Friday, November 22, 2024
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लालू राज से भागते बिहारी, दिल्ली में 90 के दशक में कैसे मनाते थे छठ: लोकपर्व के ब्रांड बनने की कहानी

टूरिज्म सेक्टर से जुड़े बिहारी, छठ टूरिज्म का एक पैकेज बना उन लोगों को बिहार लाकर छठ की छठा दिखा सकते हैं, जिनको इस पर्व को जानने की उत्सुकता हो।

बिहार का लोकपर्व छठ अब सिर्फ एक त्योहार नहीं होकर ब्रांड बन गया है। 1992 में जब मैं पिताजी के साथ दिल्ली आया था तो माँ ने पहला छठ इंडिया गेट के बोट क्लब के कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देकर मनाया था। हम तब वसंत कुंज में रहते थे। वहाँ से बस रूट नंबर 604 लेकर कृषि भवन पहुँचे थे। तब गिनती के 10-15 व्रती छठ कर रही थीं। पुरुष व्रती एक भी नहीं थे उस वर्ष। उस समय यहाँ के लोगों के लिए यह पर्व कौतूहल का विषय था। लोग रुक के देखते थे।

उस समय दिल्ली के अन्य बसते हुए मोहल्लों में छिटपुट बिहारी छठ मनाना शुरू कर चुके थे। एक अनुमान के अनुसार उस समय दिल्ली में छठ मनाने वालों की कुल संख्या 1000 भी नहीं थी। इससे पहले तक ज्यादातर बिहारी कलकत्ता (कोलकाता), बॉम्बे (मुंबई), सूरत को अपना कार्य क्षेत्र बनाते थे। लेकिन 1991-92 के बाद से दिल्ली बिहारियों का नया कार्य क्षेत्र बनना शुरू हुआ। तब दिल्ली की राजनीति पर पंजाबियों का वर्चस्व हुआ करता था। लेकिन जैसे ही डेमोग्राफी बदली 1998 के विधानसभा चुनाव में शीला दीक्षित की चुनावी जीत में बिहारियों ने मुख्य किरदार अदा किया। फिर 2003, 08, 13 के चुनाव में बिहारियों ने बताया कि दिल्ली की चुनावी राजनीति के वे किंग मेकर बन चुके हैं।

यहाँ ये गौर करने वाली बात है कि जो बिहार छोड़ कर आ रहे थे, लगभग सभी लालू राज से त्रस्त थे या लालू/कॉन्ग्रेस के अलावा उस वक़्त बिहार में कोई प्रभावी विकल्प नहीं होने से निराश थे। हालाँकि रथ यात्राओं के बाद बिहार की चुनावी राजनीति में बीजेपी की हवा बननी शुरू हो गयी थी। बावजूद इसके जो बिहारी उस समय दिल्ली आए उन्होंने कॉन्ग्रेस को ही जाना था। राजीव गाँधी और गाँधी परिवार के प्रति उनकी सहानुभूति भी थी। एक वजह यह भी थी कि अरविंद केजरीवाल और आप (AAP) के उदय से पहले तक दिल्ली में बिहारी कॉन्ग्रेस को लगातार चुनते रहे। वहीं बिहार इसी दौरान धीरे-धीरे भाजपामय होते गया।

फिर बिहारियों के छठ पर लौटते हैं। बिहारी जहाँ गए, अपने साथ अपनी संस्कृति और परंपरा लेकर गए। यथासंभव उसका पालन भी करते रहे हैं। आज भी गिरमिटिया में इसकी छाप दिख जाती है। सामूहिक रूप से मनाया जाने वाला आस्था का महापर्व छठ अब बिहार का ब्रांड बन गया है। भले बिहारी की राजनीति जातिवादी हो, लेकिन छठ एक ऐसा त्योहार है जहाँ जाति का बँधन नहीं रहता। एक घाट पर सभी जाति के व्रती और परिवार वाले अर्घ्य देते हैं। बिहारी जहाँ गए छठ फैलता गया। अब भारत और विश्व के लगभग सभी प्रमुख शहरों में छठ का अर्घ्य देते हुए व्रती आपको दिखेंगे। बिहार में मुस्लिम भी यह व्रत रखते हैं। वह समय दूर नहीं जब भारत और विश्व के सभी समुदाय छठ को आत्मसात कर लें। इसे ग्लैमराइज्ड करने में मीडिया और सोशल मीडिया ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

चढ़ते सूर्य को को तो दुनिया प्रणाम करते आई है। लेकिन सबसे कठिन व्रत में से एक छठ दुनिया का इकलौता पर्व है, जिसमें डूबते सूर्य को भी प्रणाम किया जाता है। छठ की सबसे बड़ी विशेषता है इस त्योहार में शुद्धता, स्वच्छता और पवित्रता का सबसे मुख्य स्थान होना। छठ व्यापार का भी मौका देता है। टूरिज्म सेक्टर से जुड़े बिहारी, छठ टूरिज्म का एक पैकेज बना उन लोगों को बिहार लाकर छठ की छठा दिखा सकते हैं, जिनको इस पर्व को जानने की उत्सुकता हो। वैसे भी बिहार में होने वाले छठ की बराबरी बिहार से बाहर होने वाले छठ में कहाँ!

(लेखक मनीष आनंद 90 के दशक की शुरुआत में दिल्ली में आए थे और यहीं के होकर रह गए। ​फिलहाल बिहार में ‘मिथिला नेचुरल्स’ नाम से एक स्टार्टअप शुरू कर स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर पैदा करने में लगे हैं। यह लेख उनके फेसबुक पोस्ट पर आधारित है।)

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