‘लैला’ नेटफ्लिक्स पर 14 जून को रिलीज हुआ, हिन्दूफ़ोबिया जैसे नैरेटिव को और मजबूत करने एवं आगे बढ़ाने की एक और लीला ही है। ‘लैला’ प्रयाग अकबर की इसी नाम से लिखी एक नॉवेल से अडॉप्टेड है, जिसे किताब से हटकर ठीक-ठाक घालमेल करते हुए अलग आयाम तक ले गई हैं इस शो की निर्देशिका और क्रिएटिव डायरेक्टर दीपा मेहता। दीपा मेहता ‘वॉटर’ और ‘फायर’ जैसी फिल्मों के कारण पहले से ही अपनी हिन्दू संस्कृति विरोधी विवादस्पद पहचान बना चुकी हैं। इस सीरीज पर और इसमें इस्तेमाल हिन्दूफोबिक अजेंडे पर विस्तार से बात करने से पहले एक छोटी सी यात्रा पर आपको ले चलते हैं कि क्यों ऐसे टीवी शो या वेब सीरीज और फिल्मों की अचानक से बाढ़ आ गई है? कौन-कौन हैं इस पूरे नैरेटिव और सनातन या हिंदुत्व को बदनाम करने वाले महानुभाव? आखिर किसने इनकी दुखती रग पर हाथ नहीं बल्कि लात रख दिया है कि यह पूरा इकोसिस्टम अपनी पूरी ताकत के साथ जी-जान से जुट गया है इस देश, इसकी वास्तविक पहचान और इसकी सांस्कृतिक अस्मिता में पलीता लगाने के लिए…
स्वर्णिम काल: वामी गिरोह के पतन की शुरुआत!
2013 से पहले का समय मानो इस देश का स्वर्णिम काल था! बेशक तब आए-दिन दंगे, मॉब लिंचिंग, भयंकर भ्रष्टाचार, महिला सुरक्षा से लेकर स्वच्छता-सफाई और विकास, चाहे वह इस देश के गरीब आम और खास तबके का हो या फिर नवीन इंफ्रास्ट्रक्चर का – यह सब मुद्दा था ही नहीं। तमाम वामी-कामी बुद्धिजीवी, लुटियंस पत्रकार, ‘निष्पक्ष’ पक्षकार, नेता और छद्म आंदोलनकारी सब की बढ़ियाँ छन रही थी। सब मलाई काट रहे थे। चारों-तरफ आनंद ही आनंद था। लेकिन तभी अचानक से नए-पुराने पाप प्रकट होने लगे, एक के बाद एक घोटाले सामने आने लगे, निर्भया के बलात्कार और निर्मम हत्या ने अचानक से उस बुलबुले को फोड़ दिया जो उस समय तक के मलाई काटने वालों ने बनाया था।
‘हिन्दू आतंकवाद’ से लेकर, राष्ट्रवाद और इस देश की तरक्की के बारे में वास्तविक धरातल पर कुछ सोचना; सबको या तो बेहद बदनाम कर दिया गया था या गाली बना दी गई थी। किसने किया यह सब, आप सबको पता है क्योंकि बाद में उस खेल के सभी किरदार खुल कर बाहर आ गए। जनता को उस माहौल में जो गड़बड़ी थी वो साफ़ नज़र आ गया था। निर्भया के बाद अन्ना आंदोलन ने बहुतों को मुखर कर दिया, देश उनके लिए सर्वोपरि होने लगा। राष्ट्र के प्रतीक विरोध का सिंबल बन गए। कॉन्ग्रेस के हाथ से सत्ता छिटकने की सुगबुगाहट हो चुकी थी। सच में उस समय देश भयंकर पीड़ा में कराह रहा था, ऐसे में दिल्ली में केजरीवाल उभरे (जिन्होंने अपनी बाद की हरकतों से आंदोलन और प्रतिरोध जैसे सशक्त हथियारों की धार को इतना कुंद कर दिया कि अब मात्र ‘आत्म मुग्ध बौना’ होना ही इनकी पहचान रह गई है) तो गुजरात से चले मोदी ने जब ‘कॉन्ग्रेस मुक्त भारत’ का नारा दिया तो उसमें बहुतों को उम्मीद