Friday, November 22, 2024
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गोरों ने जिसे समझा गुलाम, स्वामी विवेकानन्द ने उनसे हाथ मिला कर कहा था – ‘धन्यवाद भाई’

नीग्रो (काले लोग, जिसे अमेरिका-यूरोप के गोरे गुलाम समझते थे) कुली ने आगे बढ़ कर उनसे हाथ मिलाते हुए कहा, “बधाई! मुझे बेहद खुशी है कि मेरी जाति के एक व्यक्ति ने इतना बड़ा सम्मान प्राप्त किया। इस देश के पूरे नीग्रो समुदाय को आप पर गर्व है।”

अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैवकुटुम्बकम् ॥ (महोपनिषद्, अध्याय 6, मंत्र 71)

यह नीति वाक्य सदियों से हमारी प्राचीन सनातन संस्कृति और भारतवर्ष के श्रेष्ठ चरित्र का परिचायक है। विश्व के इतिहास में एक स्वर्णिम कालखण्ड ऐसा भी रहा है, जब भारत समस्त मानव जाति का नेतृत्व करता था। हर क्षेत्र में भारत सर्वोच्च शिखर पर हुआ करता था। सर्वशक्तिमान होने के पश्चात भी हमने कभी भी अपना-पराया नहीं किया वरन् सबको अपना माना।

सबकी सहायता, सबके विकास के लिए सदैव तत्पर इस महान शांतिप्रिय राष्ट्र ने कभी किसी पर आक्रमण नहीं किया। परन्तु दुर्भाग्यवश हम पर सदैव ही चहुं दिस आक्रमण हुए और परिणाम स्वरूप एक दिन यह देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा गया।

परतंत्रता रूपी इस अंधकार ने भारत के स्वाभिमान को ऐसा ग्रहण लगाया कि भारतवासी अपना आत्म-विश्वास ही खो बैठे। क्रूर अंग्रेजी शासकवर्ग भौतिकवाद से ग्रस्त थे और अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति हेतु सब पर अमानवीय अत्याचार करते थे। ऐसा प्रतीत होता था मानों प्रेम, करुणा, उदारता, संवेदनशीलता, सहिष्णुता और आध्यात्मिकता जैसे मूल्य अपना अस्तित्व खोते जा रहे थे।

ऐसे में, सन् 1863, 12 जनवरी को भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता में ऐसे सूर्य का उदय हुआ, जिसके ज्ञान के प्रकाश से युगों-युगों तक दुनिया आलोकित होती रहेगी। 19वीं शताब्दी के इस महानायक को हम सभी स्वामी विवेकानन्द के रूप में याद करते हैं।

स्वामी विवेकानन्द प्राचीनता और आधुनिकता का मिश्रण थे। उन्हें प्राचीन भारतीय संस्कृति, इतिहास, दर्शन और अपने पूर्वजों के प्रति जहाँ अपार श्रद्धा थी, वहीं उनके आधुनिक विचार तत्कालीन रूढ़िगत परंपराओं का खण्डन भी करते थे। बचपन में उनके घर पर विभिन्न जातियों एवं संप्रदायों के लोगों की आवाजाही होती थी, अतएव सभी को भिन्न-भिन्न हुक्के दिए जाते थे। उन्होंने प्रत्येक हुक्के से एक-एक कश केवल इसी जिज्ञासावश लगाया कि यदि जातिगत नियमों को तोड़ दिया जाए तो क्या परिणाम होंगे?

11 सितम्बर 1893 (भाद्रपद शुक्ल द्वितीया, विक्रम संवत 1949, युगाब्द 4995), पश्चिमी क्षितिज पर भारत के ज्ञानोदय का अविस्मरणीय और ऐतिहासिक दिवस बन गया। अमेरिका के शिकागो शहर में ‘विश्व धर्म संसद’ का आयोजन हुआ था, जिसमें दुनिया भर के दस प्रमुख संप्रदायों के अनेक प्रतिनिधि पूर्ण तैयारी से आए हुए थे। इसमें यहूदी, हिन्दू, इस्लाम, बौद्ध, ताओ, कन्फ्यूशियस, शिन्तो, पारसी, कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट इत्यादि शामिल थे।

‘आर्ट इंस्टीट्यूट’ का विशाल सभागार लगभग 7000 श्रोताओं से खचाखच भरा हुआ था। भारत के हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व करते हुए जब मात्र 30 वर्षीय नवयुवक, स्वामी विवेकानन्द स्वागत का उत्तर देने हेतु मंच पर जाते हैं, तब माता सरस्वती को स्मरण कर वह बोल उठते हैं, “अमेरिका वासी बहनों और भाइयों!”

