बात रवीश कुमार के ‘सूत्रों’, ‘कई लोगों से मैंने बात की’, ‘मुझे कई मैसेज आते हैं’, वाली पत्रकारिता की

रवीश कुमार की तस्वीर (साभार NDTV)

कल एक लेख में मैंने वामपंथी मीडिया की कार्यशैली में आए बदलाव की बात की थी कि कैसे मोदी के 2014 में आने से पहले और उसके बाद, उनकी रिपोर्टिंग, विश्लेषण और लेखों के मुद्दों को प्रोपेगेंडा की चाशनी में डुबा कर छानने की बातों में बदलाव आया। उसी बात को आगे बढ़ाते हुए, वामपंथी लम्पट पत्रकार समूह की एक विशुद्ध देशी तकनीक पर बात करना चाहूँगा।

आपने एक स्वघोषित महान एंकर को बहुत बेचैन पाया होगा। वो स्वयं ही अपने फेसबुक वाल पर हैशटैग चलाते हैं जिसमें वो लिखते हैं कि रवीश जी, आपसे उम्मीद है। इस हैशटैग को रवीश जी ने अगर सही तरीके से समझा होता तो वो समझ जाते कि लोगों ने बिना हैशटैग के उनसे कहा कि रवीश जी, आपसे अच्छी पत्रकारिता की उम्मीद है। लेकिन नब्बे प्रतिशत खबरों को ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ के नाम पर चलाने वाले रवीश जी से वैसी उम्मीद बेकार ही है।

रवीश जी ने हिन्दी पत्रकारिता को कई शब्द और वाक्यांश दिए हैं जिनमें ‘गोदी मीडिया’, ‘व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी’, ‘डर का माहौल’, ‘आपातकाल आ रहा है ब्रो’ आदि प्रमुख हैं। आजकल रवीश जी नई बात को मेनस्ट्रीम करने की कोशिश में लगे हैं। उनका कहना है कि लोगों में ‘साहस का मंदी’ आ गई है। ‘बोलने का खतरा’ नामक वाक्यांश को भी रवीश जी धीरे से प्रचलित करने की फिराक में हैं। उसे आप आने वाले दिनों में उनके फेसबुक वाल पर और प्राइम टाइम में देख और सुन पाएँगे।

रवीश जी का दुर्भाग्य देखिए कि उन्होंने गोदी मीडिया की बात की और उन्हें ये ही नहीं पता कि उनका पूरा स्टूडियो, मालिक समेत किसकी गोद में है। ये भी हो सकता है कि रवीश जी पत्रकारिता छोड़ कर जबसे लिंग्विस्ट बनने की राह पर चल पड़े हैं, तब से वो बैठे तो गोद ही में हैं, लेकिन उन्हें पता ही नहीं है। कई बार लोग गोद में इतना ज़्यादा कम्फर्टेबल हो जाते हैं कि उन्हें लगता है कि यही कुआँ संसार है।

वैसे ही व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी की बात करने वाले रवीश कब उसके चांसलर बन गए, उन्हें पता ही नहीं चला। इनकी खबरों को आप सुनिए जिसमें सत्य और तथ्य के अभाव के कारण रवीश जी आपको विश्वास दिलाने की भरपूर कोशिश करते नजर आते हैं। वो किसी क्रेडिबल आदमी से बात नहीं कराते। कहते हैं सूत्रों के हवाले से आई खबर के अनुसार!

उसके बाद उनकी वैचारिक क्रांति का अगला पड़ाव ‘मुझे कई लोगों ने मैसेज किया’ पर आ कर रुकता है। कभी सोचा है आपने कि एक बड़ी कम्पनी, एक बहुत बड़ा पत्रकार, अपने इनबॉक्स पर इतना आश्रित क्यों हो जाता है? कभी सोचा है कि वो ये क्यों कहता है कि लोग ‘ऑन द रिकॉर्ड’ बोलना नहीं चाहते?

ये समझने के लिए आपको टीवी पत्रकारिता को समझना होगा। खास कर, जब टीवी के लोग कहीं जाते हैं तो उन्हें कैमरे पर वही बुलवाना होता है, जो प्रोग्राम के प्रोड्यूसर ने सोच रखा है। इसलिए, लोगों को तैयार किया जाता है कि उन्हें क्या बोलना है, कैसे बोलना है। ये हमेशा नहीं होता पर जब भी मुद्दा आपके मतलब का हो, ऊपर से आदेश हो कि इसे ऐसे ही कवर करना है, तब लोगों को तैयार किया जाता है।

जब लोग कैमरे पर आने को तैयार न हों, तो दो बातें होती हैं। पहली यह कि वो व्यक्ति वाकई डरा हुआ हो, दूसरी यह कि टीवी पर बैठा पत्रकार जो चाह रहा है वो उसे मिल नहीं रहा। अब आप सोचिए कि किसी की नौकरी जा चुकी हो, उसके पास खोने को और क्या है? वो व्यक्ति कैमरे पर आ कर क्यों नहीं बोल सकता?

