रानी गाइदिन्ल्यू जिस हेराका आन्दोलन को चलाती रही, वो मुख्यतः अपनी सभ्यता-संस्कृति बचाने के लिए ही था। उन्हें बैप्टिस्ट ईसाइयों का हिंसक विरोध झेलना पड़ा।
जब 1907 में सूरत में कॉन्ग्रेस पार्टी का अधिवेशन हो रहा था तो दोनों हिस्सों के बीच तल्खियाँ बढ़ गईं। इस वक्त बीएस मुंजे ने खुलकर तिलक का समर्थन किया और यही वजह रही कि तिलक के वो भविष्य में भी काफी करीबी रहे।
जिस विषय में संविधान निर्माताओं को 1949 से पता था, उस पर कानून बनाने में इतनी देर आखिर क्यों? नियम बनने शुरू भी हुए हैं तो क्या ये काफी हैं, या हमें बहुत देर से और बहुत थोड़ा देकर बहलाया जा रहा है?
आखिर अस्सी-नब्बे के दशक में जो लोगों को अपने उपनाम छुपाने पड़े थे, वो किसे याद नहीं? एक कथित सेक्युलर चैनल के ईनामी पत्रकार भी तो अपना नाम 'कुमार' तक ही बताते हैं, पूरा नाम नहीं बताते ना? क्यों छुपाना पड़ा था, ये याद तो आता है!