चांपानेर, गुजरात की प्राचीन राजधानियों में से एक है। यहाँ पावागढ़ नामक एक ऊँची पहाड़ी है जहाँ हिन्दुओं के प्रमुख शक्तिपीठों में से एक माँ काली का प्रसिद्ध मंदिर है। शनिवार को प्रधानमंत्री मोदी ने यहाँ लगभग 500 वर्षों बाद ध्वजा फहराई थी।
मंदिर के मूल शिखर को 15वीं सदी में सुल्तान महमूद बेगड़ा ने ध्वस्त कर दिया था और कुछ ही समय बाद उस शिखर पर सदनशाह की दरगाह बनवा दी गई। तबसे यहाँ ध्वजा नहीं फहराई गई थी। लेकिन कुछ वर्षों पूर्व पावागढ़ मंदिर का पुनर्विकास कार्य प्रारंभ हुआ और दरगाह को स्थानांतरित कर दिया गया। अब एक बार पुनः शिखर से माँ काली की ध्वजा लहरा रही है।
चंपानेर का इतिहास
कहा जाता है चावड़ा वंश के सबसे प्रख्यात राजा वनराज चावड़ा ने माँ काली की छत्रछाया में रहने की इच्छा से यहाँ एक नगर की स्थापना की थी। नगर का नाम उन्होंने उनके परममित्र एवं सेनापति चांपाराज के नाम पर से ‘चांपानेर’ रखा।
यह क्षेत्र लम्बे समय तक राजपूत राजाओं के संरक्षण में रहा और 15 वीं शताब्दी में गुजरात के सबसे मज़हबी सुल्तान ‘महमूद बेगड़ा’ ने इसे नष्ट किया।
‘मुहम्मद मंझू’ जिसने गुजरात के सुल्तानों का इतिहास लिखा वह ‘मिरआते सिकन्दरी’ में लिखता है कि ‘सुल्तान बेगड़ा के समान गुजरात में कोई भी बादशाह नहीं हुआ। उसने चांपानेर का किला और उसके आसपास के स्थान विजय किए और कुफ्र (अल्लाह को नहीं मानने वालों) की प्रथाओं का अंत कर वहाँ इस्लाम की प्रथाएँ चालू कराईं।’
बेगड़ा के लिए चूँकि जिहाद सबसे मुबारक काम था इसलिए चांपानेर उसकी आँखों में बहुत पहले से ही खटक रहा था। ‘मिरआते सिकन्दरी’ के पृष्ठ संख्या 110 पर मंझू लिखता है कि ‘रमज़ान में उसने अहमदाबाद से चांपानेर पर चढ़ाई की और आसपास के स्थानों को नष्ट करने के लिए सेना भेजी। सेना आसपास के स्थानों को नष्ट करके लौट आई। लेकिन वर्षा ऋतू के आ जाने से सुल्तान अहमदाबाद लौट आया और वर्षा ऋतू वहीं व्यतीत की।’
अहमदाबाद लौटने के बाद बेगड़ा रात दिन बस चांपानेर को नष्ट नहीं कर पाने के अफ़सोस में ही रह रहा था। कुछ ही वर्षों बाद सुल्तान के विशेष गुलाम ‘मलिक अहमद’ ने चांपानेर में लूट-मार करना प्रारम्भ कर दिया। लेकिन तत्कालीन चांपानेर के ‘राजा रावल’ ने उससे युद्ध किया और उसे बुरी तरह से पराजित कर दिया।
राजा रावल ने इस्लाम नहीं कबूला
मलिक अहमद की हार से बेगड़ा इतना रुष्ट हुआ कि उसने चांपानेर पर चढ़ाई संकल्प ले लिया। उस समय राजा रावल ने अपनी सेना को सशक्त करने के लिए ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी को चांपानेर आने के लिए आमंत्रित किया।
