Thursday, April 25, 2024
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कभी-कभी लगता है मैं स्वयं ही ‘बेरोज़गारी’ हूँ: रवीश, रोज़गार और आँकड़े

रवीश एंकर हैं, वित्तीय और आर्थिक मामलों के जानकार नहीं। अंग्रेज़ी पढ़ कर, कीवर्ड देखने के बाद, लपलपाती जीभ निकालकर आप 'जॉब' और 'स्लोडाउन' का अनुवाद बेशक कर देंगे, लेकिन आप यह भूल जाएँगे कि सैलरी वृद्धि और इन्फ्लेशन का क्या संबंध है, और मोदी को अपने अज्ञान से घेरने की कोशिश करेंगे।

CMIE एक संस्था है जो भारतीय अर्थव्यवस्था पर नजर रखती है और रोज़गार आदि से संबंधित आँकड़े और सर्वेक्षण आदि भी करती रहती है। उसी के मैनेजिंग डायरेक्टर और सीईओ हैं महेश व्यास। व्यास जी बिजनेस स्टैंडर्ड में कॉरपोरेट में रोज़गारों की स्थिति पर लिखने की कोशिश की। कोशिश ही कहूँगा क्योंकि जब व्यक्ति बहुत ज़्यादा आँकड़े फेंकता है, और हर पैराग्राफ़ में प्रतिशत और इन्फ्लेशन जैसी भारी बातें करता है, तो उसका मक़सद एक ही होता है कि डेटा को टॉर्चर करते हुए अपने मन की बात क़बूल करवा लेना।

आर्टिकल को ज़बरदस्ती का कॉम्प्लेक्स बना देना एक अच्छी ट्रिक है। आँकड़े भर दीजिए आदमी पागल होता रहे। महेश व्यास का वो आर्टिकल वैसी ही एक कोशिश है। वहाँ उन्होंने बताया है कि उनके संगठन के आँकड़ों के हिसाब से कॉरपोरेट सेक्टर में नौकरियों में धीमापन आया है। ध्यान रहे कि जो शब्द उन्होंने इस्तेमाल किया वो ‘स्लोडाउन’ है, यानी धीमापन, न कि कमी आना, या नकारात्मक में जाना। जैसे कि अगर हर साल दस प्रतिशत की गति से रोजगार के अवसर आते थे, तो इस बार आठ प्रतिशत की ही दर है। अगर यह दर कुछ सालों तक ऊपर न उठे, तो उसे स्लोडाउन कहेंगे।

महेश व्यास के आर्टिकल की तस्वीर

लेकिन, यही प्रतिशत नकारात्मक होकर, 100 की जगह 95 नौकरी पर पहुँच जाए, तब कहेंगे कि नई नौकरियों का सृजन नहीं हो पा रहा है। खैर, महेश व्यास के आर्टिकल में दो मुख्य बातें हैं, जो समझनी जरूरी है, वरना रवीश कुमार टाइप अवसाद से आप मर जाएँगे। रवीश कुमार ने आँकड़ों को समझने की कोशिश किए बिना, अनुवाद कर दिया। वहाँ उनको ‘जॉब’ और ‘स्लोडाउन’ दिखा, बस अनुवाद कर के मोदी को लपेट लिए।

रवीश अपने पूर्वग्रहों के साथ अनुवाद करने बैठे क्योंकि बेरोज़गारी उनका फ़ेवरेट मुद्दा है जबकि सरकार ने हर साल लगभग एक करोड़ से ज़्यादा रोज़गार सृजन किए हैं। सरकारी आँकड़ों और रोज़गारों की बात आगे विस्तार से करेंगे, फ़िलहाल यह देखते हैं कि रवीश ने महेश व्यास के जटिल आर्टिकल को कहाँ गलत समझा।

जब मुद्रास्फीति या इन्फ्लेशन उच्च स्तर पर होता है, तो नौकरी देने वाली संस्था भी अपने कर्मचारियों की वेतन में सालाना वृद्धि करते हुए, सैलरी की वृद्धि की दर ज़्यादा रखते हैं। मतलब यह कि अगर आपकी सैलरी पिछले साल मार्च में 100 रुपए थी, इन्फ्लेशन 8% था, तो कम्पनी इस बात को ध्यान में रखते हुए, आपकी सैलरी में इस साल 12% की वृद्धि करेगी। ये बस उदाहरण है, लेकिन सामान्यतया तर्क यही होता है।