की किरण नज़र आई लेकिन पूरे कॉन्ग्रेसी-वामपंथी इकोसिस्टम ने इसे अपने अस्तित्व पर खतरे के रूप में पहचान लिया और फिर शुरू हुआ ‘दक्षिणपंथी ताकतों’ के उभार के नाम पर ‘काल्पनिक डर’ फ़ैलाने और बेचने का कारोबार और इसमें वो सब लग गए जिनकी आने वाले समय में बैंड बजने वाली थी। चूँकि, वो ‘बुद्धिजीवी’ थे इसलिए वो भलीभाँति समझ गए कि अब उनके लिए ‘अच्छे दिन’ नहीं बल्कि मुश्किल भरे दिन आने वाले हैं।
2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी के नेतृत्व में बीजेपी सत्ता में आई और फिर खेल का दूसरा भाग शुरू हो गया, जहाँ यह पूरा इकोसिस्टम किसी एक व्यक्ति से विरोध और नफ़रत के नाम पर राष्ट्र और इसके सभी प्रतीकों के खिलाफ गाली बनाने में जुट गई, मोदी को हिंदुत्व का प्रतीक मान हिंदुत्व के नाम पर पूरी ‘सनातन संस्कृति’ को बदनाम करने में लग गई। तमाम तरह के गल्प और अपनी उर्वर काल्पनिकता को विभिन्न माध्यमों, चाहे वो किताब हो, टॉक शो, फिल्म या सीरियल के रूप में इस तरह परोसा कि जैसे उनका दिखाया हुआ ‘नकली डर’ वास्तविक हो और जो सामने विकास या तरक्की दिखनी शुरू हुई है वो सब ‘नकली’ है, मात्र एक छलावा। लेकिन पूरे इकोसिस्टम की पहले और बाद की दोनों भविष्यवाणियाँ, सर्वे, आँकड़ो के रूप में गणितीय लफ्फबाजी सब फेल होने लगे, पूरा इकोसिस्टम फेल होने लगा, इनका हर प्रोपेगेंडा फेल होने लगा और ये सिलसिला 2019 के चुनावों तक लगातार चलता रहा। इस बार भी आपने देखा-समझा-जाना कि कैसे इस पूरे नेक्सस ने जो सामने है, उसे नकारकर काल्पनिक डर दिखाकर, जाति-धर्म, विभेदीकरण में खुद लिप्त होकर, आरोप हिंदुत्व या दक्षिण पंथ पर लगाते रहे। लेकिन जनता ने सब कुछ ख़ारिज कर दिया।
उसी समय मई में ही इस शो ‘लैला‘ का ट्रेलर रिलीज हुआ था जिसका ट्विटर से लेकर सोशल मीडिया पर भयंकर विरोध हुआ, शो शायद चुनाव से पहले ही रिलीज होता लेकिन उस समय चुनाव आयोग जिस तरह से बाकी वेब सीरीज पर प्रतिबन्ध लगा रहा था, शायद इसे भी रोक देता। तब इसका रिलीज डेट 14 जून तय किया गया था। विरोध स्वरूप नेटफ्लिक्स के इस शो के ट्रेलर को सबसे ज़्यादा लोगों ने डिसलाइक किया था। ऐसा करके भी लोगों ने इसे चर्चा में ला दिया।
चुनाव परिणाम के बाद: लुटे-पिटे वामी-कामी काम पर लग गए
चुनाव परिणाम में संयोग से इस पूरे नेक्सस के मन का कुछ भी नहीं हुआ अब शायद यह पूरा इकोसिस्टम और आक्रामक होकर हमला करे और ‘लैला’ तो बस एक शुरुआत भर हो। क्योंकि आज भी तमाम संस्थानों और शक्तिशाली जगहों पर इस गिरोह का ही कब्ज़ा है और अब डर बेचकर अपनी दुकान चलाना इनका मुख्य व्यवसाय। आज ‘लैला’ कुछ और नहीं बल्कि उसी काल्पनिक डर का विस्तार है। जो आपको एक बार फिर से क्रिएटिव लिबर्टी और कलात्मकता के नाम पर एक डिस्टोपियन इंडिया ‘आर्यावर्त’ (एक ऐसा काल्पनिक समाज जो बेहद अमानवीय और अराजक है) की रूप रेखा पेश कर डराने और अपनी गौरवशाली सनातन परम्परा और सांस्कृतिक प्रतीकों के साथ तमाम तरह की नकारात्मकता और नफ़रत को शामिल कर एक ऐसी खिचड़ी परोसने की कोशिश है। जिसे आप खाएँगे तो अच्छे स्वास्थ्य या मनोरंजन के नाम पर लेकिन यह धीमी ज़हर के रूप में, आपकी सेहत ख़राब करने वाली है।
