भारतीय संस्कृति के हिसाब से नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को मनाते हैं और इस बार मंगलवार (अप्रैल 13, 2021) से नए हिन्दू नवसंवत्सर 2078 की शुरुआत भी हो रही है। भारतीय काल गणना में ‘विक्रम संवत’ का बड़ा महत्व है और शादी-विवाह से लेकर अन्य शुभ मुहूर्त व पर्व-त्यौहार इसी से तय होते हैं। हिन्दू नववर्ष के साथ ही सारे मांगलिक कार्य आरंभ हो जाएँगे। हिन्दू ग्रंथों में 60 संवत्सरों के हिसाब से हर संवत्सर का नाम तय किया जाता है।
भारतीय कालगणना का विवेचन अनेक ग्रंथों में किया गया है। मय के सूर्यसिद्धांत आदि प्रत्यक्ष ज्योतिष ग्रंथों से लेकर मनुस्मृति जैसे धर्मशास्त्रों तथा भागवत जैसे आख्यान माने जाने वाले पुराणों तक में कालगणना के विज्ञान की विवेचना और विश्लेषण प्राप्त होता है। भारतीय विज्ञान की यह विशेषता है कि वह हमेशा प्रत्यक्ष और प्रकृति से समन्वय बनाकर चलता है। इसलिए काल की गणनाएँ भी इससे ही जुड़ी हुई हैं।
हमारे शास्त्रों में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि ब्रह्मांड में भिन्न-भिन्न लोकों में काल की गति भी भिन्न-भिन्न होती है। आप देखेंगे कि महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन ने भी ‘टाइम एंड स्पेस’ की थ्योरी में यही पाया। यहाँ हम देखेंगे कि पृथ्वी पर हमने काल की कैसी और कितनी सूक्ष्म गणनाएँ की थीं। काल की सबसे छोटी ईकाई भारतीय शास्त्रों में परमाणु की मानी गई है। दो परमाणु के बराबर एक अणु होता है और तीन अणु काल के बराबर एक त्रसरेणु काल होता है।
एक त्रसरेणु काल की माप बताते हुए भारतीय मनीषियों ने लिखा है कि किसी द्वार के सूक्ष्म छेद में से आ रहे सूर्य के प्रकाश में जो कण उड़ते हुए दिखते हैं, उसे ही त्रसरेणु कहते हैं। प्रकाश को इसे पार करने में जितना समय लगता है, उसे ही एक त्रसरेणु काल कहते हैं। तीन त्रसरेणु काल को एक त्रुटि कहा गया है। त्रुटि से काल की गणना को बढ़ाते हुए परार्ध तक ले जाया गया है। इसकी गणनाएँ कुछ इस प्रकार हैं:
1 लघु अक्षर उच्चारण | 1 निमेष |
2 निमेष | 1 त्रुटि |
10 त्रुटि | 1 प्राण |
6 प्राण | 1 विनाडिका |
60 विनाडिका | 1 नाडिका |
60 नाडिका | 1 मुहूर्त |
30 मुहूर्त | 1 अहोरात्र |
श्रीमद्भागवतपुराण में लिखा है कि जिसका और विभाजन नहीं हो सकता तथा जो कार्यरुप में प्राप्त नहीं हुआ है और जिसका अन्य परमाणुओं के साथ संयोग नहीं हुआ है, उसे परमाणु कहते हैं। वर्ष की गणना को आगे बढ़ाते हुए भारतीय मनीषियों ने पूरे ब्रह्मांड की आयु की भी गणना की। उन्होंने सौर वर्ष के बाद दिव्य वर्ष से लेकर परार्ध तक की गणना की है। कलियुग चारों में सबसे छोटा युग है। ये कुछ इस तरह से किया गया:.