अब याद कीजिए 2009-14 का दौर जब इन्फ्लेशन बहुत ज़्यादा था। ज़ाहिर है कि औसत सैलरी वृद्धि भी ज़्यादा हुई थी। उसके बाद आई मोदी सरकार, जिसने इन्फ्लेशन पर लगाम लगाई, और महँगाई की दर को क़ाबू में किया। फिर क्या होगा? फिर जहाँ आपकी सैलरी मार्च 2013 से मार्च 2014 में 112 रुपए तक पहुँची, वहीं मार्च 2018 में 100 रुपए पाने वाले को मार्च 2019 में कम इन्फ्लेशन के कारण 107 रुपए तक ही पहुँचेगी।

अब एक बार और इन्फ्लेशन को समझिए कि अगर महँगाई की दर कम हो तो आप उसी 10 रुपए में एक किलो सब्जी ख़रीद सकते हैं, जो पहले 12 रुपए में ख़रीदते थे। यानी, आपके पास जो सैलरी बढ़कर आई है, वो भले ही प्रतिशत के हिसाब से कम हो, पर बाज़ार में चीज़ों के मूल्य कम रहने से, आपके दैनिक या मासिक बजट पर फ़र्क़ पड़ने नहीं दे रहा। मतलब 2009 की 12% वृद्धि 2019 के 7% के बराबर हो सकती है, अगर इन्फ्लेशन एडजस्ट किया जाए।

महेश व्यास जी ने अपने आर्टिकल में एक चालाकी कर दी। व्यास जी ने यह तो बता दिया कि कैसे 2013-14 में सैलरी में औसत वृद्धि 25% की थी, लेकिन वो ये बताना भूल गए कि 2014 से मोदी सरकार के आते ही न सिर्फ सैलरी वृद्धि दर आधी हुई बल्कि इन्फ्लेशन भी 11 और 9% की जगह 5 और 6% तक गिरते हुए, 2016 में 2.23 और 2017 में 4% तक आ गया था। बाकी की जानकारी इन ग्राफ़ में आप देख सकते हैं।

महेश व्यास ने अपने लेख में 2009-14 के बढ़े हुए इन्फ्लेशन का ज़िक्र नहीं किया

फिर से महेश व्यास जी आँकड़े को देखें, तो पता चलता है कि सैलरी की वृद्धि का प्रतिशत इन्फ्लेशन के अनुपात से ही घटा और बढ़ा है लेकिन चालाकी यही होती है कि आप 25% वृद्धि की बात तो कह देते हैं, लेकिन सरकार ने महँगाई पर रोक लगाई, वो कहने में आपकी नानी मरती है। उसके बाद बहुत सारे प्रतिशतों की बात हुई है, और बताया गया है कि इन्वेस्टमेंट आदि के कारण कॉरपोरेट सेक्टर में नौकरियाँ पहले की तरह से नहीं बढ़ रहीं।

नई नौकरियाँ मिलीं या नहीं?

वैसे तो इसके कई कारण हैं, लेकिन कई क्षेत्रों में ऑटोमेशन, नई तकनीक आदि और वैश्विक मंदी भी इनमें आए धीमेपन के कारण माने जाते हैं। महेश व्यास ने शुरुआती पैराग्राफ़ में एक माहौल बनाया कि लोगों को बड़े कॉरपोरेट हाउसेज़ में नौकरियाँ चाहिए, वो वहाँ काम करना चाहते हैं। यहाँ उन्होंने चाहने की बात की, और यह भूल गए कि कई सर्वेक्षणों में कई बार यह भी कहा है कि भारत के 70-90% इन्जीनियर्स काम करने के लिए अयोग्य होते हैं, और उन्हें ट्रेनिंग देनी पड़ती है।