आपका दिमाग उन काल्पनिक समस्याओं में उलझ जाने वाला है जिसकी आने वाले समय में संभावना न के बराबर है। क्योंकि यह पूरा गिरोह एक ऐसे समाज और संस्कृति को लगातार बर्बर, अराजक, आक्रामक और अत्याचारी के रूप में परोसने में लगा है, जिसका कभी ऐसा कोई इतिहास ही नहीं रहा, इसलिए बड़ी चालाकी से ऐसे भविष्य की कल्पना कर लगातार डराने की कोशिश की जा रही है। ऐसा करने का एक और खास मकसद जो है वह आतंक, नक्सलवाद या दूसरे समुदाय विशेष या ऐसे कौम की उन वास्तविक समस्याओं से मुँह मोड़ लेना है, जो समस्याएँ वास्तव में न सिर्फ हैं, बल्कि वर्षों से पूरी तीव्रता से समाज का हिस्सा बने हैं, इसे खोखला कर रहे हैं। लेकिन यह इकोसिस्टम अपने फायदे के लिए हमेशा से उसे नकारता रहा या उस पर बात करने से कतराता रहा। क्या इस पर आगे बात होगी? पता नहीं, फ़िलहाल, डिस्टोपिआ क्या है उसकी एक झलक देखें…
अब सीधे-सीधे बात कर लेते हैं नेटफ्लिक्स इंडिया के 14 जून से प्रसारित इस वेब सीरीज ‘लीला’ की। कहने को यह शो प्रयाग अकबर के 2017 में प्रकाशित नॉवेल ‘लैला’ पर आधारित है, जिसमें कथ्य के लिए तथ्य कम लेकिन ‘डर का माहौल है’ वाली नैरेटिव के माध्यम से जो कहने की कोशिश नेटफ्लिक्स, निर्देशक दीपा मेहता, शंकर रमन (गुरगाँव फेम) और पवन कुमार के साथ ही स्क्रीन प्ले राइटर उर्मि जुवेकर ने किया है। इसके मुख्य किरदारों के रूप में हैं हुमा कुरैशी (जो कठुआ काण्ड में पूरे हिन्दू धर्म को दोषी मानते हुए सोनम, स्वरा के साथ प्लाकार्ड गैंग की हिस्सा थीं), सिद्धार्थ (कुछ दिन पहले ही मोदी के प्रति नफ़रत के कारण ट्विटर में छाए हुए थे), राहुल खन्ना, संजय सूरी और आरिफ ज़कारिया। इन किरदारों के माध्यम से पूरे ‘हिन्दू विरोधी नैरेटिव’ को परोसा गया है। इकोसिस्टम द्वारा पहले से ही चली आ रही हिंदुत्व, इसके प्रतीकों और अपने गौरवशाली परम्परा के प्रति नफ़रत और हीनताबोध से भर जाने या भर देने का एक और प्रयास है ‘लैला’।
कहानी आपको ‘2047’ (हाल ही में बीजेपी के 2047 तक सत्ता की बात चर्चा में थी) के डिस्टोपियन भारत “आर्यावर्त” में ले जाती है। सीरीज चूँकि, दिल्ली में शूट हुई है तो आप इसे बड़ी आसानी से पहचान सकते हैं कि इस सीरीज का मकसद किस भारत और किस सत्ता के प्रति डर बैठाना है।
