आज ही के दिन जन्मे भगत सिंह महज़ 23 वर्ष की उम्र में फाँसी पर चढ़ा दिए गए- इस लेख को इस वाक्य के साथ ही खत्म किया जा सकता है। 23 की उम्र दुनिया को देखने, समझने और उसके बारे में सारे निष्कर्ष सही-सही निकाल लेने के लिए काफ़ी नहीं होती। भगत सिंह जैसे ज़ाहिर तौर पर प्रखर बुद्धि, जिज्ञासु और सदैव-शंकालु युवक के लिए भी नहीं। 23 वर्ष की उम्र में बेशक जो साहस उन्होंने दिखाया, वह बिरले ही दिखा पाते हैं- पूरी उम्र जीने के बाद भी जब मौत का क्षण आता है, तो शायद ही ऐसा कोई हो जिसके पैर न काँप जाते हों, जो भगवान से गिड़गिड़ा कर कर कुछ और पलों की भीख न माँगे। उस उम्र में शांतिपूर्वक टहलते हुए फाँसी के फंदे तक चले जाना, और उसके पहले उसके बारे में लिख तक देना यकीनन कोई ‘आम’ इंसान नहीं कर सकता।
लेकिन खास इंसान भी हमेशा, हर चीज़ में खास कहाँ होते हैं? खामियाँ सबमें होतीं हैं, सबमें कुछ-न-कुछ कमज़ोरियाँ, कुछ कसर रह ही जाती है। और भगत सिंह ने खुद अपनी मौत के महज़ कुछ वक्त पहले लिखे गए निबंध ‘Why I Am an Atheist’ में लिखा है कि इंसानी खामियों से वे ऊपर नहीं उठ पाए हैं।
तो ऐसे में कितना सही होगा कि 40-50-60-70 साल के कुटिल, पैंतरेबाज़ राजनीतिज्ञ एक 23 साल के लड़के के कंधे पर रख के अपनी विचारधारा की बंदूक चलाएँ, जिसे इस देश के दुर्भाग्य से न ही अपने विचारों को परिपक्व करने के लिए ठीक से दुनिया के अध्ययन का समय मिल पाया, न ही जो कुछ पढ़ने या लिखने का समय मिला भी, उसके आईने में दुनिया को देखने का- कि क्या ‘लाल’ दुनिया सच में उतनी रूमानी है जितना प्रेस बता रही थी, या ‘भगवा’ उतना ही बुरा, रूढ़िवादी है, जितना बताया गया? कितना सही होगा चाहे राष्ट्रवादियों द्वारा भगत सिंह को अपनी राजनीतिक परम्परा का राष्ट्रवादी बता देना, या उन राष्ट्रवादियों के वामपंथी विरोधियों द्वारा यह दावा करना कि “अगर भगत सिंह होते तो हमारे साथ मोदी से लड़ते”?
क्या उन्होंने स्टालिन का हत्याकांड देखा था?
इसमें कोई दोराय नहीं कि भगत सिंह मार्क्सवाद से बहुत ज़्यादा प्रभावित थे। वे न केवल समाजवाद के आर्थिक पुनर्वितरण आदर्श को दुनिया की सभी समस्याओं का अंत मानते थे, बल्कि भगवान तक को चुनौती देते थे कि अगर वह सही में अस्तित्व में है, तो क्यों नहीं आकर इस “अच्छे विचार को लागू करने में आने वाली संभावित व्यवहारिक परेशानियों” को दूर कर देता।
लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि हर व्यक्ति अपने समय का, अपने कालखंड का ‘उत्पाद’ होता है- उस समय की दुनिया में, 1920-30 के दशक में मार्क्सवाद पर आधारित लेनिन की रूसी क्रांति की ही ‘हवा’ थी। न उस समय तक दुनिया के कानों में लेनिन और उसके उत्तराधिकारी स्टालिन के करोड़ों को लीलने वाले हत्याकांडों की खबर पहुँची थी, न ही Alexander Solzhenitsyn की Gulag Archipalego, जॉर्ज ऑरवेल की Animal Farm जैसी किताबें आईं थीं, जिन्होंने व्यवहारिक ही नहीं, वैचारिक स्तर पर भी कम्युनिस्ट विचार और मार्क्सवाद की सोच के मूल में ही निहित समस्याओं को उजागर किया था।
अगर मैं यह दावा करूँ कि इन किताबों को पढ़कर, या देश-बर-देश कम्युनिस्ट प्रोजेक्ट को लाशों के ढेर पर खड़े खोखले आदर्श व “एक और मौका दे दो किसी और जगह पर, इस बार सच में सच्चा साम्यवाद होगा!” के नारे से उनका मोहभंग हो ही जाता। ऐसा दावा केवल वामपंथियों की तरह “वे मोदी के दुश्मन होते”, “anti-national कहलाए जाते” सरीखा झूठा दावा और उनके साथ अन्याय होगा। हो सकता है वे न भी बदलते- लेकिन इस संभावना को नकारा भी नहीं जा सकता। सीताराम गोयल भी शुरू में मार्क्सिस्ट थे, लेकिन बाद में वे संघ से जा जुड़े।
