स्वतंत्रता संघर्ष की सुप्रसिद्ध तिकड़ी लाल-बाल-पाल के सबसे वाक्पटु व्यक्ति बिपिन चन्द्र पाल की 20 मई को पुण्यतिथि है। आज उनके संबंध में चर्चा करना तार्किक और संदर्भ के अनुकूल है। साथ ही बिपिन चन्द्र पाल पर चर्चा का एक कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी जुड़ा हुआ है।
दरअसल 14 मई को प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए स्वदेशी और आत्मनिर्भरता की बात कही थी। बिपिन चन्द्र स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इन विषयों के सबसे प्रमुख समर्थक थे। अंतः इस चर्चा की प्रासंगिकता और अधिक हो जाती है।
स्वदेशी और आत्मनिर्भरता पर पाल के दृष्टिकोण को जानने से पूर्व उनके संबंध में मूल परिचय आवश्यक है। उनका जन्म 7 नवंबर 1858 को वर्तमान बांग्लादेश के हबीगंज जिले के पोइल गाँव में हुआ था। उनका जन्म अमीर हिंदू परिवार में हुआ था। पिता रामचंद्र पाल फारसी के बड़े विद्वान थे। बिपिन जब नौ वर्ष के हुए तो परिवार के साथ सिलहट आ गए।
कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में शिक्षा अधूरी छोडकर बिपिन चन्द्र पाल हेडमास्टर के रूप में कार्य करने लगे। इसके बाद उन्होंने एक सार्वजनिक पुस्तकालय में लाइब्रेरियन का कार्य किया। यहीं उनका स्वतंत्रता सेनानियों से संपर्क हुआ। बिपिन चन्द्र ने लेखक और पत्रकार के रूप में स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान देना प्रारंभ किया। इसके लिए उन्होंने कलकत्ता, लाहौर, इलाहाबाद और लंदन से कई अंग्रेजी और बंगाली समाचार पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। इनमें परिदर्शक, न्यू इंडिया, वंदेमातरम्, द डेमोक्रेट और द इंडिपेंडेंट प्रमुख हैं।
लाल-पाल-बाल की प्रसिद्ध त्रयी ने राष्ट्रवाद के उग्रवादी स्वरुप का प्रचार किया। ब्रिटिश वस्तुओं और दुकानों का बहिष्कार, पश्चिमी वस्त्रों की होली जलाना और ब्रिटिश कारखानों पर हमला करने जैसी गतिविधियाँ कीं।
जब लार्ड कर्जन ने बंगाल विभाजन की घोषणा की तो इसका बिपिन चन्द्र ने सबसे प्रखर विरोध किया। इसके विरोध में ही उन्होंने स्वदेशी और बहिष्कार जैसे आन्दोलन प्रारंभ किए थे। वर्ष 1920 में पाल ने कुछ वरिष्ठ कॉन्ग्रेस नेताओं के साथ मिलकर गॉंधीजी के असहयोग आन्दोलन के प्रस्ताव का विरोध किया था, क्योंकि वह इस आन्दोलन को स्वराज के लक्ष्य को संबोधित करने वाला नहीं मानते थे। किन्तु उनका प्रस्ताव पारित नहीं हो सका और वह धीरे-धीरे सक्रिय राजनीति से दूर हो गए।
अपने जीवन की द्वितीय पारी में उन्होंने अपना समय राजनीतिक गतिविधियों की तुलना में दर्शन और धर्म के अध्ययन के लिए अधिक समर्पित किया। 20 मई 1932 को 73 वर्ष की आयु में कलकत्ता (कोलकाता) में स्वतंत्रता संग्राम के नायक बिपिन चन्द्र पाल का निधन हो गया।
स्वतंत्रता सेनानियों में बिपिन चन्द्र स्वदेशी, स्वराज्य और बहिष्कार के सबसे प्रबल समर्थक थे। उन्होंने 1906 से 1909 के मध्य दिए ‘द गॉस्पेल ऑफ स्वराज’ और ‘स्वराज इट्स वेस एंड मीन्स’ के भाषणों में इन शब्दों का अर्थ समझाया था। पाल ने स्वराज को स्व-कराधान, वित्तीय नियंत्रण का अधिकार और विदेशी आयातों पर सुरक्षात्मक और निषेधात्मक शुल्क लगाने का अधिकार प्राप्त करना माना था। इसके साथ ही इस लक्ष्य प्राप्ति का साधन कानून के भीतर निष्क्रिय प्रतिरोध और आत्मनिर्भरता को माना था।
प्रधानमंत्री ने जिस आत्मनिर्भर भारत और स्वदेशी की बात की है उसे बिपिन चन्द्र पाल के दृष्टिकोण से भी देखा जा सकता है। स्वदेशी के संबंध में बिपिन चन्द्र पाल ने कहा था कि हम बाजार में सस्ती वस्तुओं का आयात प्रतिबंधित नहीं कर सकते हैं। न ही सरकार को ऐसा करने के लिए मजबूर कर सकते हैं। किन्तु हम दृढ़ संकल्प से विदेशी वस्तुओं को खरीदने से इनकार अवश्य कर सकते हैं। इस प्रकार विदेशी सामान खरीदने से इनकार कर बहिष्कार आंदोलन द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से अपने स्वयं के उद्योगों की रक्षा की जा सकती है।
आज भी सरकार के लिए विश्व व्यापार संगठन और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संधियों के कारण आयात प्रतिबंधित करना सहज नहीं है। ऐसे में बिपिन चन्द्र पाल का दृष्टिकोण स्वदेशी को बढ़ावा देने के लिए प्रासंगिक प्रतीत होता है।