देश या राज्य की बात करें तो वह है ‘आर्यावर्त’, राज्य का नारा है ‘जय आर्यावर्त’ जो हिटलर के नारे से मैच करता है ‘Hail Hitler’ अर्थात जय हिटलर। और मुखिया हैं जोशी जी, जो ‘शुद्धतावादी’ समाज के पक्षधर हैं। जो राज्य में पूजनीय हैं और जनता उनकी भक्त। कहानी आपको एक ऐसे भारत में ले जाती है जहाँ लोगों को जाति-धर्म-संप्रदाय के नाम पर अलग-अलग सेक्टरों में रखा जाता है, भाषा जहाँ संस्कृतनिष्ठ है, प्रदूषण अपने चरम पर है। पीने के पानी के लिए चारों तरफ हाहाकार मचा है। पानी खरीदना, बेचना या बाँटना अपराध है, राज्य की तरफ से कभी-कभी पानी मिलता है। नॉनवेज बैन है। हर तरफ अराजकता का माहौल है, कानून व्यवस्था के नाम कुछ भी नहीं बचा है राज्य में, पत्रकारों को लेबर कैंप में रखा जा रहा है या जान से मार दिया जा रहा है। बुद्धिजीवी-प्रोफेसरों की मॉब लिंचिंग हो रही है। ‘दूश’ अर्थात अछूतों से कोई भी सम्बन्ध रखना मना है। महिलाओं पर अमानवीय अत्याचार हो रहे हैं। चाइल्ड लेबर खूब हो रहा है, मिक्स्ड बच्चों को पिजरों में कैद कर रखा जा रहा है। शिक्षा के नाम पर भक्त बनाकर राज्य उनका ब्रेन वाश कर रहा है। एक तरफ घेटोज और स्लम्स की भरमार है अर्थात गरीबी बहुत ज़्यादा है तो दूसरी तरह अमीर वर्ग बेहद सुविधा संपन्न है जो आर्यावर्त का हिस्सा है।
ऐसे में एक हिन्दू लड़की शालिनी पाठक (हुमा कुरैशी) मुस्लिम लड़का रिजवान (राहुल खन्ना) से निकाह कर लेती हैं। चूँकि, दोनों में प्यार है और उनका परिवार उस अराजक और अत्यधिक प्रदूषित माहौल में भी आलीशान और बेहद ऐसो-आराम की ज़िन्दगी जी रहा है। जहाँ एक तरफ पीने का पानी नहीं है वहीं यह परिवार चोरी से टैंकर माफियाओं से राज्य का पानी खरीद कर स्वीमिंग पूल जैसी लग्जरी अफोर्ड कर पा रहा है। बेटी ‘लैला’ अपने पापा रिजवान के साथ स्वीमिंग पूल में नहा रही है तभी आर्यावर्त राज्य का एक सिपाही डॉ राकेश (जिसका काम मिक्स बच्चों को मार देना या उन्हें बेच देना है, वह जोशी का एक सिपाही है) वहाँ आता है और सब कुछ तहस-नहस हो जाता है। बेटी ‘अशुद्ध’ क्योंकि हिन्दू-मुस्लिम के मिक्स्ड ब्लड की है, होने के कारण गायब कर दी जाती है, रिजवान को हिंदूवादी ताकतें भीड़ की शक्ल में जान से मार देती है और शालिनी को शुद्धिकरण कैंप ‘श्रम केंद्र’ भेज दिया जाता है। जहाँ की सुरक्षा और व्यवस्था की कमान ‘हिजड़ों’ के हाथ में है।
यहाँ उसे बेहद नारकीय जीवन से गुजरना पड़ता है। न जाने कितनी माँओं से उनकी अशुद्ध बच्चों को अलग कर दिया गया है। शालिनी इसी कैंप में रहते हुए अपनी बेटी की तलाश में निकलती है, उसकी पूरी कोशिश अपनी बेटी ‘लैला’ तक पहुँचने की जद्दोजहद है और इसी के इर्द-गिर्द बुनी गई है डिस्टोपियन इंडिया ‘आर्यावर्त’ की कहानी। इस कैंप में दिन-रात एक धुन बजती है…
मेरा जन्म ही मेरा कर्म है…
मेरा सौभाग्य है कि मैंने इस धरती पर जन्म लिया।
आर्यावर्त के लिए जान देना और जान लेना मेरा कर्तव्य है।
भले ही वो जान मेरे बच्चे की क्यों न हो!
