आज इंदिरा गाँधी का जन्मदिन है। भारत की तीसरी प्रधानमंत्री, जिन्हें समर्थक तो सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री मानते ही हैं, विरोधियों के भी ईमानदार आकलन में जो पहले से एक-दो पायदान ही नीचे जाएँगी। बचपन में इंदु प्रियदर्शिनी नाम पाने वाली इंदिरा का नाम और उनके किए हुए अच्छे काम का श्रेय राहुल और सोनिया गाँधी की कॉन्ग्रेस लेते नहीं थकते। लेकिन चाहे उनमें और राहुल या सोनिया गाँधी में तुलना हो, या उनके और यूपीए के शासनकाल में, मुस्लिम तुष्टिकरण और परिवारवाद जैसी नकारात्मक समानताओं के अलावा उनकी एक भी अच्छी बात का प्रतिबिम्ब नहीं दिखता।
देश सबसे पहले
इंदिरा गाँधी पर यह आरोप बिलकुल सही है कि वे स्वेच्छाचारी थीं- अपने अलावा किसी की नहीं सुनती थीं, और समय के साथ जनता को बरगलाने के लिए चटाया जा रहा “इंडिया इज़ इंदिरा, इंदिरा इज़ इंडिया” का राजनीतिक चूरन खुद कब उन्होंने चाट लिया, यह शायद उन्हें भी नहीं पता चला होगा। लेकिन, भारत के हितों के खिलाफ उन्होंने जानबूझकर कोई कदम उठाया हो, ऐसा सबूत मिलना मुश्किल है। वे भारत के लिए सही क्या है और क्या गलत, इसको लेकर बहुत सारे गलत विचार अवश्य रखतीं थीं- लेकिन देश के हितों के बारे में इंदिरा गाँधी की नीयत पर कभी कोई दाग नहीं लगा पाया।
वहीं राफेल को लेकर राहुल गाँधी की नकारात्मक राजनीति इतिहास में लिखे जाने लायक है। न केवल देश के भीतर की राजनीति पर विदेशी राष्ट्रपति (फ़्राँस के राष्ट्रपति) को बयान देना पड़ गया, बल्कि एक समय ऐसा लगने लगा कि शायद सौदा न ही हो। और बाद में कारण क्या निकला? राफेल का सौदा रद्द होकर उसके प्रतिद्वंद्वी यूरोफाइटर को मिलने में राहुल गाँधी के करीबी संजय पाहवा को फायदा होना था। इसके अलावा विकीलीक्स के लीक्ड केबिलों में यह भी सामने आया था कि उन्होंने अमेरिकी राजदूत से कहा था कि भारत को जिहादियों से अधिक खतरा कथित ‘हिन्दू आतंकवाद’ से है।
पाकिस्तान की कमर तोड़ने में संकोच नहीं
इंदिरा गाँधी ने भले ही वार्ता की मेज पर 1971 की लड़ाई के फायदे गँवा दिए हों, लेकिन उससे पहले तक उन्होंने पाकिस्तान की जो कमर तोड़ी, उसे भारत और बांग्लादेश ही याद नहीं रखते, बल्कि पाकिस्तान की सेना का उस युद्ध में नेतृत्व करने वाले जनरल नियाज़ी के उपनाम ‘नियाज़ी’ को गाली बनाकर उस हार का ज़ख्म सहलाता है। इस जीत ने न केवल भारत की सैन्य ताकत को निर्णायक रूप से पाकिस्तान से इक्कीस साबित किया, बल्कि बाकी की दुनिया ने भी यह जान लिया कि भारत चीज़ क्या है।
वहीं मनमोहन-सोनिया की सरकार की अगर बात करें, तो पाकिस्तान को लेकर मनमोहन सरकार से अधिक लचर रुख अगर किसी का रहा तो केवल नेहरू का। उसके अलावा यूपीए और यूपीए-2 के मुकाबले सभी महत्वपूर्ण प्रधानमंत्रियों ने (आयाराम-गयाराम सरकारों वाले को छोड़कर) पाकिस्तान को लेकर कड़ा रुख ही रखा। डॉ. मनमोहन सिंह ने शर्म-अल-शेख में बलूचिस्तान को लेकर पाकिस्तान को जो कूटनीतिक हथियार दे दिया, वह आज भी यदा-कदा भारत के लिए असहज स्थिति पैदा कर ही जाता है।
विदेश नीति में भी मनमोहन सरकार पाकिस्तान को घेरने की हर कोशिश में नाकाम रही। 26/11 के बाद भारत ने जो डोज़ियर दिया, पाकिस्तान ने उसका मज़ाक़ बना कर रख दिया- लेकिन मनमोहन-सोनिया कुछ नहीं कर पाए।
पुलवामा और उरी के हमले अगर इंदिरा सरकार के समय में हुए होते, तो भी पाकिस्तान को कमोबेश वैसा ही जवाब मिलता, जैसे मोदी ने दिया। लेकिन वही 26/11 के बाद, बनारस, दिल्ली से लेकर मुंबई, हैदराबाद और दंतेवाड़ा अनेकों बम धमाकों के बाद भी यूपीए सरकार ने जो लचर रुख अख्तियार किया, वह इंदिरा गाँधी की विरासत को शर्मसार करने वाला है।
कभी हिन्दू होने से परहेज़ नहीं
इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता है कि इंदिरा की बहुत सी नीतियाँ हिन्दू-विरोधी रहीं, जिनमें सबसे कुरूप चेहरा याद आता है 1966 में निहत्थे साधुओं की भीड़ पर गोलीबारी का। लेकिन, सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि इंदिरा गाँधी (नरेंद्र मोदी के प्रादुर्भाव के पहले) तक अपने निजी जीवन में हिन्दू धर्म के कर्मकांडों के प्रति सबसे अधिक निष्ठा रखने वाले भारत के प्रधानमंत्रियों में भी रहीं- उनसे इक्कीस शायद नरसिम्हा राव रहे, जिनके बारे में कहा जाता है कि बाबरी ध्वंस की बात सुनकर भी उन्होंने दैनिक पूजा भंग नहीं की। वे ज्योतिषियों और तांत्रिकों के पास भी आस्थापूर्वक जाती थीं, अकसर उनके बड़े-बड़े मंदिरों में पूजा-अर्चना करने के वृत्तांत मिलते हैं, और उनके पास अपने योग गुरु भी थे।