कलि युग | 4,32,000 वर्ष |
द्वापर युग | 8,64,000 वर्ष (2 कलि) |
त्रेता युग | 12,96,000 वर्ष (3 कलि) |
कृत युग | 17,28,000 वर्ष (4 कलि) |
1 चतुर्युग = 43,20,000 वर्ष (10 कलि। इसे ही धर्म भी कहा है।) दशलक्षणयुक्त होने के कारण धर्म दश संख्या का भी द्योतक है। इसीलिए सूर्यसिद्धान्त में कहा गया है कि कृत् या सत् युग में धर्म के चार चरण होते हैं, त्रेता में तीन, द्वापर में दो और कलि में केवल एक। उल्लेख मिलता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने पृथ्वी छोड़ते समय माँ गंगा से कहा था कि पहले 10,000 वर्षों के बाद कलियुग में स्थिति एकदम खराब होने लगेगी।
71.42857143 चतुर्युग (x 43,20,000) | = 1 मन्वन्तर (30,85,71,428.5776 वर्ष) |
14 मन्वन्तर (x 30.85.71,428.5776) | = 1 कल्प अर्थात ब्रह्मा का एक दिवस (4,32,00,00,000 वर्ष |
ब्रह्मा के सौ वर्ष | = दो परार्ध (31,10,40,00,00,00,000 वर्ष ) |
अर्थात, 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्ष की एक संपूर्ण प्रक्रिया होती है। ब्रह्मा के इस सौ वर्ष की आयु को दो परार्धों में बाँटा गया है। इसमें से वर्तमान ब्रह्मांड का पहला परार्ध बीत चुका है। भारतीय पंचांग में मासों, सप्ताहों और दिनों का निर्धारण एक वैज्ञानिक प्रक्रिया के तहत किया गया है, ग्रिगोरियन कैलेंडर की तरह किसी मनमाने तरीके से नहीं। सर्वप्रथम वेदों में ही बारह मासों के नाम आते हैं। यानी, भारतीय परंपरा के अनुसार संवत्सर का बारह मासों में विभाजन मानवी कार्य नहीं है।
यह एक प्रकार से पूर्वनिर्धारित नियम है कि पृथ्वी के सूर्य की ओर लगाए गए एक चक्र को कुल बारह भागों में ही बाँटा जाएगा। इसके लिए वेदों में दो स्थानों पर निर्देश प्राप्त होते हैं। भारतीय ज्योतिषियों ने इन मंत्रों के आधार पर ही गणनाएँ कीं। ऋग्वेद में वर्णित है:
दादशारं नहि तज्जराय वर्वर्ति चक्रं परि द्यामृतस्य।
आ पुत्रा अग्ने मिथुनासो अत्र सप्त शतानी विंशतिश्च तस्थुः॥ (ऋग्वेद 1/164/11)
द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उ तच्चिकेत।
तस्मिन्त्साकं त्रिंशता न शङ्कवोऽर्पिताः षष्टिर्न चलाचलास: ॥ (ऋग्वेद 1/164/48)
इन दो मंत्रों में यह स्पष्ट किया गया है कि संवत्सर में बारह प्रविधियाँ हैं। 360 शंकु यानी दिन अथवा 729 जोड़े रात-दिन हैं। यहाँ इसे एक चक्र के रूप में निरूपित किया गया है, जो कि पृथ्वी की सूर्य के चारों ओर की चक्राकार गति तथा काल की चक्रीय होने दोनों का ही प्रतीक है। इससे स्पष्ट है कि संवत्सर यानी एक वर्ष में 360 दिन और बारह मास होने की संकल्पना भारत में एकदम प्रारंभ से ही है। परंतु इस सामान्य आधार को आगे बढ़ाते हुए भारतीय ज्योतिषाचार्यों ने पृथ्वी की गति को जाना और इसके बाद उन्होंने वर्ष की वास्तविक गणना की।
मासों की गणना या निर्माण पृथ्वी की अपनी कक्षा से नहीं की गई, इसका निर्धारण चंद्रमा के पृथ्वी के चारों ओर की कक्षा से किया गया। इसलिए इसे चांद्रमास भी कहते हैं। चंद्रमा का एक मास 30 चंद्र तिथियों का होता है, परंतु वह सौर मास से लगभग आधा दिन छोटा होता है। दोनों मासों में सामंजस्य बैठाने के लिए भारतीय ज्योतिषाचार्यों ने मलमास या अधिमास का विधान किया। अब प्रश्न उठता है, जो आज के ग्रिगोरियन कैलेंडर के सभी समर्थक अधिक जोर-शोर से उठाते भी हैं कि सौर मास की उपस्थिति और उसकी गणना की सरलता के बाद भी चांद्र मासों की गणना क्यों की जाए?