इसके माध्यम से यह दिखाने का प्रयास है कि यदि हिंदुत्ववादी ताकतें सत्ता पर इसी तरह हावीं रहीं तो यह देश खासतौर से मुस्लिमों और अन्य समुदायों के लिए रहने लायक नहीं होगा, अछूत पर होगा भयंकर अत्याचार, जिसे इस सीरीज में ‘दूश’ के रूप में दिखाया गया है। कहने का मतलब, सब कुछ निकट भविष्य में बेहद ख़राब होने जा रहा है। पूरा ताना बाना इस तरह बुना गया है जिससे आप पिछले कुछ सालों में हुई छिटपुट घटनाक्रमों के माध्यम से खुद को कोरिलेट करते हुए उस डर की दुनिया से खुद को इस तरह से जोड़ लें जिस तरह से इकोसिस्टम आपको दिखाना और डराना चाहता है। बड़ी चालाकी से इसमें उम्मीद की किरण भी है और वो हैं ‘विद्रोही’ (एक तरह से आतंकी या वामपंथी नक्सली कह लें) जो जोशी जी को मारने के लिए नरसंहार के लिए भी तैयार हैं। एक और ट्वीस्ट है इसमें, आर्यावर्त में भी ‘संघ’ की तर्ज पर एक और सत्ता का केंद्र दिखाया गया है और इनके बीच थोड़ा सा मनमुटाव भी, जिसके मुखिया हैं मोहन राव।
खैर, इस तरह की हरकतें न वामपंथियों के लिए नई हैं और न भारत विरोधी पूंजीवादी ताकतों के लिए, जिनके बीच बाहर भले खटपट दिखे लेकिन अंदर साँठ-गाँठ तगड़ी होती है। और इसी गठजोड़ का नतीजा है, पिछले काफी समय से ऐसे कई सीरीज का नेटफ्लिक्स पर रिलीज होना। नेटफ्लिक्स ने कई बार हिन्दू भावनाओं से खिलवाड़ किया है। हिन्दुओं की छवि और उनके प्रतीकों को नकारात्मक तरीके से पेश किया गया है। नेटफ्लिक्स और पूरे इकोसिस्टम की लगातार प्रवृत्ति रही है – एंटी हिन्दू नैरेटिव को स्थापित करने की। ‘Ghoul’ और ‘Sacred Games’ के बाद ‘लैला’ के संयुक्त रूप में यह उनका तीसरा प्रयास है। कहने को ‘लैला’ भविष्य की काल्पनिक कहानी है पर इस सीरीज में इस्तेमाल हुए प्रतीकों, विज़ुअल्स, शब्दावली आदि से इस गिरोह की मानसिकता साफ पता चलती है और रही सही कसर गिरोह के तमाम फिल्म समीक्षकों ने पूरी कर दी। रिव्यु में बिलकुल साफ़ कर दिया गया है कि जो इस दौर में चल रहा है, इसका भविष्य यही है।
अब आते हैं असली मुद्दे पर, यह सब जो भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और क्रिएटिव लिबर्टी के नाम पर हो रहा है, उस पर। जिस तरह से हिन्दुओं की भावनाओं से खिलवाड़ किया जा रहा है, उसकी वजह क्या है? जिस तरह से काल्पनिक डर का माहौल और ‘डरे हुए मुस्लिम’ की छवि को बार-बार परोसा जा रहा है – बात इस पर करते हैं। इसके पीछे के एजेंडा को समझना इतना मुश्किल नहीं है। बाजार बेशक एक ताकत के रूप में यहाँ मौजूद है लेकिन इस बाजार के ग्राहक कौन हैं? किसके दम पर नेटफ्लिक्स जैसी ताकतें भारत या आने वाले भारत की ऐसी नकारात्मक छवि को इस तरह से पेश कर पा रही हैं?