नौकरी चाहने और नौकरी योग्य होने में बहुत अंतर है। वर्ल्ड बैंक के एक आँकड़े के अनुसार भारत में 91% लोग अव्यवस्थित क्षेत्रों, यानी अनऑर्गेनाइज्ड सेक्टर, में काम करते हैं। महेश व्यास जी की ही कम्पनी ने एक और सर्वे किया जिसमें पता लगा कि पिछले तीन सालों में कुल 7.19 करोड़ नौकरियों का सृजन हुआ है। इसमें से एक बड़ा हिस्सा, 6.9 करोड़ बारहवीं या उससे कम शिक्षित लोगों के लिए है।

अब इसमें वर्ल्ड बैंक का ऊपर का प्रतिशत लगाइए कि 91% रोजगार अव्यवस्थित क्षेत्रों में है, तो लगभग तस्वीर समझ में आ जाती है। साथ ही, दो-तीन बार अलग-अलग सर्वे से (मोहनदास पई और यश बेद) हमारे पास लगातार यह आँकड़े आए हैं कि सिर्फ ऑटोमोबाइल सेक्टर से 1.4 करोड़ और प्रोफ़ेशनल सेक्टर से 40 लाख नई नौकरियों का सृजन हुआ है। इसी तरह, CII द्वारा जारी आँकड़ों के हिसाब से MSME सेक्टर में, मोदी सरकार के कार्यकाल में, लगभग 6 करोड़ लोगों को रोजगार मिला है।

आप चाहें, तो रवीश कुमार की तरह माइक लेकर मुखर्जी नगर चले जाएँ और प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में लगे प्रत्याशियों की भीड़ दिखाकर कह दें कि यहाँ तो हर कोई बेरोज़गार ही है, या फिर देश की वर्तमान स्थिति को देखते हुए, यहाँ की दुःखद शिक्षा व्यवस्था के सामने, इन आँकड़ों को मानें कि हाँ, नौकरियों का सृजन हुआ है।

ये बात और है कि रवीश कुमार जैसे लगो जब रोजगार की बात करते हैं तो उनके लिए देश का हर युवा आईएएस या सीईओ होना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं है। ऐसी नौकरियाँ हमेशा घटती रहेंगी क्योंकि नई तकनीक, और नई ज़रूरतों के हिसाब से कम लोग, पहले के सारे काम निपटाने में सक्षम होंगे। ये एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, इसमें सरकार को कोसना मूर्खता है। नई तरह की नौकरियाँ आएँगी, लेकिन पुरानी में गिनती घटेगी।

सरकार को हम तब कोस सकते हैं जब हम यह कहेंगे कि शिक्षा व्यवस्था क्यों नहीं सुधर रही, शोध और उच्च शिक्षा पर पैसे क्यों नहीं दिए जा रहे। लेकिन ऐसा तंत्र बनाने में लम्बा समय जाता है, और हमारे देश का दुर्भाग्य देखिए कि सत्तर सालों में दो से ढाई राष्ट्रीय शिक्षा नीति ही आ पाई है। खैर, यह एक अलग ही विषय है, जिस पर फिर कभी चर्चा होगी।

यहाँ, दोबारा महेश व्यास जी और रवीश कुमार की बात करना चाहूँगा कि एक ही संस्था ने यह आँकड़े दिए हैं, जहाँ रोज़गारों में वृद्धि भी हुई है, और इन्फ्लेशन घटा है। फिर रवीश कुमार किस आधार पर रोज़गार का राग हर दिन अलापते हैं, पता नहीं। आप अपने देश की स्थिति अगर नहीं समझ रहे, और आपको यहाँ का हर व्यक्ति वॉल स्ट्रीट में काम करता दिखना चाहिए, तो आप सपनों की दुनिया से बाहर आइए। वहाँ तक पहुँचने के लिए पूरा तंत्र खड़ा करना होता है। पहले सीवेज़ ट्रीटमेंट प्लांट बनाना पड़ता है, तब जाकर गंगा साफ दिखती है। लेकिन आपको पहले गंगा साफ चाहिए, प्लांट बनाने की क़वायद आपको करनी ही नहीं।