वास्तव में चंद्रमा से मासों का निर्धारण केवल गणना का एक प्रकार मात्र नहीं है, बल्कि इसका वैज्ञानिक आधार भी है। यह आज हमें ठीक से ज्ञात हो चुका है कि चंद्रमा ही पृथ्वी पर वातावरण संबंधी अनेक बदलावों को लाने का कारण है। वेदों में इस सृष्टि को अग्निसोमात्मकं यानी अग्नि तथा सोम से निर्मित तथा संचालित कहा गया है। सूर्य अग्नि है और चंद्रमा सोम है। कृषि में हम इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देख सकते हैं।
चंद्रमा के कारण पौधों की बालियों में रस भरता है, सूर्य के कारण वे पकती हैं। मानव की पूरी सभ्यता आदि काल से कृषि आधारित रही है और चांद्र मास की गणना कृषिकार्य में सहायक है। यही कारण है कि सौर मासों की गणना करने के बाद भी भारतीय आचार्यों ने चांद्रमासों की भी गणना की। ‘विक्रम संवत्’ विश्व का सर्वश्रेष्ठ सौर-चांद्र सामंजस्य वाला संवत् है। आज उस गणना को भुलाने के कारण ही कृषि में इतनी बाधाएँ आ रही हैं।
वैज्ञानिक शोध में पता चला है कि चन्द्रमा का प्रकाश पेड़-पौधों के लिए न सिर्फ सूर्य की किरणों की तरह महत्वपूर्ण है, बल्कि स्टार्च स्टोरेज और उनके प्रयोग पर भी असर डालता है। पेड़-पौधों को इससे जो न्यूट्रिशन मिलता है, वो बायो-इलेक्ट्रिक एक्टिविटी होती है। दिन में फोटोसिंथसिस होता है। प्राकृतिक उपग्रह के बिना पृथ्वी पर जीवन एकदम से बदल जाएगा। पेड़-पौधों में जल के संचार पर भी चन्द्रमा का असर पड़ता है।
भारतीयों ने मासों का नाम यूरोपीयों की तरह मनमाने ढंग से नहीं रखा। वेदों तथा उनके ब्राह्मणों में 12 मासों के नाम दिए गए थे। लेकिन, हमारे ज्योतिषाचार्यों ने सिर्फ उनसे संतोष नहीं किया। वैदिक नामों में भी एक सार्थक मिलती है। उदाहरण के लिए मधु नामक मास में ही वसंत ऋतु होती है। वसंत ऋतु का मादकता से कितना संबंध है, ये छिपा नहीं है। इसी प्रकार अन्या नाम भी सार्थक हैं। परंतु बाद में इन मासों का नाम उन नक्षत्रों के नाम पर रखा गया, जिनसे इनका प्रारंभ होता है।
चित्रा नक्षत्र में प्रारंभ होने वाले मास का नाम चैत्र, विशाखा नक्षत्र में प्रारंभ होने वाले मास का नाम वैशाख… और इसी क्रम में सभी मासों के नाम निर्धारित किए गए। किस मास में कितनी तिथियाँ होंगी, यह चंद्रमा और सूर्य की चाल से निर्धारित किया गया और आज भी किया जाता है, मनमाने ढंग से नहीं। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए भारतीय ज्योतिषाचार्यों ने प्रत्येक अहोरात्र को 24 होराओं में बाँटा और हरेक का नामकरण भी किया।
यहाँ तक कि भारत में सप्ताह के 7 दिन की गणना और नामकरण भी प्राचीन काल से होता आ रहा था। आर्यभट्ट ने तभी सातों दिन के नाम और महत्ता पर प्रकाश डाला था। इसका विश्लेषण बड़े विद्वानों ने भी किया है। “सप्तैते होरेशा: शनैश्चराद्या यथाक्रमं शीघ्रा:| शीघ्रक्रमाच्च्तुर्था भवन्ति सूर्योदयाद् दिनपा:।।” नामक श्लोक इसका साक्ष्य है। इतना ही नहीं, ‘सूर्य सिद्धांत’ में भी इसका जिक्र आता है। संभव है कि बाद में इसे अन्य जगहों पर कॉपी किया गया हो।