The Print की पत्रकार और ‘विचार’ खंड की संपादक रमा लक्ष्मी के अनुसार हिन्दुओं के हज़ारों मंदिर इस्लामी आक्रान्ताओं ने तोड़े, और उनके ऊपर अपनी मस्जिदें खड़ी कीं, यह सच, सच होने के बाद भी, बताया जाना गलत है। हिन्दुओं को यह सच बताने, इसके पक्ष में अरुण शौरी की ‘Hindu Temples: What Happened To Them’ जैसी किताबें लिखा जाना गलत है, ‘गुनाहे-अज़ीम’ है। क्यों? क्योंकि इससे 92 की तरह हिन्दू अपने साथ हुए अन्याय का बदला लेने एकजुट हो जाते हैं।
Arun Shourie, a man liberals love becoz he disses Modi, wrote a book in the early 1990s listing 2,000 mosques across India (with village name, photo etc) that he said stand on top of demolished temples.
— rama lakshmi (@RamaNewDelhi) October 16, 2019
Such books were intellectual fodder to mobs ahead of Rath Yatra, Dec 92.
गंदी सोचों का इतिहास जब कभी लिखा जाएगा, तो “मेरे वाले ऊपर वाले के सिवा और किसी की उपासना करने वाले का कत्ल कर दूँगा- वह भी गला धीरे-धीरे रेत कर” वाले मज़हब से भी गंदी, सड़ाँध मारती, बजबजाती विचारधारा पत्रकारिता के समुदाय विशेष की गिनी जाएगी। लिबरल गिरोह के ये पत्रकार अब पूरी तरह गुंडागर्दी और हिन्दुओं का मुँह अपने हाथों से भींच कर दबाने पर उतर आए हैं। अभी तक ये ऐसी किताबों और दस्तावेज़ों को झूठा, मनगढ़ंत बताते थे, कपोल-कल्पनाओं पर आधारित कहते थे, और इनके हिन्दूफ़ोबिक नैरेटिव को काटने वाला हर विवरण भी इनके लिए ‘वर्क ऑफ़ फ़िक्शन’ होता था- जैसे रामायण-महाभारत, जैसे मलिक मुहम्मद जायसी की पद्मावत, जैसे इस्लामी आक्रांताओं के हत्या-बलात्कार-लूट के नंगे नाच को बयाँ करने वाली फ़ारसी इतिहासकार वसफ़ की किताब, जैसे अरुण शौरी की किताब, जैसे सीताराम गोयल-राम स्वरूप-आरसी मजूमदार-कोएंराड एल्स्ट जैसे इतिहासकारों की किताबें।
“बेचारा शांतिप्रिय, दुष्ट हिन्दू” के अपने प्रोपेगंडा को ‘सनातन’ कर देने के लिए इन्होंने इतिहास में झूठ लिखने, और सच बोलने वालों को झूठा बोलने से कोई गुरेज नहीं किया। सावरकर हिन्दू हितों के पैरोकार होने के चलते “वीर” से “हिंसा फ़ैलाने वाला” बन जाते हैं, मुट्ठी-भर सेना के बावजूद अकबर की विशाल सेना को नाकों चने चबवाने की महाराणा प्रताप की उपब्धि को उनकी हार के रूप में प्रचारित किया जाता है, इतिहास की पुनर्विवेचना कर “कश्मीर और पाकिस्तान हिन्दू कट्टरता की गलती थे” की घोषणा से कट्टरपंथ को न केवल क्लीन चिट दे दी जाती है, बल्कि हिन्दू धर्म और इसके धार्मिक पक्ष को पूरी तरह छिन्न-भिन्न कर देने की ज़मीन तैयार की जाती है। अरुण शौरी की किताब भी जब प्रकाशित हुई तो या तो उसे नज़रंदाज़ किया गया, या मानिनी चटर्जी, रिचर्ड ईटन और रोमिला थापर (और इनकी तरह के अन्य) जैसे झूठे और मक्कार लोगों ने “जुलाहे से पार न पाए, गदहे के कान मरोड़े” की तर्ज पर तथ्य को न काट पाने की खीझ में किताब से लेकर लेखक तक पर कीचड़ उछालने, निजी आक्षेप करने और किताब को प्रतिबंधित करने की दबी-छिपी अपील करने जैसे पैंतरे इस्तेमाल करने शुरू कर दिए।
और जब यह झूठ अदालतों में खुलने लगा, अयोध्या में बाबरी मस्जिद के नीचे से हिन्दू मंदिर, और उसे तोड़े जाने के सबूत मिलने लगे, तो यह गिरोह बिलबिला पड़ा है। अब सच बोलने को भी अपराध घोषित करने की तैयारी चल रही है। रमा लक्ष्मी का यह ट्वीट उसी दिशा में माहौल बनाने के लिए उठा कदम है। ‘हिन्दू मॉब’ के डर के बहाने हिन्दुओं के पक्ष में, इस्लाम के ख़िलाफ़ कोई भी बात सार्वजनिक जीवन में बोले जाने को रोक देना- सुनने में आज ऐसा साम्प्रदायिक, अन्यायपूर्ण कानून भले असंभव लग रहा है, लेकिन लिबरलों का यही ध्येय है, और बहुत दूर भी नहीं है।
