रामलला के अयोध्या में विराजने का शुभ मुहूर्त 22 जनवरी, 2024 का निकला है। प्रभु श्री राम को उनके जन्म स्थान में उनकी सही जगह पर देखने के लिए अनगिनत लोगों ने संघर्ष किया। ऐसी ही 96 साल की कारसेवक हैं- शालिनी रामकृष्ण दबीर, जिन्हें अयोध्या से भेजे अक्षत सहित रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा का न्योता मिला है।
रामलला अयोध्या में विराज सकें, इसके लिए जहाँ साधु संतों ने कई कठिन संकल्प लिए तो आम लोगों ने भी कारसेवक बन प्रभु का मंदिर बनवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसके लिए साल 1990 में लाल कृष्ण अडवाणी की अगुवाई में गुजरात के सोमनाथ से रामरथ यात्रा हो शुरू हुई थी जो महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश से होते हुए अयोध्या पहुँची थी।
यात्रा और कारसेवकों का ये सिलसिला 6 दिसंबर, 1992 के बाबरी ढाँचा के विध्वंस तक चलता रहा। इस दौरान कारसेवा का हिस्सा रहीं बुजुर्ग शालिनी बताती हैं कि साल 1990 में जब मुंबई से बाबरी के लिए निकली थीं तो हर जगह लोगों ने उनके साथ बहुत अच्छा बर्ताव किया, लेकिन सरकार और पुलिस ने उनको बहुत सताया।
वो आगे कहती हैं, “बहुत मारा, सबकुछ किया। लेकिन हम बिल्कुल डरे नहीं, हम बोले हम तो अयोध्या जाएँगे ही जाएँगे फिर चाहे आप कुछ भी करो। हमें इलाहबाद के जेल में रखा, लेकिन हम दीवार फाँद के बाहर निकल आए। हम दीवार पर ऊपर थे इसलिए पुलिस हमें नहीं पकड़ पाई थी।”
वो इस उम्र में भी उस वाकए को याद कर जोश से भर उठती हैं और कहतीं है, “मेरे साथ उस वक्त एक साथी शालीन भी थी, जो अब जीवित नहीं है। जेल फाँद के भागने के बाद वो लोग पैदल चलते गए और एकदम अयोध्या पहुँच गए। इस दौरान पुलिस ने बहुत सताया पीछे लगकर, रास्ते से जाने को नहीं देते थे।”
वो कहती हैं- “हम खेतों के बीच से इधर-उधर के रास्तों से गए, लेकिन अयोध्या तो गए।”
बताते चलें कि उम्रदराज शालिनी दबीर 30 अक्टूबर 1990 को अयोध्या पहुँची थीं और बाबरी ढाँचे पर भगवा झंडा फहराने के पल की साक्षी बनीं थीं। तब उत्तर प्रदेश पुलिस ने दादर के महिला कारसेवकों के एक समूह को गिरफ्तार कर उन्हें स्कूल में बंदी बना लिया था। इनमें से कुछ स्थानीय लोगों की मदद से वहाँ से निकल भाग निकले थे। इन कारसेवकों ने करीबन 50 किलोमीटर पैदल चल 31 अक्टूबर 1990 को कारसेवा में हिस्सा लिया था।
उस वक्त कारसेवक शालिनी दबीर ने भी लाठीचार्ज, आँसू गैस और गोलियों के वार झेले थे, लेकिन उनका हौसला नहीं टूटा। वो बताती हैं, उनके करीब से एक गोली उन्हें छूकर निकली थी, लेकिन हनुमान जी ने कारसेवकों को बचा लिया।
शालिनी के मुताबिक उस समय वो 63 साल की थीं, लेकिन राम लला से जो स्थान छीना गया था वो उन्हें बर्दाश्त नहीं था और इसीलिए वो भी अयोध्या के लिए निकल पड़ीं थीं। वो बताती हैं कि उनकी कारसेवा के दौरान गोलियाँ, लाठियाँ चलती रहीं, लेकिन कारसेवक मिलकर भजन गाते रहे थे।
उनके अनुसार, वह दूसरी बार जब 1992 में कारसेवा में गईं तो बहुत अच्छे तरह से पहुँचीं। उस वक्त उन्हें कोई तकलीफ नहीं हुई। उन्होंने वो पल भी याद किया जब ढाँचे की दीवार नहीं गिर रही थी। उन्होंने कहा, “वो पल याद आता है जब वो एक दीवार टूटती ही नहीं थी। हम सुबह से मारुति स्त्रोत बोलते थे, लेकिन कुछ हो नहीं रहा था।”
शालिनी आगे बताती हैं, “क्या करें क्या न करें की स्थिति थी क्योंकि 5 बजे सूर्यास्त हो जाता तो हम कुछ नहीं कर पाते, फिर वहाँ पास के पेड़ से एक वानर आया वो दीवार पर बैठा। हम सब देखने लगे कि क्या बात है ये। वानर ने इधर-उधर सिर घुमाकर देखा और वहाँ से चला गया और फिर धड़ से दीवार गिरी।”
वो आगे कहती है, “इसके बाद दो घंटे तक धूल के गुबार से हमें वहाँ कुछ दिखाई नहीं दिया था। वहाँ के लोगों ने शाम 5 बजे हमसे कहा था आपको कुछ करने की जरूरत नहीं। हम आपको खाना देंगे। हमने उस दिन रात 10 बजे राम, लक्ष्मण, सीता और मारुति की पूजा आरती की थी।”
उन्होंने बताया कि उस दिन रात को पूरी अयोध्या में दिए जलाए गए थे। वो आगे बताती हैं, “एक मुस्लिम आदमी था उम्रदराज था। उसने मेरे मुँह में पेड़ा डाला था। मैं बोली क्यों, तो वो बोला आपका था, आपको मिला। इसमें हमको आनंद हैं। ऐसे भी लोग थे। अच्छे-बुरे दोनों तरह के थे।”
वो कहती हैं, “अयोध्या जाने से पहले ही हम मन बना के गए थे कि इससे ज्यादा क्या होगा हम उधर ही खत्म हो जाएँगे, मैं पूरा परिवार छोड़ के आई थी। तब भी हमें उस माहौल में भी कोई डर नहीं लगा।”
शालिनी खुशी जाहिर कर कहती हैं, “अयोध्या में राममंदिर बन रहा है मुझे इतना आनंद है कि आपको क्या बताऊँ। चलो मोदी के राज में सब अच्छा हो गया। राम जी की प्रतिष्ठा हो गई बहुत अच्छा है। हमको बहुत आनंद है। मंदिर जाऊँगीं, लेकिन पाँव चलते नहीं हैं, लेकिन बाद में जाऊँगी जरूर। ये (अपने बेटे विकास की तरफ इशारा करते हुए) ले जाएगा।”
उस वक्त के दौर को याद कर उनके बेटे विकास कहते हैं, “घर में तब भी हमारे डर का माहौल नहीं था। बस थोड़ी चिंता रहती थी कि क्या होगा। हम लोग राह देखते थे माँ की। सोचते थे जब आएगी तभी समझेगा। नहीं आएगी तो क्या करेंगे। ये तो होना ही है एक दिन।”
दिलीप गोदांबे भी कारसेवा में शालिनी दबीर के साथ रहे। वो कहते हैं कि जो वहाँ अस्पताल बनाने की बात करते हैं उन्हें उस मिट्टी का मूल्य नहीं पता। उन्हें सनातन की महानता का पता नहीं है।