यहाँ सभी कायल हैं। हम सभी परिचितों की मंडली में तुम्हारी बड़ी प्रतिष्ठा है इसलिए तुम्हें यह पद सँभालने को कहा जा रहा है। अपने स्वाभिमान को आगे रखते हुए सदैव अपना सिर ऊँचा रखना।” विद्यार्थी जी गर्व से बोले।
“और हाँ, जब भी अलीगढ़ छोड़ने का मन करे, बिना किसी झिझक के कानपुर आ जाना।” जोगेश ने दिलासा दी।
“कब जाना होगा?”
“शीघ्र!”
भगत चुपचाप अपने भविष्य को निर्धारित होते हुए देख रहे थे।
(भारत के स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे ही कुछ गुमनाम क्रांतिकारियों की गाथाएँ आप ‘क्रांतिदूत’ शृंखला में पढ़ सकते हैं, जो डॉ. मनीष श्रीवास्तव द्वारा लिखी गई हैं।)