यह कहानी फ़िल्मी नहीं है। धनबाद के वासेपुर की तो बिल्कुल भी नहीं। यह कहानी है बर्फ के वादियों से। वहीं से, जहाँ हिरोइनें शिफ़ॉन की साड़ियों में होती हैं लेकिन हीरो स्वेटर और लेदर जैकेट में! यह कहानी है एक बच्चे की। कहानी में एक माँ भी है। माँ जो हम सबकी होती है… अफ़सोस हम माँ के उतने नहीं हो पाते हैं 🙁
तो पेशे-ख़िदमत है माँ और उसके ‘शेरदिल’ बेटे की कहानी
मई का महीना था। मौसम ख़ुशगवार था। तभी तेज़ आवाज़ आई – बेटा हुआ है। माँ के आँसू छलक गए, खुशी के आँसू। बेटे के हर लात, हर मुक्के, हर ज़िद और बदमाशी को माँ झेलती रही। क्योंकि यह माँ का फ़र्ज़ था। दिन-ब-दिन बेटा बड़ा होता गया। और बड़ी होती गईं उसकी शैतानियाँ। जहाँ-तहाँ सूसू-पॉटी से लेकर पेड़-पौधों तक को उसने नेस्तानाबूद किया, माँ ने सब झेला… सिर्फ इसलिए क्योंकि वह माँ थी।
अब वो किशोरावस्था में पहुँच गया। सूसू-पॉटी जैसी शैतानियाँ अब वो बंद कमरे में करने लगा। गिल्ली-डंडा, क्रिकेट, कबड्डी अब उसके अड्डे थे – शैतानियों के अड्डे। इनके आगे वो अपनी माँ को माँ नहीं समझता था। कभी माँ से नहीं पूछता कि उसकी इच्छा क्या है… शायद ज़रूरत भी महसूस नहीं की उसने। लेकिन माँ ने कभी भी उसे अपनी छाँव से दूर नहीं किया। उसके नैसर्गिक गुणों से उसे वंचित नहीं किया। चाहती तो कर सकती थी लेकिन माँ भला ऐसा क्यों सोचे!
खैर, लड़का जवान हुआ। अपने नैसर्गिक गुणों के दम पर लड़के ने मेडिकल कॉलेज में एडमिशन पा लिया। माँ बहुत खुश थी। आज फिर उसके आँसू छलके थे, खुशी के आँसू। यहाँ उसकी बदमाशियों का पोस्टमॉर्टम हो गया। एक से बढ़कर एक सीनियरों ने उसकी कह के ली। न जाने कितनों को उसे तोहफ़ा क़ुबूल करवाना पड़ा। अब उसे माँ की याद आने लगी। माँ तो ठहरी माँ! उसका कलेज़ा पसीज़ गया। हिम्मत दी, हौसलाफ़ज़ाई की। लौंडे ने मेडिकल का किला फ़तेह कर लिया।
मेडिकल कॉलेज के पिंजरे से निकल बदमाशियों का स्केलटन फिर से तन कर खड़ा हो गया। लेकिन अब उसे बड़ा मैदान चाहिए था। बदमाशियों का कैनवास बड़ा था, तो दिलासा भी बड़ा होना था। माँ से बड़ा कौन! माँ फिर उसके साथ खड़ी थी। बड़े जतन से बेटे के नैसर्गिक गुणों पर माँ ने फिर से धार चढ़ाई। और चाहिए ही क्या… IAS में जीत इतनी बड़ी हुई कि इलाका धुआँ-धुआँ हो गया। हर तरफ़ हज़रात-हज़रात-हज़रात का शोर! शोर में माँ को फिर से भूल गया बेटा… अफ़सोस!
10-11 बरस बीत गए। बेटे को फिर से माँ की ‘याद’ आई। क्योंकि उसकी बदमाशियाँ अब किसी सरहद की मोहताज़ नहीं रहना चाहती थीं। उसने IAS से इस्तीफ़ा दे दिया। क्योंकि A Wednesday (जनवरी 9, 2019) को उसे माँ की ‘सेवा’ करनी है। लेकिन नहीं… मौसम थम के बरसने को तैयार ही नहीं, आख़िर Friday को अपनी ‘महबूबा’ ‘उमर’ के पास जाएँ कैसे फैजल साहब! माँ और मौसम के बीच मौसम ने बाज़ी मार ली।
तेज़ आवाज़ आई। माँ की तेज़ आवाज़। धरती माँ की धिक्कार भरी आवाज़ -फैजल! सेना और कश्मीर पुलिस के जवानों की मौत के वक्त तू गांज़ा मार के कहां पड़ा था रे फैजल? कब बनाएगा इनके लिए तू पॉलिसी फैजलवा? बर्फ-पानी-पत्थर से सेना का खून नहीं जमता, अल्लाह के सबसे पाक दिन Friday को तेरा खून कैसे जम गया रे फैजलवा? कब खून खौलेगा रे तेरा?