आज राहुल गाँधी कोट के ऊपर जनेऊ पहन कर (सावरकर के कथित शब्दों में, कि जिस दिन हिन्दू होने के नाम पर वोट मिलने या रुकने लगा, कॉन्ग्रेसी कोट के ऊपर जनेऊ पहनेंगे) ब्राह्मणत्व पर इठलाते फिरते हैं तो इसीलिए कि गैर-हिन्दू पति और ससुराल के बाद भी उनकी दादी ने उनके पिता और चाचा की परवरिश हिन्दू के तौर पर की।
यहीं वर्तमान कॉन्ग्रेस को देखें तो हिंदूवादी राजनीति से आगे जाकर हिन्दू धर्म पर हमला शुरू करने का काल इटैलियन ईसाई सोनिया गाँधी के कॉन्ग्रेस में उदय के आसपास का ही है। यह कोई संयोग नहीं है। उन्होंने उस साम्प्रदायिक हिंसा विरोधी अधिनियम का मसौदा तैयार कराया, जो अगर कानून बन जाता तो इस देश में हिन्दू होना साम्प्रदायिक हिंसा के मामलों में आपको स्वतः दोषी बना देता- ज़ाहिर तौर पर इससे बड़ी संख्या में मतांतरण होते। उनकी नेशनल एडवाइजरी काउन्सिल के न जाने कितने संगी-साथी पंथिक मतांतरण कराने वाले NGOs से जुड़े हुए रहे।
सावरकर के योगदान को स्वीकारा
आज शिव सेना के साथ कॉन्ग्रेस की महाराष्ट्र में सरकार बनने में सबसे बड़ी अड़चनों में से एक है सावरकर के प्रति कॉन्ग्रेस का परहेज- और यह नफरत सीधे ऊपर हाई कमांड से आती है। इस ‘ऊपर से ऑर्डर’ वाली नफ़रत के चलते ही एनएसयूआई वाले सावरकर की मूर्ति पर जूते की माला पहनाते हैं, कालिख उछालते हैं, देशद्रोह का झूठा लांछन लगाते हैं।
वहीं इसके उलटे सावरकर के प्रति इंदिरा गाँधी का रवैया बहुत अधिक सकारात्मक रहा। उन्होंने न केवल यह पहचाना कि मोहनदास गाँधी की हत्या में सावरकर पर लगे आरोप गलत थे, बल्कि उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम और 1857 का इतिहास लिखने में सावरकर की भूमिका का भी सम्मान किया। उन्होंने न केवल सावरकर को “भारत का विशिष्ट पुत्र” बताया था, बल्कि यह भी कहा था कि उनका ब्रिटिश सरकार से निर्भीक संघर्ष स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में अपना खुद का महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यही नहीं, सावरकर के सम्मान में उन्होंने डाक टिकट जारी किया और अपने व्यक्तिगत धन से ₹11,000 (1980 में बहुत बड़ी रकम) का योगदान भी किया था।
राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद पर कड़ा रुख
इंदिरा गाँधी ने पाकिस्तान को तो जूते की नोंक पर ला ही दिया 1971 की लड़ाई में! इसके अलावा भी राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर उनका रुख हमेशा ही कड़ा माना जाता है- मनमोहन-सोनिया के ढुलमुल रवैये उलट, जिसके चलते दंतेवाड़ा में 76 सीआरपीएफ़ जवान नक्सलियों शिकार हुए, अनेकों बम धमाके और 26/11 हुआ। हाँ, इंदिरा गाँधी ने एक बड़ी गलती अकालियों को हराने के लिए भिंडरावाले को उभारा, लेकिन जब गलती का अहसास हुआ तो उसे खुद सुधारा भी- यहाँ तक कि उसी गलती को सुधारने की ‘सज़ा’ उन्हें मौत के रूप में मिली।
स्पष्ट फैसले- भले गलत हों
इंदिरा गाँधी ने गलत फैसले भी कम नहीं लिए हैं- इमरजेंसी, प्रिवी पर्स बंद कर यह संकेत देना कि भारत सरकार अपनी ज़बान से जब चाहे सुविधानुसार पलट सकती है, समाजवादी अर्थव्यवस्था जारी रखना, जेनएयू को वामपंथियों के हाथ में सौंप देना आदि। लेकिन, उन्होंने गलत फैसले भी निर्णायक तरीके से लिए। मनमोहन सरकार के समय जैसे निर्णय लेने की प्रक्रिया को ही लकवा मार गया, उससे इंदिरा गाँधी से अधिक कोई नहीं झुँझला पड़ता।
आज इंदिरा गाँधी के जन्मदिन पर उनकी खुद की पार्टी से ज़्यादा उन्हें याद करने और उनकी सकारात्मक चीजों का अनुकरण करने की जरूरत और किसी को नहीं है। कॉन्ग्रेस के लिए सबसे अच्छी सलाह यही हो सकती है कि वह एक और इंदिरा गाँधी तलाशे, न कि केवल उनके परिवार या उनकी जैसी नाक के पीछे भागे!!