इस साल के सफलतम फिल्मों में से एक एसएस राजामौली द्वारा निर्देशित साउथ की फिल्म राईज रोअर रिवॉल्ट (RRR) 25 मार्च को रिलीज हो गई और जबरदस्त कमाई कर रही है। फिल्म में राम चरण (Ram Charan) और जूनियर एनटीआर (Jr NTR) ने प्रमुख भूमिका निभाई है। कहा जाता है कि यह फिल्म रियल लाइफ के दो हीरो पर आधारित, जिन्होंने ब्रिटिश हुकुमत के दौरान अंग्रेजों के नाको-चने चबवा दिए थे।
निर्देशक राजामौली का कहना है कि प्रसिद्ध क्रांतिकारी अल्लूरी सीताराम राजू और कोमाराम भीम की जिंदगी पर आधारित इस फिल्म को फिक्शनल रूप दिया गया है। उनका कहना है कि इन क्रांतिकारियों के जीवन के बारे में बहुत अधिक ज्ञात नहीं है, लेकिन इस काल्पनिक कहानी के जरिए ये दिखाने का प्रयास किया गया है कि उनके जीवन में क्या हुआ था और अगर दोनों एक साथ मिल गए होते तो क्या होता।
अल्लूरी सीताराम राजू और कोमाराम भीम ने उन क्षेत्रों में आदिवासियों के वन अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी थी, जो अब आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के अंतर्गत आते हैं। कहा जाता है कि 1882 में भारत की ब्रिटिश सरकार ने मद्रास फॉरेस्ट एक्ट पास कर स्थानीय आदिवासियों को जंगल में जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसी लेकर दोनों ने अपने-अपने समय में आदिवासियों की लड़ाई लड़ी। आइए जानते हैं, कौन थे अल्लूरी सीताराम राजू और कोमाराम भीम।
अल्लूरी सीताराम राजू
सीताराम राजू का जन्म 1897 में विशाखापटनम में हुआ था। राजू ने बेहद छोटी उम्र में जीवन के मोह-माया को त्यागकर आध्यात्म का रास्ता अपना लिया था। उन्होंने देश के कई बड़े धार्मिक स्थानों की यात्रा की। राजू महात्मा गाँधी के विचारों से काफी प्रभावित थे और अंग्रेजों के जुल्म के खिलाफ उठ खड़े हुए थे।
वह आदिवासियों को शराब छोड़ने के लिए प्रेरित करते थे और आपसी झगड़े को किसी तीसरे पक्ष के पास ले जाने के बजाय आपस में ही मिलकर हल करने की सलाह देते थे। सीताराम राजू पर अंग्रेजों ने खूब जुल्म किए, लेकिन कभी घुटने नहीं टेके। उन्हें 1922 से 1924 तक चले राम्पा विद्रोह के नेतृत्वकर्ता के रूप में याद किया जाता है। साल 1924 में अंग्रेजों ने सीताराम राजू को एक पेड़ से बाँध दिया और उन्हें गोलियों के भून दिया।
कोमाराम भीम
कोमाराम भीम का जन्म 1900 ईस्वी में आदिलाबाद के संकेपल्ली में हुआ था। वह गोंड समाज से ताल्लुक रखते थे और अंग्रेजों तथा हैदराबाद के निजाम के अत्याचारों के खिलाफ उठ खड़े हुए थे। उन्होंने आदिवासियों के साथ मिलकर हैदराबाद की आजादी के लिए विद्रोह का बिगूल फूँक दिया था। कोमाराम गोरिल्ला युद्ध में माहिर थे और आदिवासियों के मसीहा के रूप में जाने जाते थे।
कहा जाता है कि एक बार फसल की कटाई के दौरान निजाम के पटवारी लक्ष्मण राव और पट्टेदार सिद्दीकी ने आकर गोंड लोगों से टैक्स भरने को कहा और गाली-गलौज करने लगे। इसके बाद कोमाराम के हाथों सिद्दीकी की हत्या हो गई और वे जान बचाने के लिए भाग गए।
उन्होंने अंग्रेज़ी-हिंदी-उर्दू लिखना सीखा और प्रेस में काम किया। उसके बाद असम के चाय बगानों में काम करने लगे। वहाँ उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ मजदूरों के लिए आवाज़ उठाई और जेल में डाल दिए गए। उसके बाद आदिवासियों को इकट्ठा कर निजाम के खिलाफ 1928 से लेकर 1940 तक गुरिल्ला युद्ध करते रहे। अंत में निजाम के सैनिकों के साथ युद्ध में वह वीरगति को प्राप्त हो गए।