बकौल रवीश कुमार, 25 से 50 लाख लोगों की नौकरी जा चुकी है। आप इस बड़ी संख्या को देखिए जिसमें अंदाजा भी लगाया है तो 25 से 50 लाख तक का लगाया है। इन दोनों संख्याओं में 25 लाख का अंतर है। ये हमारे आज के पत्रकार हैं जिनके अंदाजे का रेंज सौ प्रतिशत होता है। जब हम अंदाजा लगाते हैं तो कहेंगे कि 25-30 लाख लोगों की नौकरी गई। ये भी बहुत बड़ा मार्जिन है। लेकिन रवीश कह रहे हैं कि ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ लाखों लोगों की नौकरियाँ जा चुकी है तो वो यह भी कह सकते थे कि लगभग 1 से 2 करोड़ लोगों की नौकरी चली गई। रवीश भक्त ‘आह रवीश जी, वाह रवीश जी’ कहते रहेंगे।

दूसरी बात आप यह सोचिए कि इन 25 से 50 लाख लोगों में रवीश को दस लोग ऐसे नहीं मिले जो कैमरे पर कहते कि उनकी नौकरी चली गई। जब पत्रकार ‘मुझे कई लोगों ने मैसेज किया’ से लेकर ‘मैंने कई लोगों से बात की’ कहते हुए आपको यह कहने लगे कि लोगों के ‘साहस में मंदी’ आ रही है तो आपको समझ जाना चाहिए कि पत्रकार का मुख्य उद्देश्य किसी उद्योग से नौकरियों के जाने का नहीं, बल्कि उसके नाम एक और नया मुहावरा हो जाए, इसका प्रयास है।

ऐसे शब्दों का प्रयोग रिपोर्ट को साहित्यिक बनाने के लिए लोग करते हैं लेकिन इसके साथ ही आपके पास पर्याप्त सबूत होने चाहिए। ‘साहस की मंदी’ बहुत ही पोएटिक बात है लेकिन इसका आधार क्या है? ‘ऑन द रिकॉर्ड नहीं आना चाहते’ के नाम पर आप वही पुराना कैसेट घिस रहे हैं कि मोदी ने लोगों को इतना डरा दिया है कि लोग बोलना नहीं चाहते!

ये फर्जीवाड़ा कब तक चलेगा?

ये पत्रकारिता नहीं है। ये किसी भी तरह अपनी बात मनवाने का एक तरीका है। ये एक कुत्सित प्रयास है जहाँ आपके पास न तो तथ्य हैं, न ढंग के मुद्दे हैं, न दिखलाने के लिए लोग हैं, इसलिए सबसे आसान तरीका है ‘मैंने कई लोगों से बात की’। अगर आपने कई लोगों से बात की तो कहाँ हैं वो लोग? आपको कई लोगों ने मैसेज किया तो क्या आपकी टीम उन लोगों से मिलने गई? या पिछले दिनों जो कविता कृष्णन जैसे नक्सलियों ने चार लोगों के पैर दिखा कर पूरे कश्मीर के परेशान होने की बात की थी, वही तरीका है आप लोगों की पत्रकारिता की?

रोजगार के मुद्दे पर रवीश कुमार ने आँकड़ों, एजेंसियों से आए तथ्यों की दूसरी तरफ खड़े होने पर चुनाव तक चिल्लाते रहे कि बेरोजगारी बढ़ रही है जबकि उस समय ऐसा बिलकुल नहीं था। रवीश हमेशा वैसी जगहों पर चले जाते थे जहाँ छात्र तैयारी करते हैं। जहाँ लोग नौकरियों की तैयारी करते हैं वहाँ आपको बेरोजगार नहीं मिलेंगे तो कौन मिलेगा? फिर भी, जब लगातार भाजपा की सरकारें बनती रहीं तो थक हार कर रवीश ने कहा था कि पता नहीं मोदी ने क्या कर दिया है कि ये लोग अभी भी उसी को वोट करना चाहते हैं! ऐसा कहते हुए रवीश के चेहरे की मुस्कान ऐसी विचित्र थी की जीवन में दूसरे किसी जीव को मैंने वैसे मुस्कुराते नहीं देखा है।

ये पत्रकारिता कुछ ऐसे चलती है कि आपको रिपोर्ट बनाने से पहले हेडलाइन लिखना होता है और उसमें निष्कर्ष होना चाहिए कि आपको जाना कहाँ है। यहाँ रवीश कुमार और उनके पूरे गिरोह की लड़ाई किससे है यह छुपा नहीं है। इसलिए अब ये सारे लोग एक जगह, एक दूसरे का इंटरव्यू लेते मिलेंगे आपको। हर जगह यही बोला जा रहा है कि पत्रकारिता तो अब बस ये लोग ही बचा सकते हैं।

ऐसा बोलना अपने आप में किस तरह के घमंड के भरने से फलित होता है, ये हम सब जानते हैं। ‘हम चुनी दीगरे नेस्त’ वाली भावना एक अलग तरह की असहिष्णुता है। आप सोचिए कि ये गुमान कहाँ से आता है कि पत्रकारिता तो वही कर रहे हैं, बाकी तो गीत गा रहे हैं। इस तरह के इन्टॉलरेंस का कोई अंत नहीं। ये अपने गिरोह को छोड़ कर कभी भी बाहर नहीं जाते। क्या आपने इन्हें कभी भी अपने गिरोह के बाहर के लोगों की रिपोर्ट को शेयर करते देखा है? क्या कभी भी टीवी पर कहते सुना है वैसे अखबार का नाम जो वामपंथी विचार के न हों?

