स्वामी विवेकानंद को लेकर गाँधी जी ने कहा था- "मैंने उनके कार्यों को बड़े गहरे से अध्ययन किया है, और उन्हें पढ़ने के बाद, जो प्रेम मुझे अपने देश के लिए था, वह हजार गुना बढ़ गया।"
जब वहाँ पहली बार नौका सेवा प्रारंभ की गई तो स्थानीय नाविकों ने इसका बहिष्कार कर दिया। फिर केरल से नाविकों को बुलाना पड़ा। ईसाइयों ने शिलालेख फेंक दिया था।
स्वामी विवेकानंद का संन्यासी जीवन से पूर्व का नाम भी नरेंद्र था और भारत के प्रधानमंत्री भी नरेंद्र हैं। जगह भी वही है, शिला भी वही है और चिंतन का विषय भी।
स्वामीजी के अनुयायी भारत में आकर भारतीय हो गए। न कोई सेवा के नाम पर धर्मांतरण का छलावा न कोई मान-सम्मान की चाहत। उन्होंने निस्वार्थ भाव से माँ भारती की सेवा की।