क्या इसकी सबसे बड़ी वजह हमारी सहिष्णुता नहीं है। हम सब-कुछ देख सुन कर भी मौन रहते हैं। कभी उतनी सशक्तता से एकजुट हो अपना विरोध भी नहीं जता पाते कि नेटफ्लिक्स और इनके पीछे छिपी राष्ट्र विरोधी ताकतों का हौसला पस्त हो। इसी नेटफ्लिक्स को सऊदी अरब सहित कई देशों से वहाँ के विरोध में बनाए गए कई शो को वेबसाइट से हटाना पड़ा। वहाँ की सरकारों ने सीधे इसे बैन कर दिया लेकिन अगर यहाँ की सरकार ऐसा कोई कदम उठाए तो यह पूरा कॉन्ग्रेसी, वामपंथी, अर्बन नक्सल गिरोह एक्शन में आ जाएगा। इनके गिरोह का ही कोई सुप्रीम कोर्ट जाएगा और अभिव्यक्ति के नाम पर अपने पक्ष में फैसला ले आएगा।
तो, इस तरह के प्रोपेगेंडा को काटने का या इनको ऐसा करने से रोकने का कारगर उपाय क्या हो सकता है? सबसे आसान उपाय है दर्शक जिन्हें राष्ट्र और वहाँ के लोगों की उन्नति प्यारी हो वो अपने स्तर पर ऐसे शो का पूरी तरह बहिष्कार करें। दो-चार बार भी ऐसा हो गया तो कितना भी बड़ा पूँजीपति हो ऐसे गिरोहों और ऐसे हिदुत्व विरोधी कंटेंट में पैसा लगाने से कतराएगा। याद रखिए, यह बड़ी लड़ाई का हिस्सा है, देश के टुकड़े करने का इनका सपना मरा नहीं है। बस कहीं दुबका पड़ा है। ये हर माध्यम से देश के बच्चों और युवाओं में काल्पनिक डर, दहशत और झूठ का ज़हर बो रहे हैं ताकि एक दिन ये इस देश की चिता पर जश्न मना सकें, अट्टहास कर सकें।
इनके हर झूठ को बेनकाब कीजिए, इन्हें पढ़िए, तर्कों से घेरिए, इनसे सवाल पर सवाल कीजिए, इनके हर नैरेटिव की लंका लगा दीजिए। इनसे पूछिए कि क्यों ऐसे स्टोरी-टेलर और पूँजीपति हलाला, तलाक या आतंकवाद या समुदाय विशेष पर खुलकर कुछ नहीं कह पा रहे, कुछ बना नहीं पा रहे? यहाँ तो काल्पनिक डर का माहौल दिखा रहे हैं वहाँ तो सब कुछ सामने है। है हिम्मत, नक्सल आतंकवाद, अलगाववाद पर कुछ बोलने, लिखने या दिखाने की। यह दुबक के पतली गली से निकल लेंगे या आपको भक्त, वॉर मोंगर, गंगा-यमुनी तहज़ीब के खिलाफ अनेक विशेषणों से नामाजेंगे तब समझ जाइएगा, तीर निशाने पर लगी है। कभी अगर ऐसे विषयों पर फ़िल्में बनती भी है तो ज़रा ध्यान से देखिए कैसे बड़ी चालाकी से उसमें भी वो अपना नैरेटिव सेट कर जाते हैं और आपको पता भी नहीं चलता।
चलते-चलते ‘लैला’ में बड़ी आसानी से क्रिएटिव लिबर्टी लेते हुए पूरे कथानक को ऐसे प्रदर्शित किया गया है जिससे ज़्यादा से ज़्यादा ख़राब तरीके से हिंदुत्व की छवि को बिगाड़ा जा सके। ‘आर्यावर्त’ से मुस्लिम समुदाय का लगभग सफाया हो चुका है। जो बचे हैं उन्हें स्काईडोम अर्थात गगनचुम्बी तकनीकी दीवारें बनाकर बिलकुल अलग-थलग कर दिया है। नृत्य, गीत, संगीत, पोएट्री, पेंटिंग सब पर बैन लग चुका है आर्यावर्त में, बस 2047 में भी ज़िंदा हैं तो फैज अहमद फैज़ और उनकी सत्ता विरोधी पोएट्री। ऐसा दिखाकर बड़ी आसानी से वो सब परोस दिया गया जिसका डर ये पिछले पाँच साल से दिखाते आ रहे हैं।