हिन्दू धर्म को लेकर उनके विचार
हिन्दुओं के धर्म और आस्था को लेकर भगत सिंह के विचार, एक बार फिर, एक महज़ 23 साल के नवयुवक के विचार थे। इस उम्र में जोश और साहस भरपूर होता है, जिसका भगत सिंह द्वारा प्रदर्शन निस्संदेह अद्वितीय था, लेकिन काले और सफ़ेद के बीच के सौ रंगों को देखने का धैर्य, सूक्ष्म अंतरों (nuances) को समझने की स्थिरता अमूमन इस उम्र में नहीं आती- और भगत सिंह के उपर्युक्त चर्चित निबंध में अधीरता का भाव साफ़ दिखता है। इससे न ही भगत सिंह के जीवित रहने की स्थिति में भी उनके हिन्दू धर्म के प्रति उनके विचारों के कभी न बदल पाने की कोई डिक्री हो जाती है, न ही वह हिन्दू धर्म पर कोई अंतिम फ़ैसला बन जाते हैं।
साथ ही यह भी नहीं भूला जा सकता कि उनके समय में आर्य-समाजी आंदोलन ज़ोरों पर था, जिसके अनुसार केवल वेद-पाठ, और वेदों में लिखी बातों की आर्य-समाजी व्याख्या, ही इकलौता और असली हिंदुत्व थे, बाकी सब गलत। और भगत सिंह आर्य-समाजी परिवार में ही पले-बढ़े थे। ज़ाहिर तौर पर हिन्दुओं की हज़ारों धार्मिक धाराएँ और शाखाएँ, उनमें सूक्ष्म लेकिन दृढ़ अंतर, उनसे जुड़े कर्मकांड और उनके पुराण उन्हें बेकार तो वैसे ही लगने थे- चाहे वे नास्तिक बनते या न बनते।
लेकिन भगत सिंह की मृत्यु के बाद आर्य-समाज के बाहर के हिन्दू धर्म का पुनर्जागरण हुआ, उसमें श्री ऑरोबिंदो समेत अनेकों मनीषियों ने अलग-अलग तरीके से प्राण फूँके और उसमें से समकालीन और आधुनिक समाज के साथ सुसंगत तत्व चुन कर आगे बढ़ाया। यहाँ तक कि भगत सिंह की तरह अनीश्वरवादी, नास्तिक सावरकर ने भी अपनी ज़िंदगी का एक दशक से ज़्यादा समय हिन्दू सामाजिक सुधार में लगाया।
ऐसे में, फिर एक बार, यह प्रश्नवाचक चिह्न रह जाता है, जिसका अवश्यंभाविता के साथ जवाब असम्भव है, कि भगत सिंह का नव-जागृत, आधुनिक हिंदुत्व/हिन्दू धर्म के साथ कैसा रिश्ता होता। शायद वे तब भी नास्तिक रहते, लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि न भी रहते!
जान दे दी ‘बच्चे’ ने तुम्हारे लिए, और ‘निचोड़ो’ मत
23 साल का युवक ‘बच्चे’ से बहुत बूढ़ा नहीं होता। उस उम्र में भगत सिंह ने अपनी जान दे दी- भगवा, लाल, नीली, पीली, खाकी, यानि हर विचारधारा के लोगों की आज़ादी के लिए। उनका बलिदान ही उनकी ‘legacy’ है, उनकी ‘विरासत’ है- उनके हिन्दुओं के बारे में विचार, लेनिन के बारे में उनकी राय, यह सब उनका निजी है। सार्वजनिक बहस में बेतुका।
एक तरफ़ वे धर्म की खिल्ली उड़ाते थे, दूसरी तरफ़ ‘धार्मिक कॉमरेड’ शचीन्द्रनाथ सान्याल की धार्मिकता से प्रभावित भी थे। यह उस उम्र और उस दौर की स्वाभाविक वृत्ति थी, अभिव्यक्ति थी। उसे किसी भी तमगे तक समेटना, चाहे वह भाजपा का ‘राष्ट्रवादी’ (वर्तमान राजनीति के संदर्भ में) का हो, या कम्युनिस्टों का ‘राइट-विंग का दुश्मन’ का, अन्याय होगा। उनका ‘appropriation’ होगा।
भगत सिंह ने अपनी जान के रूप में अपना ‘रस’ पहले ही इस देश के खून में मिला दिया है। अब गन्ने की तरह उनकी लाश को वैचारिक-राजनीतिक पेराई मशीन में डालकर “और निचोड़ने” की कोशिश न की जाए।