भारत सिद्ध पुरुषों की भूमि रही है। यहाँ एक से बढ़ कर एक संत और योगी हुए हैं। किसी ने अपनी निश्छल भक्ति से लोगों के दिलों में जगह बनाई, तो किसी की चर्चा चमत्कारों के कारण खूब हुई। किसी ने ऐसी रचनाएँ की कि सैकड़ों वर्षों तक लोग उन्हें पढ़ते रहे तो किसी ने योग की ऐसी सिद्धि प्राप्त की कि उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं रहा। इन्हीं में से एक थे त्रैलंग स्वामी, जिन्हें स्वयं रामकृष्ण परमहंस ने ‘काशी के चलते-फिरते शिव’ कहा था। उनके चमत्कारों की चर्चा तब आम थी।
त्रैलंग स्वामी को गणपति सरस्वती के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा काशी में ही गुजारा। आश्चर्यजनक बात ये है कि ये लगभग 280 वर्षों तक जीवित रहे। सन् 1737 से लेकर 1887 तक इन्होंने वाराणसी को अपना निवास स्थान बनाया। इनके पिता का नाम नृसिंह राव तो माता का नाम विद्यावती था। 52 वर्ष की उम्र तक ये अपने माता-पिता की सेवा में ही लगे रहे, उन दोनों के निधन के बाद वो आध्यात्मिक खोज के लिए निकले। स्थानीय श्मशान भूमि में उन्होंने 20 वर्षों की कड़ी साधना की।
वो एक अन्य सिद्ध योगी लाहिड़ी महाशय के परम मित्र बने। दोनों योगियों को कई बार साथ में ध्यान में बैठे देखा गया था। त्रैलंग स्वामी को कई बार धोखे से विष दे दिया गया, लेकिन उन्हें इससे कभी कोई नुकसान नहीं हुआ। वो अक्सर गंगा नदी की बहती धारा पर बैठ कर साधना करते दिखाई देते थे। इतना ही नहीं, त्रैलंग स्वामी कई बार गंगा की धारा के भीतर भी घुस जाते थे और कई दिनों बाद किसी अन्य स्थान पर निकलते थे। भीषण गर्मी में भी मणिकर्णिका घाट की तपती शिलाओं पर बैठ तपस्या करते थे।
ये सब सिर्फ सुनी-सुनाई बातें नहीं हैं, बल्कि लिखित में भी दर्ज हैं। उन्हें कभी-कभी ही लोगों ने भोजन ग्रहण करते देखा होगा, लेकिन उनका शरीर विशाल था और उनका वजन भी बहुत अधिक था। वो प्रायः नग्न ही रहते थे, लेकिन उन्हें अपनी ही नग्नता का आभाष नहीं रहता था। 19वीं सदी की बात है, जब अंग्रेज आ चुके थे। उस दौरान उन्हें नग्न अवस्था में देख कर पुलिस ने जेल में बंद कर दिया। जेल में ताला लगा था, लेकिन त्रैलंग स्वामी को छत पर आराम करते हुए देखा गया।
उन्हें फिर से पकड़ कर जेल में कैद कर दिया गया और पुलिस का पहरा बढ़ा दिया गया, लेकिन इसके बावजूद वो जेल की छत पर टहलते हुए नजर आए। उनके बारे में एक कथा प्रचलित है कि एक बार एक नास्तिक व्यक्ति उनके लिए बाल्टी भर चूना लेकर आ गया और दही बता कर उन्हें पिला दिया। आश्चर्य कि उन्हें कुछ नहीं हुआ, लेकिन वो व्यक्ति ही छटपटाने लगा। वो स्वामीजी से अपनी जान की भीख माँगने लगा। तब त्रैलंग स्वामी ने समझाया कि तुम्हारा जीवन मेरे जीवन से एकाकार है।
उन्होंने बताया कि जैसे अणु-परमाणु में ईश्वर विराजमान है, ऐसे ही उनके भी पेट में है और उन्हें इसका आभास है, इसीलिए उन्हें कुछ नहीं हुआ। उन्होंने उस व्यक्ति को क्षमा कर के आगे से बुरे कर्म न करने की चेतावनी दी। एक बार काशी नरेश की तलवार उन्होंने नदी में फेंक दी थी। जब वो गुस्सा हुए तो उन्होंने नदी से वैसी ही 2 तलवारें निकाल कर पहचानने को कहा कि उनकी कौन सी है। वो नहीं पहचान पाए। तब त्रैलंग स्वामी ने समझाया कि जो तुम्हारा है उसे तुम नहीं पहचान पा रहे, तो जो तुम्हारा नहीं है उसके लिए इतना क्रोध?