उनके केवल इतना कहते ही सभी लोग खड़े हो गए और पूरा सभागार अगले 2 मिनट तक तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। यह घोर करतल नाद उस संन्यासी के सम्मान में हुआ था, जिसे कुछ क्षण पूर्व हीन भावना से देखा गया था। जिसने अमेरिका की भीषण ठंड में स्वयं की रक्षा हेतु रात भर रेलवे के माल यार्ड में पड़े बक्से में बिताया, जिनके साथ अभद्र व्यवहार किया गया, रंगभेद का शिकार बनाया गया, नीग्रो, काला कुत्ता आदि अपमानजनक शब्दों से संबोधित किया गया। इन सभी कठिनाइयों का सामना कर, अपार सहनशीलता के साथ इस महायोगी ने समस्त संसार को विश्वबन्धुत्व का ही अमृत संदेश प्रदान किया।

कुल 17 दिनों (11 से 27 सितंबर, 1893) तक चलने वाले विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद ने 6 व्याख्यान दिए। क्रमशः स्वागत का उत्तर (11 सितम्बर), हम असहमत क्यों हैं (15 सितम्बर), हिन्दुत्व पर शोध-प्रपत्र (19 सितम्बर), धर्म भारत की मुख्य आवश्यकता नहीं (20 सितम्बर), बौद्ध धर्म – हिन्दू धर्म की पूर्णता (26 सितंबर), अंतिम सत्र में संबोधन (27 सितम्बर)।

एक ओर जहाँ वैश्विक मंच पर अन्य धर्मावलंबियों ने केवल अपने ही धर्म को सच्चा बताया और बाकी धर्मों की निंदा की वहीं, स्वामी विवेकानंद ने अपने वक्तव्य में गौरवशाली हिन्दू धर्म के विषय में कहा:

“मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूँ, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।”

भारत सदैव सर्वे भवन्तु सुखिन: की सोच रखता है और विपदा में मित्र की भाँति सबका साथ देने वाला देश रहा है, जिसका वर्तमान युग में भी प्रचुर उदाहरण मिल जायेगा!

वैश्विक महामारी कोरोना के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में विश्व के 120 देशों में बिना किसी शर्त और मूल्य के भारतीय वैक्सीन भेज कर उन्हें संकट से उबारा। तुर्की जो कई मुद्दों पर भारत का घोर विरोधी रहा है, में भूकंप के समय यथोचित सहायता पहुँचाना इत्यादि।

भारत की इसी बंधुत्व भावना को उजागर करते हुए स्वामी विवेकानंद आगे कहते हैं, “मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूँ, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इजरायलियों की पवित्र स्मृतियाँ सँजोकर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़ कर खंडहर बना दिया था। और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूँ, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है।”

‘हिन्दुत्व पर शोध-प्रपत्र’ विषय पर स्वामी विवेकानन्द ने 19 सितम्बर को जो भाषण दिया, वह अत्यन्त महत्वपूर्ण और चर्चित भाषण था। मानो इसी कार्य के लिए उन्हें अपने गुरु ठाकुर श्रीरामकृष्ण परमहंस देव का आदेश और भारत माता का आशीर्वाद प्राप्त हुआ था। उनके आह्वान के ओजस्वी शब्दों की शक्ति थी वेद, उपनिषद्, श्रीमद्भगवद्गीता की पावन वाणी!

स्वामी विवेकानंद के प्रत्येक भाषण का अमेरिकी जनमानस पर अद्वितीय प्रभाव पड़ा। प्रशंसा करते हुए कुछ ने यह भी कहा, “ऐसे विद्वान राष्ट्र में मिशनरी भेजना तो निरा मूर्खता है। वहाँ से तो हमारे देश में धर्मप्रचारक भेजे जाने चाहिए।”

हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रो. जॉन हैनरी राइट ने कहा था, “स्वामीजी, आपसे आपकी योग्यता का प्रमाण-पत्र माँगना सूर्य से उसके चमकने का अधिकार पूछने जैसा है।”

महर्षि अरविन्द ने कहा था, “स्वामी विवेकानन्द का पश्चिम में जाना, विश्व के सामने पहला जीता जागता संकेत था कि भारत जाग उठा है, न केवल जीवित रहने के लिए बल्कि विजयी होने के लिए।”

स्वामी विवेकानंद पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने पश्चिम में भारतीय सनातन संस्कृति, वेदान्त दर्शन और योग को केवल प्रस्तुत ही नहीं अपितु प्रतिष्ठित भी किया। अमेरिका के विभिन्न प्रान्तों में उनके बड़े-बड़े पोस्टर लगे, दुनिया भर के समाचार पत्र उनकी प्रशंसा और वंदन से भरे हुए थे। धर्म संसद के पहले ही भाषण से वो विश्व विख्यात हो गए थे!

