टाइम्स ऑफ़ इंडिया को दिए इंटरव्यू के बाद ऐसा लगता है, जैसे नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन एक ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं जो झूठ बोलने में, अस्पष्टता फैलाने में और डर का माहौल बनाने में महारथी हैं।
10 जनवरी को दिए टाइम्स ऑफ़ इंडिया के छोटे से इंटरव्यू में अमर्त्य सेन ने बहुत सारे मुद्दों पर बात की, जिसमें मोदी सरकार द्वारा गरीबों के लिए पास किए जाने वाला आरक्षण बिल का मुद्दा भी शामिल था। संविधान में 124वाँ संशोधन करके ये आरक्षण लोक सभा और राज्य सभा दोनों से पास किया गया ।
टाइम्स ऑफ इंडिया को दिए इंटरव्यू में अमर्त्य सेन ने ढेरों झूठ बोले। हैरान करने वाली बात है कि साक्षात्कार करने वाली पत्रकार ने उनकी किसी भी बात पर सवाल नहीं किए।
साक्षात्कार में अमर्त्य सेन ने कहा कि भाजपा द्वारा लाया गया ऊँची जाति वालों के लिए ये आरक्षण ‘अव्यवस्थित सोच’ (Muddled thinking) का नतीज़ा है, इसके साथ ही उन्होंने आशंका जताते हुए इसे गंभीर राजनैतिक और आर्थिक प्रतिघात का उदहारण बताया।
इसके बाद वो अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहने लगे कि ये आरक्षण बिल बीजेपी ने ऊँची जाति वालों के वोट पाने के लिए किया है।
इस इंटरव्यू की सबसे खास बात ये रही कि नोबेल पुरस्कार विजेता ने इस महत्वपूर्ण नीति पर दो-टूक अस्पष्टता को बनाए रखा। इस बिल को लेकर जब बार-बार ये बात कही जा रही है कि इस बिल का लाभ सामान्य कैटेगरी में आने वाले गरीब लोगों के लिए है। तो उसमें ऊँची जाति को बार बार क्यों हाईलाईट किया जा रहा है, जबकि बिल में ये शब्द तक नहीं लिखा गया है। आपको फिर बता दें कि इस बिल में उन लोगों को लाभ मिलेगा जो अभी सामान्य वर्ग से हैं और आर्थिक रूप से कमज़ोर हैं या जिनके परिवार की सालाना आय ₹8 लाख से कम है।
इसके बाद राष्ट्रीय पंजीकरण और नागरिकता बिल पर बात करते हुए अमर्त्य सेन ने ज़ोर देकर कहा कि यह बिल मूल रूप से मुस्लिमों के ख़िलाफ़ है। उनकी मानें तो इस तरह का भेदभाव भारत के संविधान के आत्मा के भी ख़िलाफ़ है। न जाने क्यों अमर्त्य सेन इस बात को भूल रहे हैं कि NRC और नागरिकता बिल देश में असंवैधानिक तौर से घुसे लोगों की छँटाई करने के लिए हैं।
ध्यान रहें जब हम असंवैधानिक तौर से देश में घुसे लोगों के बारे में बात करते हैं तो इसमें केवल वो शामिल होते हैं जो बिना किसी वैध दस्तावेज़ के साथ देश में रह रहे हैं और देश के नागरिक भी नहीं हैं। बिल में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि किसी एक धर्म के व्यक्ति तो टार्गेट किया जाए।
ये देखने की बात है कि किस तरह नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री पाठकों को अलग, लेकिन तथ्यात्मक तौर पर गलत, नज़रिया देकर बरगलाना चाहते हैं। वो सरकार की बेवजह आलोचना करने में इतने अस्त-व्यस्त हैं कि उन्हें इस बात से भी भान नहीं हैं कि जो देश के नागरिक नहीं हैं उन्हें ग़ैरक़ानूनी रूप से देश में रहने का कोई अधिकार नहीं है।
भारतीय संविधान में हमेशा से भारत के हर नागरिक को समानता का अधिकार है, चाहे फिर वो किसी भी जाति का हो, रंग का हो, पंथ का हो या फिर किसी भी धर्म का हो। लेकिन, किसी को ये अधिकार नहीं है कि वो सरकार पर इस बात का बात का दबाव बनाए कि वो अप्रवासियों को भी देश में अवैध ढंग से रहने की अनुमति दें। अमर्त्य सेन जैसे लोग देश की सुरक्षा पर बार-बार सरकार से सवाल करते हैं, और जब सरकार देश की सुरक्षा के लिए फ़ैसला लेती है, तो ऐसे ही लोग सरकीर की आलोचना भी करते हैं ।
