भगवान परशुराम का नाम आपने सुना है? उन्हें स्वयं श्रीहरि का अवतार माना जाता है। उन्होंने कई बार इस पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दिया था – ये कथा भी आपने सुनी होगी। भारत की अधिकतर गाथाएँ पूरे देश को एक सूत्र में जोड़ती है। कर्नाटक और केरल के लोगों को भूमि प्रदान करने वाले परशुराम के नाम पर यूपी-बिहार में भी वोटों की राजनीति होती है। कन्नड़ फिल्म ‘कांतारा (Kantara)’ का कनेक्शन भी भगवान परशुराम से है।
हाल ही में एक फिल्म आई है ‘कांतारा’, जो एक कन्नड़ फिल्म है। दक्षिण कन्नड़ जिले के ऋषभ शेट्टी इसके निर्देशक हैं और साथ ही मुख्य अभिनेता भी, जिन्होंने कर्नाटक के गाँवों की संस्कृति को करीब से देखा है और इसी बीच पले-बढ़े भी हैं। ‘कांतारा’ सिर्फ एक फिल्म नहीं, वनवासी समाज की संस्कृति, इतिहास, मिथक और संघर्षों की एक ऐसी दास्ताँ है जो वास्तविकता से मेल खाती है। अध्यात्म को जंगल से जोड़ने वाली कहानी है ये।
‘कांतारा’ की कहानी वनवासियों के जमीनों को सरकार और जमींदारों द्वारा कब्जाने के इर्दगिर्द घूमती है। क्या किसी जंगल क्षेत्र को रिजर्व घोषित करने से पहले सरकारें वहाँ के वनवासी समाज की संस्कृति और परंपराओं को ठेस पहुँचाए बिना उनके लिए वैकल्पिक व्यवस्थाएँ करती हैं? क्या दंबंगों के अत्याचार से वनवासी समाज आज भी मुक्त है? ये वो सवाल हैं, जो इस फिल्म को देखने के बाद उठेंगे। ये भी दिखाया गया है कि कैसे आस्था के मामले में वनवासी समाज से पूरे हिन्दुओं को सीखना चाहिए।
जो लोग दलितों और वनवासियों को हिन्दुओं से अलग देखते हैं या फिर जानबूझ कर अलग करने की कोशिश करते हैं, उनके लिए ये फिल्म एक तमाचा है। इसे देखने के बाद उन्हें पता चलेगा कि कैसे वो वास्तविकता से कोसों दूर हैं। वनवासियों को भगवान विष्णु के वराह अवतार की पूजा करते हुए दिखाया गया है। प्रोपेगंडा चलाने वालों को ये भी समझना चाहिए कि शिव को ‘पशुपति’ कहा गया है। वनवासी समाज की उनमें आस्था के बिना ये शब्द आ ही नहीं सकता है।
भगवान परशुराम, कर्नाटक के जंगल और ‘कांतारा’ फिल्म
तो हमने बात शुरू की थी भगवान परशुराम से। अत्याचारी राजाओं को हराने के लिए एक ब्राह्मण ने न सिर्फ शस्त्र उठाया, बल्कि उन्हें परास्त कर उनकी जमीनें गरीबों को दे दी। यही गरीब ब्राह्मण कालांतर में याचक से जजमान बन गए और कई जमींदार भी हो गए। दक्षिण कन्नड़ जिले में कन्नड़ नहीं, बल्कि तुलू भाषा बोली जाती है। इसीलिए, कई बार तुलू नाडु नाम से अलग राज्य बनाने की माँग भी होती रही है। हालाँकि, इस विवाद में हम नहीं पड़ेंगे।
कहते हैं, भगवान परशुराम ने सह्याद्रि पर्वत (गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल और गोवा में फैली पश्चिमी घाट की पहाड़ियाँ) पर भगवान शिव की तपस्या के लिए चले गए। भगवान शिव ने प्रकार होकर उन्हें कदली वन जाने को कहा और बताया कि वो वहीं अवतार लेने वाले हैं। वहाँ पहुँच कर परशुराम ने समुद्र में समाए इलाकों को पानी से बाहर निकाला और वहाँ लोगों को बसाया। इन्हीं इलाकों को ‘परशुराम सृष्टि’ भी कहा गया।
कर्नाटक में आज भी भगवान परशुराम द्वारा स्थापित 7 मंदिर अति माने जाते हैं – कुक्के सुब्रह्मण्य (नाग मंदिर), उडुपी स्थित श्रीकृष्ण मंदिर, कुंभाषी स्थित विनायक मंदिर, कोटेश्वर स्थित शिव मंदिर, शंकरनारायण मंदिर, मूकाम्बिका मंदिर और गोकर्ण शिव मंदिर। कर्नाटक, केरल और गोवा के तटवर्ती इलाकों को ‘परशुराम क्षेत्र’ भी कहा जाता है। इसी में स्थित तुलू नाडु के जंगलों की कहानी है ‘कांतारा’, जिसमें ‘भूत कोला’ पर्व के इर्दगिर्द कहानी बुनी गई है।