नौकरी, जॉब, सैलरी, मज़दूरी आदि का सच

हम इन बातों से दूर नहीं भाग सकते कि पकौड़ा बेचना भी किसी के लिए नौकरी है। किसी के लिए ही नहीं, बल्कि बहुत लोग स्ट्रीट फ़ूड को एक व्यवसाय के रूप में करते हैं, और उतने पैसे कमाते हैं कि परिवार का पोषण कर सकें। इसे आप जेनरलाइज़ कर के यह कह दें कि मोदी ने कहा कि सबको पकौड़ा तलना चाहिए, तब आप धूर्त हैं।

काम या रोज़गार की परिभाषा यह नहीं है कि सरकारी नौकरी ही मिले, या किसी कॉरपोरेट हाउस में ही सैलरी वाली जॉब हो। बल्कि रोजगार का मतलब यह है कि आप कुछ काम करते हैं जिससे आपको आमदनी होती है, आपका घर चलता है। परिवार भूखा नहीं सोता। ऐसा भी नहीं है कि देश में हर व्यक्ति को रोज़गार मिल गया है, और कोई भी भूखा नहीं मर रहा। ये समस्याएँ हमारे देश में हैं, और हमारी बढ़ती जनसंख्या के कारण रहेंगी।

आप खूब ख़याली पुलाव बना लें कि सबको रोजगार देंगे, लेकिन जब तक जनसंख्या पर नियंत्रण नहीं होगा, आपकी बड़ी आबादी कम क्लास तक ही पढ़ेगी और उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा या तो सर पर ईंट ढोएगा, या स्विगी आदि में डिलीवरी ब्वॉय बनेगा। वो भी नौकरियाँ हैं, लेकिन हर वो व्यक्ति जो वैसी नौकरी कर रहा है, वही नौकरी करना चाहता हो, ऐसा भी नहीं।

रवीश कुमार ने अपने चिर-परिचित अंदाज में अपने लेख में लिखा कि वो कई बैंकरों से मिले और उन्होंने इन्हें बताया कि काम करने के हालात खराब हुए हैं। फिर उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि इन हालात में भी कई बैंकर मोदी-मोदी कर रहे हैं। मतलब, रवीश को बैंकरों की स्थिति से कुछ लेना-देना नहीं है, उनके दुःख और प्रलाप का कारण यह है कि ये लोग मोदी-मोदी क्यों कर रहे हैं।

वैसे ही, लेख की शुरुआत में रवीश कुमार ने बताया कि पिछले कुछ सालों में देश से 36 बिज़नेसमैन फ़रार हैं और रवीश जी को चार नाम ही मालूम हैं- नीरव मोदी, माल्या, मेहुल चौकसी और संदेसरा बंधु। चालाक पत्रकार आधी बात बता कर यह जताना चाहता है कि ये लोग मोदी के कार्यकाल में फ़रार हो गए। लेकिन रवीश ने अपनी खोजी पत्रकारिता से यह नहीं बताया कि इन बिज़नेसमैन के घोटालों के समय सरकार किसकी थी?

रवीश कुमार ने यह लिखने की ज़हमत नहीं उठाई कि किस सरकार ने इन्हें भागने से रोकने, और भाग जाने के बाद विदेशों से यहाँ लाने के लिए कानून बनाए। रवीश कुमार आधा लिखते हैं, आधा अनुवाद करते हैं, और पूरे समय कहते हैं टीवी मत देखिए, लेकिन टीवी पर आना बंद नहीं करते। रवीश कुमार, कुल मिलाकर, एक अवसादग्रस्त व्यक्ति में बदल चुके हैं जो अब इस बात से नाराज है कि लोगों को मोदी में आशा क्यों दिख रही है।

रवीश कुमार अनुवादित ज्ञान पूरा दे देते हैं और लोगों को कोस लेते हैं कि वो बेरोज़गारी में भी मोदी-मोदी क्यों कर रहे हैं, लेकिन वो कोई विकल्प नहीं दिखा पाते। रवीश कुमार अपने तमाम लेखों में यह नहीं बता पाए हैं कि पिछले किन सरकारों के कौन से नेता वैसे हैं जो विजन लेकर घूम रहे हैं रैलियों में और बता रहे हैं कि अगर उनकी सरकार आई तो इस तरह से नौकरियाँ बढ़ेंगी।

