दिवाली का मतलब है ख़ुशियाँ, चारों तरफ रौनक। लेकिन क्या आप जानते हैं जम्मू कश्मीर के राजौरी की दीवाली से जुड़ी ऐसी यादें हैं, जिन्हे याद कर राजौरी के लोग आज भी सिहर उठते है। 11 नवंबर, 1947 को देश में दिवाली मनाई जा रही थी, उस समय राजौरी कबाइलियों की दहशत में जल रहा था। तीस हजार से अधिक लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। कई महिलाओं ने बेटियों के साथ जहर खा लिया तो कुछ ने कुएँ में छलाँग लगा दी।
7 नवंबर को पाकिस्तानी सेना ने दीवाली के दिन राजौरी शहर पर हमला बोला। सभी लोग राजौरी में तहसील भवन में जमा हो गए थे। जब पाकिस्तानी सेना ने हमला किया तो तहसील भवन के आस पास लोग निहत्थे थे। लेकिन पाकिस्तानी सेना ने राजौरी में इन निहत्थे लोगों के साथ ऐसी मारकाट मचाई कि शहर की गलियाँ लाल हो गई।
पूरे शहर को कट्टरपंथियों की भीड़ ने घेर लिया, हिन्दू घरों को लूटा, महिलाओं का बलात्कार किया या उन्हें अगवा कर लिया गया। राजौरी में रहने वाले लगभग 30 हजार हिंदू और सिखों की या तो हत्या कर दी गई या बुरी तरह घायल कर दिया गया।
पाकिस्तान में जितने भी हिन्दू परिवार थे, उनको बुरी तरह से काटा जाने लगा। माँ-बहनों की इज्जत को सरेआम बेआबरू किया जाने लगा और पाकिस्तान में जिन हिन्दुओं की निर्मम हत्या की गई, उनके शवों को ट्रेनों में लादकर भारत भेजा जाने लगा। उसके बाद भारत में भी इसका प्रतिकार किया गया।
इस दौरान देश को अपनी माँ की भाँति प्यार करने वाले कई संगठन इस हिंसा से देश के लोगों को बचानें में लगे, जिनमें ऐ एक थे राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय, स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री माधव सदाशिव राव गोलवलकर। उन्होंने संघ के शिक्षा बीच में ही छोड़ कर लोगो की सहायता करने की बात कही।
बस फिर क्या था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने इस सूचना को सुनते ही दिन देखा न रात देखी, बस लग गए लोगों की सहायता के लिए। इस बँटवारे के दौरान संघ के काफी कार्यकर्ताओं ने समाज की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहूतियाँ देकर भी समाज की रक्षा की।
27 अक्टूबर 1947 से लेकर 12 अप्रैल 1948 तक कबाइलियों का राजौरी पर कब्जा रहा। ये कबाइली कश्मीर से खदेड़े जाने के बाद राजौरी घुस आए। 13 अप्रैल, 1948 का सूरज ख़ुशियाँ लेकर आया जब भारतीय सेना ने राजौरी को कबाइलियों से मुक्त करा लिया।
भारत जब स्वतंत्र हुआ तब देश में छोटी-बड़ी 565 रियासतें थीं। जम्मू-कश्मीर भी उन 565 में से एक रियासत थी और महाराजा हरि सिंह उसके शासक थे। इन सभी रियासतों को भारत में विलीन कराने का श्रेय प्रथम गृहमंत्री लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल को ही जाता है। जूनागढ़, हैदराबाद, भोपाल जैसे पेचीदा मसले भी सरदार पटेल ने बड़ी कुशलता से और जरुरत पड़ने पर बल प्रयोग कर सुलझाए थे। जम्मू-कश्मीर का मसला भी वे बड़ी आसानी से सुलझा सकते थे। पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस मसले को अपने हाथों में ले लिया और हमेशा के लिए भारत के लिए एक सिरदर्द बना कर छोड़ दिया।
नेहरू को कश्मीर के नेता शेख अब्दुल्ला से बहुत अधिक स्नेह था और अब्दुल्ला के हाथ में राज्य की कमान सौंपने की योजना नेहरू की ही थी। नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के प्रति स्नेह के चलते कश्मीर मसले को सरदार पटेल से छीना और उसे सुलझाने के बजाय और भी पेचीदा बना दिया। महाराजा हरि सिंह को नेहरू की इस मंशा का पता चल गया था, इसलिए वे उनके रहते भारत के साथ विलय को लेकर चिंतित थे।
इधर पाकिस्तान सरकार जिन्ना के नेतृत्व में महाराजा पर दबाव बना रही थी, ताकि वे उनके राज्य को पाकिस्तान के साथ मिला दे। पर महाराजा उसके लिए भी तैयार नहीं थे, क्योंकि उनको राज्य के हिन्दू प्रजा की चिंता थी ।
पाकिस्तान ने युद्ध का सहारा लेकर कबाइलियों को कश्मीर पर आक्रमण करने के लिए उकसाना शुरू कर दिया। अब महाराजा खुद को बड़ी मुश्किल में फँसा हुआ पा रहे थे। ऐसे नाजुक दौर में महाराजा की सहायता के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सामने आया और महाराज को यह समझाने का सफल प्रयास किया कि भारत के साथ राज्य का विलय करने में भी उनकी और राज्य की जनता की भलाई है।
राज्य की स्थिति बेहद नाजुक हो चुकी थी। सरदार पटेल और महात्मा गाँधी ने भी महाराजा को मनाने का प्रयास किया, पर महाराजा नेहरू की अधिसत्ता को मानने के लिए तैयार नहीं थे। ऐसी स्थिति में गृह मंत्री सरदार पटेल ने राज्य के प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर, जिनको श्री गुरुजी भी कहा जाता था, को सन्देश भेजा कि वे महाराजा को भारत में विलय के लिए मनाने का प्रयास करें।
श्री गुरुजी ने, बिना किसी विलम्ब के सरदार का प्रस्ताव स्वीकार किया और अपने सारे कार्यक्रम रद्द कर, वे नागपुर से दिल्ली होते हुए सीधे श्रीनगर पहुँचे। मेहरचंद महाजन और पंडित प्रेमनाथ डोगरा जी के मध्यस्थता से श्री गुरुजी और महाराजा हरि सिंह के बीच बैठक तय हो गई।
26 अक्टूबर 1947 को, महाराजा हरि सिंह ने भारत के साथ विलय के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर दिए और इस प्रकार जम्मू-कश्मीर की रियासत भी सम्पूर्ण रूप से भारत का एक अभिन्न हिस्सा बन गई। महाराजा हरि सिंह को मनाने में संघ के सरसंघचालक श्री गुरूजी ने इस प्रकार बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इसके बाद संघ के स्वयंसेवकों ने श्रीनगर के हवाई अड्डे की रात-रात में मरम्मत कर भारतीय सेना के उतरने की व्यवस्था की, अपनी जान पर खेलकर संघ के निडर स्वयंसेवकों ने दुश्मन की सीमा में गिरे गोला-बारूद के बक्से उठाकर अपनी सेना के शिविर में पहुँचाए। जो लोग संघ पर आए दिन उंगलियाँ उठाते हैं, वे जान लें कि संघ के कारण ही जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा बना है। संघ के स्वयंसेवकों ने जो बलिदान दिए उसके कारण पाकिस्तान के जम्मू-कश्मीर को जीतने के मनसूबे कामयाब नहीं हो सके।