लोक-संस्कृति को दिखाती है ‘कांतारा’, वनवासी हिन्दू नहीं – ऐसा कहने वालों को मिलता है जवाब
इसे ‘दैव कोला’ या फिर ‘नेमा’ भी कहते हैं। इसमें जो मुख्य नर्तक होता है, उसे वराह का चेहरा धारण करना होता है। इसके लिए एक खास मास्क तैयार किया जाता है। वराह के चेहरे वाले इस देवता का नाम ‘पंजूरी’ है। वराह अवतार भगवान विष्णु का तीसरा अवतार था, जब उन्होंने पृथ्वी को प्रलय से बचाया था। जगंली सूअर का वेश धारण कर उन्होंने हिरण्याक्ष का वध किया था। वेदों और पुराणों में भी वराह का जिक्र मिलता है।
कर्नाटक का ‘यक्षगण’ थिएटर भी ‘भूत कोला’ से ही प्रेरित है। इसी से मिलता-जुलता नृत्य मलयालम भाषियों के बीच भी लोकप्रिय है, जिसे ‘थेय्यम’ कहते हैं। अब इसमें भी कई तरह के देवता हैं, जिनकी अलग-अलग वनवासी समाज पूजा करते हैं। इनमें से एक तो ऐसे हैं जिनका चेहरा मर्दों वाला और गर्दन के नीचे का शरीर स्त्री का है। उनके चेहरे पर घनी मूँछ होती है, लेकिन उनके स्तन भी होते हैं। उन्हें ‘जुमड़ी’ कहा जाता है।
ऐसे अनेकों देवता हैं, जिनका अध्ययन करने पर हमें उस खास समाज के इतिहास और संस्कृति के बारे में पता चलता है। हर गाँव में आपको वहाँ अलग-अलग देवता मिल जाएँगे। नर्तकों का मेकअप भी अलग-अलग रीति-रिवाजों की प्रक्रिया के लिए अलग-अलग ही होता है। स्थानीय जमींदार, प्रधान या फिर जन-प्रतिनिधि को ‘भूत कोला’ के दौरान ‘दैव’ के सामने पेश होना पड़ता है, क्योंकि वो उनके प्रति उत्तरदायी होते हैं।
‘कांतारा’ का रीमेक बनाने की सोचे भी नहीं बॉलीवुड
‘कांतारा’ फिल्म देखने के बाद आपको इस संस्कृति के बारे में और जानने-पढ़ने का मन करेगा और अनुभव करने का भी। लेकिन, अब डर ये है कि बॉलीवुड इस फिल्म का रीमेक बना सकता है। दक्षिण भारत की अधिकतर फिल्मों का रीमेक बना कर उसे बर्बाद किया जा चुका है। ‘कंचना’ का ‘राघव’ उसके रीमेक ‘लक्ष्मी बॉम्ब’ में ‘आसिफ’ बन जाता है। ‘कांतारा’ को लेकर बॉलीवुड से एक अनुरोध है – इस फिल्म को छूना भी मत।
ऋषभ शेट्टी ने इसमें जो परफॉर्मेंस दिया है, वो फ़िलहाल बॉलीवुड के किसी भी कलाकार के बूते की नहीं लगती। खासकर क्लाइमैक्स के दृश्यों में उन्होंने जो ‘दैव’ के अवतार में प्रदर्शन किया है, उसे शायद ही कोई मैच कर पाए। बॉलीवुड अगर इसका रीमेक बनाएगा तो इसमें एक ‘अच्छा मुसलमान’ घुसा देगा। भगवान विष्णु के अवतार की स्तुति ‘वराह रूपम दैव वरिष्ठम’ की जगह अजान घुसा दिया जाएगा। ये भी हो सकता है कि क्रूर जमींदार को हिन्दू धर्म में आस्था रखने वाला और वनवासियों को जबरदस्ती गैर-हिन्दू दिखा कर मुस्लिमों के साथ उनका गठबंधन दिखाया जाए।
इसी तरह इस फिल्म में ‘कंबाला’ खेल के बारे में भी दिखाया गया है। इसे भैंसों का एक रेस कह लीजिए। तुलुवा जमींदार इसका आयोजन कराते रहे हैं और जीतने वालों को इनाम मिलता रहा है। इसमें व्यक्ति को भैंसों के साथ एक कींचड़ वाले खेत में रेस लगानी होती है। हर व्यक्ति अपनी-अपनी भैंसे लेकर आता है। इसके भी कई प्रकार हैं। भैंसों को सजाया जाता है। बॉलीवुड संस्कृति और परंपराओं का अपमान करता है, ये सब दिखाना उसके बस की बात नहीं।