रवीश कुमार, इसके उलट, कॉन्ग्रेस के ‘न्याय’ में आशा देख लेते हैं जो कि बेरोज़गारों को और भी नकारा बनाने की एक तकनीक है। एक उत्थानोन्मुखी राष्ट्र धीरे-धीरे सब्सिडी घटाता है, और अपनी जनसंख्या को क़ाबिल बनाता है कि वो स्वयं अपना पोषण कर सके। एक विजनरी नेता अपनी जनता को सक्षम बनाने के लिए प्रयासरत रहता है कि उसके पास निपुणता आए, और वो स्वयं ही सरकारी सहयोग राशि लेना बंद कर दे।

लेकिन रवीश को पंगू बनाने वाली उस स्कीम में आशा दिखती है जिसके संचालक को जीडीपी के नौ प्रतिशत और बजट के नौ प्रतिशत का फ़र्क़ पता नहीं। वो वहाँ राहुल गाँधी में आशा देखते हैं जिसे यह पता नहीं कि तीन प्रतिशत के वित्तीय घाटे में चलता देश, लगभग 90% आबादी को ‘न्याय’ योजना के ₹72,000 सालाना कहाँ से लाकर देगा?

इसलिए हे रवीश, अपने आप को ज़लील करना बंद करो। अनुवाद करो, तो थोड़ा दिमाग लगाया करो। आप एंकर हैं, वित्तीय और आर्थिक मामलों के जानकार नहीं। अंग्रेज़ी पढ़ कर, कीवर्ड देखने के बाद, लपलपाती जीभ निकालकर आप ‘जॉब’ और ‘स्लोडाउन’ का अनुवाद बेशक कर देंगे, लेकिन आप यह भूल जाएँगे कि सैलरी वृद्धि और इन्फ्लेशन का क्या संबंध है।

इसलिए, अपने होने का घमंड मत करो हे रवीश! चूँकि आपने बेरोज़गारी पर खूब लिखा है, इसका मतलब यह क़तई नहीं है कि आप सच ही लिख रहे हो। आपने नौकरियों पर शृंखला की, जो काबिलेतारीफ है, लेकिन वो सिस्टम आज का नहीं है, न ही जल्दी सही हो पाएगा। सुप्रीम कोर्ट में एसएससी के रिजल्ट को लेकर हर साल बवाल होता है।

आप जब भी बेरोज़गारी की बात करें, और सबको टाई पहनाकर, काले जूतों में गुड़गाँव भेजने की मंशा रखें, तब यह आँकड़ा भी ज़रूर दें कि किस सरकार में जनसंख्या का कितना प्रतिशत इस तरह के रोजगार में शामिल था, और दुनिया में ऐसे रोज़गारों की क्या स्थिति है। आप यह भी आँकड़ा लाकर दें कि कॉलेज से भारत की कितनी बड़ी जनसंख्या पहले निकलती थी, कितने प्रतिशत को नौकरी मिलती थी, अब कितनी निकलती है, कितने प्रतिशत को नौकरी मिलती है, एवम् नौकरियों को लेकर वैश्विक परिदृश्य कैसा है।

रवीश कुमार और उनके जैसों की समस्या है कि वो आँकड़ों को संदर्भ से हटा कर, आदर्श स्थिति में देखते हैं। स्थिति आदर्श नहीं है, संदर्भ हमेशा रहेंगे। आप 2012-13 के 25% हाइक की बात कर देंगे, लेकिन उस साल का इन्फ्लेशन बताना ज़रूरी नहीं समझेंगे। इसी को कहते हैं संदर्भ हटाना, और गुलाबी समाँ बनाना कि आहा! मनमोहन सिंह के समय कितनी नौकरियाँ थीं, कितनी सैलरी बढ़ी होती थी। आप भूल जाते हैं कि मनमोहन सिंह के समय दाल और प्याज की क़ीमत कितनी हुआ करती थीं।

इसलिए हे रवीश! दिन-रात बेरोज़गारी पर लिख-लिख कर, आपको हप्पू सिंह की उलटन-पलटन के बेनी की तरह यह अहसास होने लगा है कि आप स्वयं ही बेरोज़गारी का मूर्त स्वरूप हैं। ऐसा मत कीजिए अपने साथ, अच्छा नहीं लगता। डेटा छुपाना गलत बात है, एकदम गलत बात।

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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