मदुरा विजयम् 14 वीं शताब्दी में लिखा गया एक महाकाव्य है। वामपंथी इतिहासकार आपसे कहेंगे कि मध्ययुगीन भारत में, महिलाओं को अध्ययन करने का कोई अधिकार नहीं था और सामान्य तौर पर उनकी स्थिति काफी दयनीय थी।
मगर गौर करने की बात यह है कि इस असाधारण महाकाव्य को स्वयं एक महिला गंगा देवी ने लिखा था। इस महाकाव्य में वह अपने योद्धा पति कुमार कंपाना द्वितीय से जुड़े प्रसंगों का उल्लेख करती हैं, जिसकी वो खुद साक्षी रही हैं। हमने इससे पहले भारतीय इतिहास का एक शानदार अध्याय देखा है कि कैसे महाराणा प्रताप ने मुगलों को हराया था, हालाँकि, यह गौरवशाली विजय गाथा भी इतिहास की पुस्तकों से नदारद रही। इसी तरह मदुरा विजयम् भी एक ऐसी ही गौरवगाथा है।
विजयनगर का उदय
14 वीं शताब्दी का भारत लगातार बदलाव का समय था। 1320 तक, खिलजी साम्राज्य गिर गया था और तुगलक दिल्ली सल्तनत का अधिपति बन गया था। जौना खान, जिसे पागल राजा मुहम्मद बिन तुगलक के रूप में भी जाना जाता है, के अधीन साम्राज्य का काफी विस्तार हुआ और दक्षिण में सबसे दूर के क्षेत्रों तक पहुँच गया।
खिलजी के अधीन काफूर की मुहिमों ने पहले ही दक्षिण के राज्यों को कमजोर कर दिया था। तुगलक के अभियानों ने एक हजार से अधिक वर्षों तक स्थाई रुप से अडिग कई राज्यों को प्रभावी ढंग से समाप्त कर दिया। लेकिन ये जीत अल्पकालिक थी। कुछ ही वर्षों के भीतर, काकतीय साम्राज्य के पतन से विजयनगर साम्राज्य का प्रादुर्भाव हुआ और दक्षिण में मुगल संप्रभुता का नामोनिशान समाप्त हो गया। यह उस कहानी का एक छोटा सा हिस्सा है।
तुगलक साम्राज्य के टूटने के बाद दक्षिण में कई राज्य अस्तित्व में आए। विजयनगर और उसके दक्षिण में मदुरै सल्तनत भी उन्हीं में से थी। विजयनगर की स्थापना जिन दो भाइयों ने की थी उन्हें तुगलक द्वारा कैद कर लिया गया और दिल्ली ले जाया गया। वहाँ उन्हें इस्लाम अपनाने के लिए मजबूर कर दिया गया। लेकिन मौका मिलते ही वे दक्षिण की ओर भाग गए और ऋषि विद्यारण्य (बाद में शृंगेरी के जगद्गुरु शंकराचार्य) की शरण ली। विद्यारण्य ने उन्हें वापस हिंदू धर्म में परिवर्तित कर दिया और उन्हें दक्षिण भारत में हिंदू संप्रभुता को फिर से स्थापित करने का एक लक्ष्य दिया।
हरिहर विजयनगर (अब हम्पी) के पहले राजा थे। उनके बाद बुक्का राय का शासनकाल शुरू हुआ। उनका पुत्र अकम्पना एक महान सेनापति था और उसने पूरे दक्षिण भारत, ओडिशा के कुछ हिस्सों और बहमनी साम्राज्य के कई भागों तक अपना राज्य बढ़ाया। गंगा देवी उनकी पत्नी थीं।
मदुरै सल्तनत
मदुरै सल्तनत की स्थापना 1335 में हुई और मदुरै को राजधानी बनाया गया। जैसा कि मजहबी सल्तनत का रिवाज था, मदुरै मंदिर में प्रार्थना रोक दी गई। उन्होंने मंदिर के कई हिस्सों को नष्ट कर दिया। सुंदरेश्वर शिव की मूर्ति को एक दूसरी मूर्ति से बदलकर और पवित्र गर्भगृह को एक दीवार का निर्माण कर बचाया जा सका।
मदुरा विजयम् में, गंगादेवी ने मंदिर निर्माण की क्षय स्थिति, ब्राह्मणों के विनाश, गौ-मांस और शराब द्वारा पवित्र क्षेत्रों को परिभाषित करने और तुरुष्का (तुर्क) द्वारा उत्पन्न सामान्य अराजकता का वर्णन किया। मोरक्को के प्रसिद्ध यात्री इब्न बतूता द्वारा स्थानीय लोगों के खिलाफ अत्याचार भी दर्ज किए गए थे, जो इधर से होते हुए चीन गए थे। उनकी पुस्तक रिहला निम्नलिखित जानकारी देती है:
“हिन्दू कैदियों को चार वर्गों मे बाँटा गया और प्रत्येक वर्ग को ‘THE great Catcar’ के एक-एक द्वार की तरफ ले जाया गया। और वहाँ उनके शरीर को नुकीले हथियारों से छेद दिया गया। उसके बाद उनकी पत्नियों और बच्चों को मौत के घाट उतार दिया गया। नवजात शिशुओं को उनकी माँओं की गोद में ही मार दिया गया और उनके शवों को वहीं पर छोड़ दिया गया। इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक जगलों के पेड़ों को काटना शुरू किया जैसे कि उससे पहले हिन्दू कैदियों को काटा था। ये ऐसा शर्मनाक कृत्य था, जिसे किसी भी अन्य राज्य या सल्तनत द्वारा किए जाने के बारे में मैने पहले कभी देखा, पढ़ा या सुना नहीं है।”
यह हृदय-विदारक घटना सिर्फ उनके द्वारा ही उल्लेखित नहीं हैं | गंगादेवी ने भी ऐसी ही स्थितियों का उल्लेख किया है। कुशासन के कारण, मदुरै भी अकाल और फिर बाद में प्लेग से पीड़ित हुआ था।
मदुरै सल्तनत पर विजयनगर की जीत
राजकुमार ने अपना काम निर्धारित कर लिया था। लेकिन मदुरै को जीतने से पहले, इसके आस-पास के क्षेत्रों का सुरक्षित होना महत्वपूर्ण था। तदनुसार, उन्होंने सबसे पहले कांचीपुरम (चेन्नई के निकट) के आसपास सुरक्षित क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया जो कि दिल्ली सल्तनत के एक वफादार हिंदू जागीरदार के अधिकार में था और फिर दक्षिण की ओर मार्च किया। कहानी में एक जिज्ञासु तत्व पांड्यों की शाही तलवार है। यह एक दूत द्वारा कंपाना को भेंट किया गया था। यह पांड्यों के हाथों से विजयनगर तक दक्षिण की संप्रभुता के मार्ग का प्रतिनिधित्व करता है।
कुमार कंपाना, दिल्ली सल्तनत की सीमाओं तक पहुँच गए। मदुरा विजयम् ने युद्ध शुरू किया था और यह लड़ाई भयंकर थी। अनुभवी और शक्तिशाली विजयनगर सेना के सामने, सल्तनत की सेनाएँ हार रही थीं। उनका मनोबल बढ़ाने और लड़ाई खत्म करने के लिए, सुल्तान खुद मैदान में आया।
भारत का इतिहास ऐसे अनेक उदाहरणों से भरा पड़ा है, जहाँ राजा या सेनापति की अक्षमता के कारण सेनाएँ लगभग जीती गई लड़ाइयाँ हार गई हैं। चंदावर की लड़ाई को याद कर सकते हैं, जिसमें कन्नौज के जयचंद दिल्ली सुल्तान के खिलाफ या फिर 16 वीं शताब्दी में पानीपत में हेमचंद्र विक्रमादित्य की हार (1556)। वो जीत रहे थे मगर अंततः हार गए ।
इन दोनों लड़ाइयों में, हिंदू सेनाएँ, जीत की कगार पर आकर हार गई क्योंकि उनका राजा दुर्भाग्य से मारा गया था। एक तीर द्वारा अक्षम किया गया था। नेताविहीन सेनाएँ एक झटके में जीता हुआ युद्ध हार गईं। हालाँकि, यहाँ भाग्य कुमार कंपाना के साथ था।
एक भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें बहादुर कुमार कंपाना ने पहली बार सुल्तान को एक लंबे समय तक द्वंद्वयुद्ध में हराया। सुल्तान ने एक तलवार ली और कंपाना पर हमला किया। कंपाना ने उसके वार को चकमा देते हुए एक ही वार में उसका सर धड़ से अलग कर दिया। दक्षिण भारत में इस्लामी अत्याचारी का सिर धूल में लुढ़क रहा था। शरीर थोड़ी देर हवा में स्थिर रहा, फिर लुढ़क गया। इस तरह लक्ष्य पूरा हो चुका था।
यह कॉमन एरा का वर्ष 1378 था। मंदिर को फिर से स्थापित किया गया, टूट-फूट की क्षतिपूर्ति की गई। यह विजयनगर, मदुरै के नायकों और जागीरदारों द्वारा कई शताब्दियों तक शोभायमान रही। श्रीरंगम के मंदिरों और मठों को इसकी पूर्ववत गरिमा के अनुसार पुनर्स्थापित किया गया ।
निष्कर्ष
दक्षिण भारत अगले 200 वर्षों तक हिंदुओं का गढ़ बना रहा। उसके बाद भी, विजयनगर के राजसी राज्य और विजयनगर, मैसूर वोडयार, मदुरै नायक आदि के जागीरदार राज्यों ने हिन्दू धर्म और लोगों को विदेशी उत्पीड़न से बचाया। मुगल कभी वहाँ नहीं पहुँच सकते थे। हैदर अली के उदय के बाद ही एक खतरा ज़रूर सामने आया। हालाँकि, मराठों ने उसका मुकाबला करने में सफलता प्राप्त की और अंग्रेजी की मदद से उसका वंश समाप्त कर दिया।
मदुरा विजयम् बुराई पर अच्छाई की जीत की गौरवशाली गाथा है। दुर्भाग्य से, हमारी पाठ्यपुस्तकों में इतिहास के ऐसे शानदार अध्यायों के लिए कोई जगह नहीं है। देश का आम हिंदू, इस्लामी आक्रमणकारियों के तहत अपनी तथाकथित 800 साल की गुलामी की कहानियों को सुनने-सुनाने में संतुष्ट हैं। लेकिन अब ऐसी गुलाम मानसिकता को दूर करने की जरूरत है। इस तरह के अदम्य वीरता के इतिहास, हिन्दू धर्म के पुनर्जागरण का एक आवश्यक हिस्सा हैं और उन्हें ये कहानियाँ बार-बार सुनाए जाने की आवश्यकता है।
नोट: अंग्रेजी में पवन पांडेय के इस मूल लेख का अनुवाद रचना झा ने किया है।