उनके सम्मान में उस रात राजोचित सत्कार का आयोजन किया गया। स्वामी विवेकानंद का कक्ष भौतिक सुख-सुविधाओं से लैस था परन्तु एक संन्यासी को उस विलासितापूर्ण बिछौने पर नींद कहाँ आती! उनका कोमल हृदय तो अपनी मातृभूमि की दशा पर द्रवित हो उठा, जिसे विगत 5 वर्षों तक भ्रमण के दौरान उन्होंने स्वयं अनुभव किया था! सारी रात वह शिशु के समान फूट-फूट कर रोते रहे और ईश्वर के सम्मुख अपने भारत के पुनरुत्थान की प्रार्थना करते रहे।

स्वामी विवेकानंद का विशाल हृदय केवल भारत ही नहीं अपितु अन्य देश के पतितों और दीनों के लिए भी क्रंदन करता था। एक बार एक रेलवे स्टेशन पर जब वे गाड़ी से उतर रहे थे, उनका भव्य स्वागत किया जा रहा था, तभी वहाँ एक नीग्रो (काले लोग, जिसे अमेरिका-यूरोप के गोरे गुलाम समझते थे) कुली ने आगे बढ़ कर उनसे हाथ मिलाते हुए कहा, “बधाई! मुझे बेहद खुशी है कि मेरी जाति के एक व्यक्ति ने इतना बड़ा सम्मान प्राप्त किया है। इस देश के पूरे नीग्रो समुदाय को आप पर गर्व है।”

स्वामी विवेकानंद ने उससे स्नेहपूर्वक हाथ मिलाया और विनम्रता से कहा, “धन्यवाद भाई धन्यवाद!”

वास्तव में इतनी प्रसिद्धि होने के पश्चात भी स्वामी विवेकानंद को कई बार अपमान और तिरस्कार झेलना पड़ा था। अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में नीग्रो समझ कर कई होटलों में उन्हें प्रवेश करने से रोका गया परन्तु उन्होंने कभी यह उजागर नहीं किया की वे नीग्रो नहीं हैं या वे भारतीय हैं। एक पश्चिमी शिष्य ने उनसे पूछा कि ऐसी स्थितियों में वे सत्य जाहिर क्यों नहीं करते? इस पर उन्होंने तनिक क्रोधित स्वर में उत्तर दिया, “क्या! दूसरों को नीचा दिखा कर मैं ऊपर उठूँ! मैं इस पृथ्वी पर इसलिए नहीं आया हूँ।”

स्वामी विवेकानंद ने वैश्विक स्तर पर पराधीन भारत का मान बढ़ाकर, उसके सोए हुए आत्म विश्वास को पुनः जागृत कर नवशक्ति का संचार किया। इस चराचर जगत के कण-कण में ईश्वर दर्शन करने वाले इस दिव्य पुरुष ने अपने भारतवासियों का आह्वान करते हुए कहा:

“मेरे भारत! जागो! और जनसमूह का उद्धार करो।”

वर्तमान समाज सांप्रदायिकता की अग्नि में झुलस रहा है। कोई देश अपनी सीमाओं के विस्तार हेतु अतिक्रमण कर रहा है तो कहीं मजहब के नाम पर जिहाद हो रहा है। सब अपने को श्रेष्ठ और महान बताने की होड़ में लगे हुए हैं। ऐसे में स्वामी विवेकानंद के विश्वबन्धुत्व का सन्देश ही मानवीय मूल्यों की रक्षा करने की क्षमता रखता है क्योंकि यह संसार को सहिष्णुता और सार्वभौम स्वीकृति की सीख देता है।

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Shubhangi Upadhyay
Shubhangi Upadhyay
Shubhangi Upadhyay is a Research Scholar in Hindi Literature, Department of Hindi, University of Calcutta. She obtained Graduation in Hindi (Hons) from Vidyasagar College for Women, University of Calcutta. She persuaded Masters in Hindi & M.Phil in Hindi from Department of Hindi, University of Calcutta. She holds a degree in French Language from School of Languages & Computer Education, Ramakrishna Mission Swami Vivekananda's Ancestral House & Cultural Centre. She had also obtained Post Graduation Diploma in Translation from IGNOU, Regional Centre, Bhubaneswar. She is associated with Vivekananda Kendra Kanyakumari & other nationalist organisations. She has been writing in several national dailies, anchored and conducted many Youth Oriented Leadership Development programs. She had delivered lectures at Kendriya Vidyalaya Sangathan, Ramakrishna Mission, Swacch Bharat Radio, Navi Mumbai, The Heritage Group of Instituitions and several colleges of University of Calcutta.

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