खिलजी ने राजा रावल की बात मानते हुए तुरंत ही चांपानेर के लिए प्रस्थान किया लेकिन बीच में ही वह दाहोद से वापस लौट गया। लौटने के कारण को लेकर मंझू लिखता है कि ‘खिलजी ने बड़े-बड़े आलिमों और काज़ियों को बुलवा कर राय ली कि उसे चांपानेर के राजा का साथ देना चाहिए या नहीं? तब सभी ने एकमत होकर कहा- “मुसलमान बादशाह(खिलजी) को इस समय काफ़िरों की सहायता नहीं करनी चाहिए।”
इसके बाद राजा रावल और महमूद के सेना के बीच एक भीषण युद्ध हुआ। मंझू लिखता है- ‘काफिर परेशान हो गए और वे परिवार को अग्नि में जला कर युद्ध के लिए कटिबद्ध हो गए।’ (संभवतः स्त्रियों ने बच्चों सहित जौहर कर लिया था।)
युद्ध के बाद रावल को बंदी बना लिया गया और दरबार में उन्हें सुल्तान को अभिवादन करने के लिए कहा गया लेकिन उन्होंने स्वीकार नहीं किया। 5 मास तक उन्हें कैद में रखा गया और एकबार फिर से उन्हें सुल्तान के सामने पेश किया गया। तब सुल्तान ने उनसे इस्लाम कबूलने के लिए कहा लेकिन राजा रावल टस से मस नहीं हुए। अंततः आलिमों और काज़ियों के आदेशानुसार राजा रावल के सिर को कटवा कर सूली पर लटका दिया। राजा रावल के वंश में मात्र दो पुत्रियाँ और एक पुत्र ही बच गए थे। दोनों पुत्रियों को उसने अपने हरम का शिकार बनाया और पुत्र को किसी मुसलमान को पालने के लिए दे दिया।
धर्म की ध्वजा लहरा रही है
मलेच्छों ने जब माँ काली के सनिध्य में चांपानेर को देखा तो वे इस नगर की सुंदरता और वैभव पर इतने मोहित हो गए कि अहमदाबाद को भी भूल गए। सुल्तान ने चांपानेर को अपनी राजधानी बना लिया और वहाँ एक बहुत बड़ा नगर बसा कर उसका नाम ‘मुहमदाबाद’ रखा। मंझू लिखता है- “सुल्तान के अमीर, वज़ीर, व्यापारी तथा बक्काल(सब्जी बेचने वाले) इस बात से सहमत थे कि यह नगर अद्वितीय है और मुहमदाबाद के समान गुजरात में कोई स्वास्थ्यवर्धक स्थान नहीं अपितु संसार में भी कोई ऐसा स्थान न होगा।”
वहाँ के फलों में उन्होंने ऐसे आम देखें जिसके सामने मिश्री की मिठास भी लज्जित हो जाती थी। अनार, अंजिर, अंगूर, बादाम, सेब, नारियल को देखकर वे हक्के-बक्के रह गए। सुगन्धित फूलों की लता, चमेली, चंपा, बेला, मोगरा जैसे फूलों को देखकर वे दरूद(किसी सुन्दर वस्तु को देखकर मुहम्मद और उनकी संतान तथा मित्रों को दी जाने वाली शुभकामना) पढ़ने को आदि हो जाते थे। उस समय चांपानेर में इतने अधिक चन्दन के वृक्ष होते थे कि नगरवालें भवनों के निर्माण में चन्दन ही उपयोग में लेते थे।
1484 में चांपानेर मुस्लिम सुल्तानों के कब्जे में चला गया। उन्होंने पहले माँ काली के मंदिर के शिखर को ध्वस्त किया और कुछ ही समय बाद शिखर पर सदनशाह की दरगाह बनवा दी ताकि हिन्दू कभी ध्वजा न फहरा सकें। लेकिन कहते हैं अधर्म बहुत लम्बे समय तक जीवित नहीं रहता। आज पावागढ़ के शिखर से माँ काली की ध्वजा, धर्म की विजय पताका के रूप में लहरा रही है।