आपने नहीं सुना होगा क्योंकि अहम के चरम पर बैठे हैं ये लोग। जब काम की खबरें न हों तो खबरें बनाते हैं, सबूत न मिले तो ‘मुझे कई लोगों ने मैसेज किया’ बताते हैं, कैमरे ले कर कहीं चले भी गए, और मतलब की बात करने को कई तैयार न हो तो कह देंगे कि लोगों में ‘साहस की मंदी’ है। ये है वामपंथी पत्रकारिता जो खबरों को देखता नहीं, दिखाता नहीं, बल्कि खबरों को बनाता है, मेकअप करता है उनका और तब आपको गंभीर चेहरे के साथ बताता है कि भाई साहब आप देखते कहाँ हैं, रवीश का हलाल खबर शॉप यहाँ है!

हम क्रेडिबल हैं, हम पर विश्वास करो… पिलीज ब्रो…

पैटर्न पर गौर कीजिए। पहले इन्होंने खबरों में झुकाव दे कर कवर करना शुरु किया। मोदी बोले कुछ, उसको घुमा कर कुछ और कहना शुरु किया। उसके बाद दौर आया एक घटना को इस तरह से सारे सियार मिल कर हुआँ-हुआँ करते थे, मानो वो घटना पूरे भारत की पहचान हो। कोई अपराध हुआ तो उसमें हिन्दू, सवर्ण आदि को ऐसे प्रोजेक्ट किया जाने लगा जैसे अपराध का कारण दो लोगों की आपसी दुश्मनी नहीं, धर्म और जाति थी। जबकि ऐसा होता नहीं था।

इस दौर के बाद जब दूसरे धड़े का मीडिया सक्रिय होने लगा और इनके झूठ पकड़ कर पूछने लगा कि एक मुद्दे पर हाय-तौबा करते हो, दूसरे पर क्यों नहीं, तब इन्होंने नया तरीका अपनाया। वो नया तरीका था खबरें पैदा करने का। इस शृंखला में अमित शाह के बेटे से लेकर अजित डोवाल तक पर पैसों के होराफेरी के आरोप लगे जो साबित नहीं हो सके। ये बात और है इनके मालिक पर सैकड़ों करोड़ों के शेयर की हेराफेरी और मनी लॉन्ड्रिंग के मुकदमे चल रहे हैं, उस पर कभी बात नहीं करते। इनके मालिक की पेशी भी हो तो वो प्रेस फ्रीडम पर हमला हो जाता है।

खबरें पैदा करने की कड़ी में दक्षिणपंथी मीडिया द्वारा इनकी करतूतों को एक्सपोज करते रहने के कारण इन पर से लोगों का विश्वास लगातार गिरता जा रहा है। इनके पोर्टलों का ट्रैफिक नीचे जा रहा है, टीवी देखने वाले कम हो रहे हैं, और ये लोग अपने आप को फर्जी अवार्ड दे कर खुश हो रहे हैं।

‘द वायर’ से लेकर ‘न्यूज लॉन्ड्री’ तक रवीश के इंटरव्यू करते दिखते हैं जहाँ रवीश कुमार बताते हैं कि मीडिया की स्थिति खराब है। जबकि बात इसके उलट यह है कि इनके विचारधारा वाली मीडिया की स्थिति खराब है। लोगों ने इन्हें देखना-पढ़ना बंद कर दिया है और वैसे लोगों को पसंद किया जा रहा है जिनकी पत्रकारिता किसी से घृणा के आधार पर नहीं हो रही, जो नकारात्मक नहीं है, जो जीडीपी के ऊपर जाने पर ये सवाल नहीं पूछते कि गरीब जीडीपी नहीं खाता, और जब वो नीचे जाए तो पलट कर ये नहीं कहते कि अर्थव्यवस्था बर्बाद हो गई।

इसलिए, अब इनके जो स्वघोषित प्रतिमान हैं, वो स्वयं ही कहते नजर आ रहे हैं कि पत्रकारिता तो वही कर रहे हैं। इसलिए सड़क पर निकलिए तो बच कर निकलिए। कोई राह चलते पकड़ लेगा और कहेगा कि ‘मैं सही पत्रकारिता कर रहा हूँ, प्लीज मेरी बात मान लो, मुझे कई लोगों ने मैंसेज किया है’। ऐसा कहने के बाद क्या पता वो आपको अपने फोन का पासवर्ड बता कर मैसेज पढ़वा ही दे!

अजीत भारती: पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी