हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन पर बयानबाजी के बाद इंडियन फार्मा इंडस्ट्री ‘हॉट टॉपिक’ बन चुकी है। लोग अपने-अपने हिसाब से अंदाजा लगा रहे हैं कि भारत ने अमेरिका के सामने घुटने टेक दिए या फिर भारत दवाइयों का शहंशाह है और पहले अपनी माँग और आपूर्ति का ध्यान रखेगा और उसके बाद ही किसी अन्य देश को सप्लाई करेगा। इस चर्चा ने एक मौका दिया है कि फार्मा इंडस्ट्री की वस्तुस्तिथि और अन्य संबंधित मुद्दों पर चर्चा की जा सके।
चूँकि यह अभी चर्चा का विषय बन चुका है, तो हमने अधिक जानकारी के लिए फार्मा (दवाई) उद्योग से जुड़े एक व्यक्ति से बात करने की कोशिश की। निजी कारणों से उन्होंने अपनी पहचान जाहिर करने से मना किया है। उनकी बातों से हमें इस उद्योग के कुछ ऐसे पहलुओं पर चर्चा करने का मौका मिला जो आम लोगों के लिए अज्ञात है।
उम्मीद के मुताबिक़ ही अधिकतर आम जन किसी भी देश में फार्मा कंपनियों की मौजूदगी, उनके द्वारा बनाई जाने वाली दवाईयों और मार्केटिंग के आधार पर पर विभिन्न देशों के बीच शक्तियों की तुलना कर रहे हैं। हालाँकि, इसमें कई पहलू हैं जिसमें हेल्थ एजेंसियों के बीच खींचतान, जेनेरिक बनाम इनोवेटर दवाइयाँ, एक्टिव फार्मास्युटिकल इनग्रेडिएंट (API), कंपनियों की रिसर्च एंड डेवलपमेंट यूनिट, प्रोडक्शन यूनिट और कॉर्पोरेट ऑफिस कुछ महत्वपूर्ण फैक्टर हैं।
जानकारी के लिए बता दें कि विश्व में अनेकों देशों की अपनी स्वास्थ्य संस्थाएँ हैं जो दवाइयों के निर्माण, वितरण, संबंधित बीमारियों में प्रयोग और अन्य उपयोगों से संबंधित निर्देश जारी करती हैं। इनमें अमेरिकी संस्था फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (US FDA) और यूरोप की यूरोपियन मेडिसिन एजेंसी (EMA) अग्रणी हैं। फार्मा कंपनियों में इन दोनों ही एजेंसियों का प्रभुत्व कायम है और दवाइयों, वैक्सीन अथवा मेडिकल डिवाइसेज के लिए इनके द्वारा दिए गए निर्देशों को मानना और उनकी शंकाओं का निवारण करने के लिए सभी कम्पनियाँ, जो कि इनके देशों में दवाइयाँ बेचती हैं, बाध्य होती हैं।
विशेष रूप से FDA अपने बनाए नियमों को लेकर अत्यधिक सख्त है और ‘अपने लोगों’ के स्वास्थ्य को लेकर दवाइयों में किसी भी तरह की खामियों को स्वीकार नहीं करती है। भारत में दवाइयों पर नियंत्रण रखने का काम CDSCO (Central Drugs Standard Control Organization) और DCGI (Drugs Controller General of India) मिलकर करते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य विभागों के प्रभुत्व और खींचतान को समझने के लिए हमें कुछ वर्ष पीछे जाना पड़ेगा।
2005 तक भारत ने दवाईयों के आपूर्तिकर्ता के रूप में तेजी से उभरना शुरू किया और कई भारतीय कंपनियों ने देश-विदेश में अपनी सफलता के झंडे गाड़ने शुरू किए। यदि आप इंटरनेट पर थोड़ी सी खोज करेंगे तो पाएँगे कि 2008 से 2012-13 तक FDA ने कई भारतीय कंपनियों द्वारा एक्सपोर्ट की जाने वाली दवाइयों पर ‘सब-स्टैण्डर्ड क्वालिटी प्रोडक्ट’ अथवा ‘प्रोडक्शन में हुई खामियाँ’ कहकर बैन लगाया और इनकी कमियों को लेकर लाखों डॉलर्स में फाइन लगाया।
हालाँकि, इन कंपनियों ने इस बात को चुनौती भी दी। अपने तर्क में इन कंपनियों का कहना था कि FDA ने सिर्फ जेनेरिक दवाओं (जिनका एक्टिव इनग्रेडिएन्ट पेटेंट से बाहर हो चुका हो और कई कंपनियों द्वारा इसकी दवा के निर्माण की अनुमति हो) पर प्रतिबन्ध लगाया लेकिन उन ब्रांडेड दवाओं पर नहीं जो विशेष रूप से कैंसर, ह्रदय रोग, मल्टीपल स्क्लेरोसिस अथवा रेट्रोवायरल जैसी बीमारियों में लड़ने के लिए अति-आवश्यक थीं और विभिन्न कारणों से जिनका सीमित प्रोडक्शन ही किया जा सकता था।
हालाँकि, FDA द्वारा उठाई गई कमियों को नजरअंदाज करना भी गलत होगा। FDA के दबाव का ही नतीजा है कि कई कम्पनियाँ अमेरिका में भेजी जाने वाली दवाइयों का निर्माण अपनी देख-रेख में, अपने प्लांट में करती हैं लेकिन अन्य देशों को जाने वाली सप्लाई का ऑर्डर कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाली छोटी इकाईयों को देती हैं। इसे इस तरह समझिए कि एक हलवाई मिनिस्टर या VIP के लिए सावधानी से, खुद मिठाई बनाकर खिला रहा हो और आम-लोगों के लिए किसी को भी मिठाई बनाकर बाँट देने को कहे।
अगर हलवाई को मिठाई की क्वालिटी पर भरोसा हो तो वो सभी को एक ही जगह से बनी मिठाई को खिलाने में किसी भी तरह का संकोच नहीं करेगा। मार्केटिंग में सेल को प्रमोट करने के लिए सेल्स-रिप्रेज़ेंटेटिव द्वारा डाक्टरों को लालच देना और दवा लिखने के बदले डॉक्टरों की फॉरन ट्रिप, फिल्म टिकट या कॉन्फरेंस के लिए पैसों की माँग के किस्से मीडिया में आते ही रहते हैं। हालाँकि, सभी ऐसा नहीं करते, ये उल्लेखित करना भी यहाँ अत्यंत जरूरी है।
अब बात हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन विवाद की। इसमें कोई दोराय नहीं कि इतने वर्षों में भारतीय फार्मा कंपनियों ने अपनी गुणवत्ता में सुधार करके विश्व में अपनी अलग पहचान बनाई है और जेनेरिक दवाइयों का सबसे बड़ा सप्लायर बनकर उभरा है। लेकिन यह ध्यान रखने योग्य बात है कि आज भी चीन APIs का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है और यही दवाइयों के निर्माण और सप्लाई (फ़ाइनल फॉर्मुलेशन) का आधार है। सिर्फ ट्रम्प ने एक दवा का नाम लिया इसलिए अचानक से वह महत्वपूर्ण नहीं हो जाती।
अमेरिकी न्यूज़ गलियारों में ट्रम्प और एक फार्मा कम्पनी से उनके कनेक्शन पर भी शायद आम जनता निगाह डालना चाहेगी। दूसरी ध्यान देने योग्य बात कि COVID-19 के इलाज के लिए ही एनाल्जेसिक/एन्टिपाइरेटिक कैटेगरी की एक अन्य दवाई के निर्यात पर भारत ने पूर्ण प्रतिबन्ध लगाया हुआ है। इसलिए भ्रान्ति फैलाने वाले मीडिया और आरोप-प्रत्यारोप करने वाले अज्ञानियों से दूर रहने में ही आम-जनमानस की भलाई है।
फार्मा सेक्टर दवाइयों और वैक्सीन से दुनिया की सेवा कर रहा है लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि कॉर्पोरेट सिर्फ और सिर्फ पैसा देखता है। COVID-19 दुनिया के समक्ष आज सबसे बड़ी चुनौती है लेकिन यही चुनौती फार्मा जगत के लिए सबसे बड़ा मौका भी है। कोरोना वायरस के सामने आते ही फार्मा कम्पनियाँ पहले से ही मौजूद दवाइयों के कोरोना वायरस के इलाज की टेस्टिंग में जुट चुकी थीं।
चूँकि जेनेरिक दवाइयों की उपलब्धता अधिक रहती है और इन पर सीमित अधिकार नहीं होते, इसलिए चर्चा में भी यही अधिक आती हैं। लेकिन फार्मा कम्पनियाँ पहले से ही मौजूद इनोवेटिव दवाइयों जिनमें इम्युनोमोड्यूलेटर, एंटीवायरल इत्यादि दवा और वैक्सीन हैं, का COVID-19 के इलाज में ट्रायल/विश्लेषण शुरू कर चुकी हैं। इसकी सफलता से मानव जीवन को तो कोरोना वायरस से छुटकारा मिलेगा ही, साथ ही दशकों तक दवाइयों की खोज में पानी की तरह पैसा बहाने वाली फार्मा कंपनियों में भी नए उत्साह का संचार होगा।
इसलिए इस विवाद में मत पड़िए कि ‘ट्रम्प ने धमकाया तो मोदी डर गया’। सोचिए कि एक कंपनी जिसका ‘रिसर्च एंड डेवलपमेंट’ यूनिट यूरोप या अमेरिका में हो, प्रोडक्शन यूनिट भारत में हो, API चीन से आता हो और सदियों तक जिसने रिसर्च और ड्रग सेफ्टी में पैसा लगाया हो, सिर्फ ट्रम्प के फैसले पर निर्भर होगी क्या? ऐसी कंपनियों के कॉर्पोरेट ‘डॉक्यूमेंट ऑफ़ म्यूचुअल एग्रीमेंट, नॉलेज शेयरिंग’ एवम आपसी तालमेल पर हस्ताक्षर करते हैं और विपदा में एक-दूसरे का साथ निभाने को बाध्य होते हैं। वजह चाहे मानवीय हो या वित्तीय। इसलिए दूसरे देशों की मदद करना भारत का कर्तव्य है और भारत की मदद करना अन्य देशों का। बस इतनी सी बात है।
हाँ! इस पर चर्चा होनी चाहिए कि भारत के लिए ये हेल्थ सेक्टर में अग्रणी बनने का अच्छा मौका है और अभी तक फार्मा इंडस्ट्री ने अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाया भी है। भारतीय फार्मा इंडस्ट्री सरकार के सामने अपनी माँगें रख सकती है। प्रोडक्शन यूनिट से लेकर सप्लाई चेन, रॉ-मटीरियल और फिनिश्ड गुड के क्वालिटी अस्योरेंश से लेकर क्वालिटी चेक तक, पैकिंग यूनिट से लेकर मार्केटिंग, प्लांट में दी जाने वाली कम सैलरी से लेकर कॉर्पोरेट ऑफिस की चकाचौंध तक, हर खामी और जरूरत का ब्यौरा सरकार और कम्पनी के मालिकों के सामने रखा जा सकता है।
साथ ही CDSCO और DCGI के पास भी मौका है कि वे विश्लेषण करें कि EMA और FDA की तुलना में विश्व स्वास्थ्य में उनका स्थान और योगदान क्या है? सिर्फ इनका अनुसरण करने की जगह ये भारतीय संस्थाएँ अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार स्टाफ की भर्ती करें, भारत भर में अपने नए ऑफिस खोलें और दवाओं की आपूर्ति और वितरण पर नियंत्रण बढाएँ।
सबसे जरूरी है कि दवाइयों के ‘नुकसान (साइड इफेक्ट) और लाभ’ के तुलनात्मक विश्लेषण पर अधिक जोर दें। इसमें कोई दोराय नहीं कि कड़े और विश्वसनीय नियमों के साथ भारत FDA और EMA की तुलना में कहीं आगे निकल सकता है। COVID-19 हमारे लिए चाहे बुरा सपना बनकर आया है, लेकिन इसने हमें हर बार चीन जैसे मुल्कों की ओर ताकने की जगह आत्मनिर्भर बनने का कड़ा सन्देश दिया ही है। हम जरूर उठेंगे और विश्व स्वास्थ्य के क्षेत्र में अग्रणी बनेंगे।