झूठ की स्वीकारोक्ति पहले भी हो चुकी है- मजबूरी में
मजबूरी में अपने झूठ की स्वीकारोक्ति लिबरल एक-आध बार कर चुके हैं- लेकिन वह भी हिन्दुओं से, हिन्दू धर्म से दुश्मनी की ही नीयत से। कपिल कोमिरेड्डी ने किताब लिखकर माना ज़रूर कि हिन्दुओं पर हुए लगभग एक हज़ार साल के हत्याकांडों को उनके लिबरल गैंग के पत्रकारों ने दबाया-छुपाया-नकारा, लेकिन साथ में जोड़ दिया कि यह सब ‘साम्प्रदायिक सद्भाव’ की “सदिच्छा” और ‘साम्प्रदायिक ताकतों को ताकत न मिले’ के “विभाजन की हिंसा देखने के बाद उपजे” एजेंडे के तहत किया गया। यानि केवल हिन्दुओं की पीठ पर सेक्युलरिज़्म लादने का पैंतरा, वह भी झूठ और फ़रेब के दम पर, नैतिक रूप से अच्छा था- बस उल्टा पड़ गया; “संघियों” ने अंग्रेजी पढ़ना सीख लिया, विश्वविद्यालयों के Humanities विभाग से बाहर धकेले जाने के बाद भी इतिहास का ज्ञान पा लिया, और हमारे प्रोपेगंडा को नंगा करने चले आए। इसलिए मानना पड़ रहा है।
झूठ की मजबूरी में स्वीकारोक्ति, जिसे हिंदी में “थूक के चाटना” कहते हैं, और भी हुई है। एक बार तो रमा लक्ष्मी के बॉस साहब शेखर गुप्ता को ही मानना पड़ा था कि हाँ, उनके पत्रकारिता के समुदाय विशेष ने मोदी सरकार के अच्छे कामों को नकारने, दबाने, छिपाने की कोशिश की थी? “क्यों?” का जवाब उन्होंने तो नहीं दिया, लेकिन उनके मुँह पर उंगली रख लेने से सच छिप नहीं जाएगा- इसीलिए क्योंकि भाजपा ने अपनी छवि ‘हिन्दू पार्टी’ की बना रखी है, भाजपा का चुनाव जीतने को ‘हिन्दुओं की जीत’ मानी गई, इसीलिए इसे रोकने के लिए सच-झूठ को ताक पर रख दिया गया। उसी तरह, जैसे रमा लक्ष्मी के लिए हिन्दुओं के धर्म पर हुए हमले का सबूत लाना इतना बड़ा ‘पाप’ है कि ऐसे ‘पापी’ अरुण शौरी के लिबरलों के चहेते बनने से उन्हें दुःख हो रहा है।
मंच से भाषण ही नहीं बल्कि कुछ ठोस करने की जरूरत
जब मैं यह लिख रहा हूँ, तो उसी समय खबर आ रही है कि वाराणसी की एक रैली में गृहमंत्री अमित शाह ने इतिहास ही नहीं, इतिहास-लेखन में भी सावरकर के योगदान को याद करते हुए कहा, “अगर सावरकर नहीं होते तो हम 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को अंग्रेजों के नजरिए से देख रहे होते। वीर सावरकर ही वह व्यक्ति थे, जिन्होंने 1857 की क्रांति को पहले स्वतंत्रता संग्राम का नाम दिया था।” साथ ही उन्होंने यह भी कहा, “वक्त आ गया है, जब देश के इतिहासकारों को इतिहास नए नजरिए से लिखना चाहिए। उन लोगों के साथ बहस में नहीं पड़ना चाहिए, जिन्होंने पहले इतिहास लिखा है। उन्होंने जो कुछ भी लिखा है, उसे रहने दीजिए। हमें सत्य को खोजना चाहिए और उसे लिखना चाहिए। यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम अपना इतिहास लिखें। हम कितने वक्त तक अंग्रेजों पर आरोप लगाते रहेंगे?“
अच्छी बात कही, आपने शाह जी। आपसे और आपकी पार्टी से देश को भारी उम्मीदें हैं। सत्ता में यह आपकी दूसरी पारी है। इसलिए आपसे और प्रधानमंत्री मोदी से उम्मीदें और बढ़ जाती हैं कि आखिर वो दिन कब आएगा जब आपकी तरफ से सफ़ेद झूठ परोसती किताबों के पुनर्लेखन के लिए आदेश जारी होंगे? मीनाक्षी जैन, बीबी लाल, केके मोहम्मद, कोएंराड एल्स्ट, डेविड फ्रॉली जैसे हिन्दू और Indic विद्वानों को डीएन झा, रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब, आरएस शर्मा की जगह देने की जगह देने की जरूरत है। ताकि इतिहास का वह पहलू भी दुनियाँ के सामने आए जो अभी तक वामपंथी इतिहासकारों ने छिपाया है।