विन्ध्य क्षेत्र सदैव से ही तपोभूमि माना जाता रहा है। यह ऋषि-मनीषियों के अलावा तपस्वियों और भक्तों की भूमि रही है। वन, पर्वत, नदी और तालाब इत्यादि से सुसज्जित विन्ध्य क्षेत्र कई आध्यात्मिक स्थानों का केन्द्र भी है। उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर से लगभग 8 किमी की दूरी पर माँ गंगा की निर्मल धाराओं के समीप स्थित माँ विंध्यवासिनी का मंदिर भी इनमें से एक है। 51 शक्तिपीठों में शामिल माता विंध्यवासिनी का मंदिर एक जागृत पीठ माना जाता है। इस मंदिर से जुड़ी कई मान्यताएँ हैं जो अपने आप में अनूठी हैं।
विन्ध्याचल पर्वत पर स्थित माता विंध्यवासिनी का इतिहास इस संपूर्ण सृष्टि जितना पुराना ही है। श्रीमद्भागवत पुराण में माता विंध्यवासिनी का वर्णन किया गया है। कहा जाता है कि जब ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की तब उन्होंने इसके संचालन और संवृद्धि के लिए मनु और शतरूपा को बनाया। विवाह के बाद मनु ने अपने हाथों से माँ भगवती की मूर्ति बनाई और उनकी कड़ी तपस्या की। मनु की तपस्या से प्रसन्न होकर माता प्रकट हुईं और मनु को खूब वरदान दिए। इसके बाद माता विन्ध्यांचल रहने चली गईं।
कुछ मान्यताओं के अनुसार माता विंध्यवासिनी कोई और नहीं बल्कि भगवान श्रीकृष्ण की बहन योगमाया हैं जिसे कंस ने वासुदेव और देवकी की आठवीं संतान समझकर मारना चाहा, लेकिन वह नवजात कन्या कंस के हाथ से नकलकर आकाश पहुँच गई और कंस की मृत्यु की भविष्यवाणी की। इसका भी वर्णन श्रीमद्भागवत महापुराण में है। उसके बाद उन्होंने यहीं विन्ध्याचल में रहना स्वीकार किया। मार्कंडेय पुराण, पद्म पुराण एवं श्रीमद्भागवत महापुराण में मिर्जापुर की माता विंध्यवासिनी का वर्णन है और कहा गया है कि माता प्रलय के बाद भी इस सृष्टि में निवास करेंगी।
त्रिकोण यंत्र पर स्थित माता विंध्यवासिनी संपूर्ण रूप में पूजी जाती हैं। यही कारण है कि माता का यह मंदिर जागृत पीठ या संपूर्ण पीठ माना जाता है। माता विंध्यवासिनी, महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती के रूप में पूजी जाती हैं।
त्रिकोण यात्रा या परिक्रमा
जिस विन्ध्यांचल क्षेत्र में माता विंध्यवासिनी हैं वहाँ तीन किमी के दायरे में दो और मंदिर हैं। एक मंदिर है काली खोह पहाड़ी स्थित महाकाली का और दूसरा मंदिर है एक अन्य पहाड़ी पर स्थित माता अष्टभुजी का। विन्ध्यांचल क्षेत्र में इस त्रिकोण यात्रा का बड़ा महत्व है और बाकी दो मंदिरों की यात्रा किए बिना माता विंध्यवासिनी के दर्शन अधूरे ही माने जाते हैं। एक लघु त्रिकोण यात्रा भी होती है जहाँ मंदिर परिसर में ही माता के तीन रूपों के दर्शन किए जाते हैं।
तंत्र साधना और शाक्त संप्रदाय का परम पवित्र स्थान
वैसे तो दूसरे शक्ति पीठों में माता सती के कोई न कोई अंग गिरे थे जिसके बाद वहाँ शक्तिपीठ स्थापित हुए लेकिन यह एक पूर्ण पीठ है क्योंकि इसे माता शक्ति ने स्वयं अपने रहने का स्थान बनाया।
यह स्थान तांत्रिकों और शाक्त संप्रदाय के साधकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। वैसे तो मंदिर के कपाट रात्रि 12 बजे से सुबह 4 बजे तक बंद होते हैं, लेकिन नवरात्रि के दिनों में चार बार माता का श्रृंगार करने के लिए पट बंद किए जाते हैं। नवरात्रि में महानिशा पूजा का अलग महत्व है। इसके अलावा अष्टमी पर भी मंदिर में वाममार्गी और तांत्रिकों का जमावड़ा लगा रहता है।
कैसे पहुँचे?
वाराणसी और प्रयागराज से मिर्जापुर सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। दोनों शहरों में हवाईअड्डे भी हैं। सबसे नजदीक वाराणसी का हवाईअड्डा है जो मंदिर से लगभग 72 किमी की दूरी पर है। विन्ध्याचल रेलवे स्टेशन से मंदिर की दूरी लगभग 1 किमी है। लेकिन यहाँ सभी ट्रेने नहीं रुकती। हालाँकि 8 किमी दूर स्थित मिर्जापुर स्टेशन में लगभग सभी ट्रेनों का स्टाॅपेज है। मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित होने के कारण मध्य प्रदेश के शहरों से भी यहाँ आसानी से पहुँचा जा सकता है।