इससे पहले वैराग्य और परमात्मा पर चर्चा चल रही थी, ऐसे में त्रैलंग स्वामी ने धिक्कारते हुए कहा कि अब सारा वैराग्य खत्म हो गया? उनकी महिमा ऐसी थी कि स्वयं रामकृष्ण परमहंस ने उनके दर्शन किए थे। सड़क पर ही दोनों गले मिले। शिष्यों से परमहंस ने कहा कि ये काशी के चलते-फिरते शिव हैं, स्वयं विश्वनाथ हैं। बताया जाता है कि सन् 1881 में एक एकादशी के दिन उन्होंने अपने प्राण का त्याग किया था। उन्होंने नेपाल से लेकर कई अन्य स्थानों का भ्रमण किया था। स्वामी विवेकानंद ने भी उनके दर्शन किए थे।
No season could deter him. If he would start gaining fame, he would leave that place immediately. He could sit on water, air and could stand in water for many days. It is believed that he lived for two hundred and eighty years.
— Anshul Pandey (@Anshulspiritual) May 31, 2021
He was born in a south India in
स्वामी विवेकानंद ने त्रैलंग स्वामी को प्रणाम कर के उनकी चरणधूलि अपने माथे से लगाई। आज भी जब आप वाराणसी के पंचगंगा घाट पर जाएँगे तो वहाँ वेणीमाधव मंदिर के पास ही त्रैलंग स्वामी का आश्रम है, जहाँ उनकी प्रतिमा और शिवलिंग स्थापित है। त्रैलंग स्वामी के बारे में एक और खास बात ये है कि वो अधिकतर मौन व्रत में रहा करते थे। रामकृष्ण परमहंस ने उनसे सवाल किया था कि ईश्वर एक है या अनेक? इशारों में ही उन्होंने इस गूढ़ प्रश्न का उत्तर दे दिया था।
उन्होंने समझाया था कि अगर समाधिस्थ होकर देखा जाए तो ईश्वर एक है, लेकिन जब तक मैं-तुम, जीव-जगत और नाना प्रकार के ज्ञान विद्यमान हैं, तब तक वो अनेक हैं। रामकृष्ण की उनमें इतनी श्रद्धा थी कि वो एक बार खीर बना कर ले गए थे और उन्हें अपने हाथों से खिलाया था। अपनी पुस्तक ‘Autobiography of a Yogi‘ में परमहंस योगानंद भी त्रैलंग स्वामी के बारे में लिखते हैं। उन्होंने बताया है कि अगर आज जीसस क्राइस्ट न्यूयॉर्क की सड़कों पर उतर कर अपनी अलौकिक शक्तियों का प्रदर्शन करने घूमें, तो लोगों में वही विस्मय और श्रद्धा का जन्म होगा जो वाराणसी की गलियों में लोगों के मन में त्रैलंग स्वामी के प्रति था।
उन्होंने पुस्तक में एक घटना के बारे में बताया। एक बार उनके मामा ने त्रैलंग स्वामी को लोगों से घिरे बैठे देखा। उन्होंने किसी तरह वहाँ पहुँच कर भक्ति भाव से उनका चरण स्पर्श किया। उन्हें ये देख कर आश्चर्य हुआ कि उनका जीर्ण रोग उसी क्षण समाप्त हो गया था। त्रैलंग स्वामी भूख-प्यास और मान-अपमान से परे हो गए थे। लेखक एवं फोटोग्राफर रॉबर्ट अरनेट ने लिखा है कि त्रैलंग स्वामी के चमत्कारों को किस्से-कहानियाँ कह कर ख़ारिज नहीं किया जा सकता, लोगों ने अपनी आँखों से सब देखा है।
उमाचरण मुखोपाध्याय ने त्रैलंग स्वामी की जीवनी लिखी है, जिनमें उनकी शिक्षाओं के बारे में भी बताया गया है। त्रैलंग स्वामी बंधन को इस दुनिया से जुड़ाव का कारण मानते थे। उनका कहना था कि संसार का पूरी तरह त्याग कर देना ईश्वर में स्वयं को स्थापित कर देना ही मुक्ति है। उन्होंने कहा था कि जब किसी चीज की इच्छा ही नहीं रह जाती है, सारी इच्छाओं का त्याग कर के मनुष्य स्वर्ग का अनुभव करता है। उन्होंने इन्द्रियों को मनुष्य का दुश्मन बताते हुए कहा था कि अगर वो नियंत्रित हैं, तभी आपके मित्र हैं।