इस मामले पर, और सेन साहब के कथनों पर, ग़ौर किया जाए तो मालूम पड़ेगा कि किस तरह धर्म को आधार बना कर कानून व्यवस्था की ओर मोड़ना सिर्फ इसलिए किया जा रहा है, ताकि इससे राजनैतिक बदलाव आ सकें और जिस पार्टी का वो समर्थन करना चाहते हैं वो उनकी इस तरह मदद कर पाएं।
असहिष्णुता का रोना-गाना आज भी है चालू
अमर्त्य सेन के इस साक्षात्कार के ज़रिए एक बात और पता चली कि असहिष्णुता का रोना रोने वालों का विलाप अब भी ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। उनका कहना कि अगर आप हिन्दू या फिर ईसाई हैं तो आपको टिप्पणी करने का अधिकार होता है लेकिन अगर आप कहें कि आप मुस्लिम हैं तो आपको ये अधिकार नहीं हैं। अमर्त्य के अनुसार संविधान की आत्मा पर ये बहुत हिंसात्मक हमला है। इसके बाद उन्होंने नसीरुद्दीन शाह के मत का भी जिक्र किया।
कमाल की बात तो है कि अमर्त्य सेन भूल रहे हैं कि नसीरुद्दीन शाह को भारतीय लोगों द्वारा ही अपनाया गया था, जिनके बारे में आज वो इस तरह की बात करते हैं। आज वो जब भी बात करते हैं तो लगता है जैसे देश की छवि को धूमिल करने का प्रयास कर रहे हों। यहाँ तक नसीरुद्दीन शाह नक्सलियों की भी तरफदारी करते हैं जिनका मकसद देश के टुकड़े-टुकड़े करना है। इससे भी ज़्यादा अजीब बात तो ये है कि नसीरुद्दीन शाह ने कभी भी उन मुस्लिम गाय व्यापारियों का साथ नहीं दिया है जिनपर मुस्लिम तस्करों द्वारा हमला किया गया। अब नसीरुद्दीन शाह के सामने आए बयान तो यही बताते हैं कि उनका एजेंडा सिर्फ राजनैतिक है और उनका मुस्लिमों या सामान्य नागरिकों से कोई सरोकार नहीं हैं।
इससे पहले भी अमर्त्य सेन ने असहिष्णुता का मुद्दा कई बार उठाया है। 2014 में लोकसभा चुनावों से कुछ दिन पहले 30 अप्रैल 2014 को उनका दावा था कि अल्पसंख्यकों के पास बहुत सी वज़हें हैं, जिसके कारण वो मोदी से डरते हैं। इस तरह के बयानों का उस समय आना जब लोकसभा के चुनाव नज़दीक हों साफ दर्शाता है कि वो व्यावहारिक स्तर पर एक निश्चित व्यक्ति के ख़िलाफ़ कैम्पेनिंग कर रहे हैं। इनसे ये भी पता चलता है कि अमर्त्य सेन ईमानदार बुद्धिजीवी होने से ज्यादा राजनीति से प्रभावित हैं।
जबसे कॉन्ग्रेस की सरकार ने तीन राज्यों में किसान कर्ज़माफ़ी की घोषणा की है तबसे अर्थशास्त्री उसी बात पर अपने बुद्धिजीवी होने का (यानि आपके पास शब्द हों तो आप कुछ भी साबित कर सकते हैं) प्रमाण दिए जा रहे हैं। एक तरफ जहाँ ये बात है कि किसानों की कर्ज़माफ़ी से देश में महँगाई बढ़ती है वहीं पर उनका कहना है कि ‘हो सकता है कर्ज़माफ़ी से दिक्कतें आती है, लेकिन ये बात भी बिलकुल सच है कि इससे कई फ़ायदे भी हैं।’
एक अर्थशास्त्री होने के तौर पर अमर्त्य सेन से इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि वो इन बातों पर बात करते हुए उस चीजों पर भी ग़ौर करें, जिनपर काम करने पर कॉन्ग्रेस लगातार फ़ेल हो रही है, जिसके कारण अनेकों किसान आत्महत्या कर रहे हैं। कर्नाटक में केवल 800 ही ऐसे किसान हैं, जिन्हें लाभ मिला है। इसके अलावा अमर्त्य सेन ने कभी इस बात पर भी ध्यान नहीं किया कि कई किसानों को आज भी दुबारा से भुगतान करने के नोटिस आ रहे हैं और ऐसा ही मध्य प्रदेश में भी लगातार हो रहा है।
अमर्त्य सेन द्वारा किया गया हर कार्य और बयान इस बात को दर्शाता है कि मोदी को वोट नहीं देने के लिए वो अपने पाठकों से ठीक उसी तरह अपील कर रहें हैं जैसा उन्होंने 2014 में किया था।