ईरानी मूल के रिफ्यूजी मेहरन करीमी नासेरी (Mehran Karimi Nasseri) की मृत्यु हो गई है। उन्होंने पेरिस के चार्ल्स डी गॉल हवाई अड्डे पर अंतिम साँस ली। मेहरन करीमी ने 18 सालों तक इसी हवाई अड्डे पर निवास किया।
हवाई अड्डा प्राधिकरण की तरफ से दी गई जानकारी के अनुसार शनिवार दोपहर को जब मेहरन करीमी हवाईअड्डे के टर्मिनल 2F के पास से गुजर रहे थे, तभी उन्हें दिल का दौरा पड़ा। आनन-फानन में पुलिस और मेडिकल टीम मेहरन करीमी के पास पहुँची लेकिन उन्हें बचाया नहीं जा सका।
Mehran Karimi Nasseri, the Iranian political refugee who lived more than 18 years at Charles de Gaulle Airport of Paris and whose life inspired Steven Spielberg’s film “The Terminal”, has died there of natural causes on Saturday, November 12, an airport official told AFP. pic.twitter.com/6D52tzFxxT
— Iran International English (@IranIntl_En) November 12, 2022
ईरानी मूल के मेहरन करीमी नासेरी 18 वर्षों (26 अगस्त 1988 से लेकर जुलाई 2006) तक पेरिस के चार्ल्स डी गॉल हवाई अड्डे पर ही अपना जीवन बिताया था। इनकी कहानी ने स्टीवन स्पीलबर्ग को ‘द टर्मिनल (The Terminal)’ जैसी फिल्म बनाने को प्रेरित किया।
दिलचस्प है मेहरन करीमी नासेरी की कहानी
नासेरी का जन्म साल 1945 में ईरान के एक हिस्से सुलेमान में हुआ था। तब ईरान ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा था। नासेरी की माँ एक ब्रिटिश महिला थी और पिता ईरानी। वर्ष 1974 में मेहरन करीमी नासेरी अध्ययन के लिए ईरान से इंग्लैंड पहुँचे। अध्ययन के बाद जब वो अपने देश लौटे तो उन्हें ईरान के ‘शाह’ शासन का विरोध करने के लिए कैद किया गया था और बिना पासपोर्ट के निष्कासित कर दिया गया।
अपने देश से निष्कासन के बाद मेहरन करीमी ने यूरोप के कई देशों में राजनीतिक शरण के लिए आवेदन किया। दावा हालाँकि यह भी किया जाता है कि उन्हें ईरान से निकाला नहीं गया था बल्कि उन्होंने खुद ही ईरान छोड़ा था।
कई जगहों पर आवेदन देने के बाद नासेरी को बेल्जियम स्थित ‘यूनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर रिफ्यूजीज’ने रिफ्यूजी का स्टेटस दे दिया। 1988 में वह लंदन आए लेकिन उनके पास इमिग्रेशन अफसरों को दिखाने के लिए पासपोर्ट नहीं था। इस कारण से मेहरन करीमी नासेरी लंदन में नहीं रुक सके, उन्हें पेरिस लौटना पड़ा।
बदकिस्मती मानो उनका पीछा कर रही थी। शरणार्थी प्रमाण पत्र वाला उनका ब्रीफकेस पेरिस रेलवे स्टेशन में चोरी हो गया था। फ्रांसीसी पुलिस ने दस्तावेज न होने की वजह से गिरफ्तार भी कर लिया था लेकिन बाद में उन्हें छोड़ दिया गया। एयरपोर्ट में उनकी एंट्री वैध थी लेकिन नासेरी के पास लौटने के लिए कोई देश नहीं था, कोई घर नहीं था। इसलिए पेरिस के चार्ल्स डी गॉल एयरपोर्ट का ‘टर्मिनल वन’ उनका घर बन गया।
ईरानी नहीं ब्रिटिश कहलाना पसंद करते थे नासेरी
फ्रांस में नासेरी का मामला कोर्ट पहुँचा। 1992 में फ्रेंच कोर्ट ने अपनी सुनवाई में कहा कि देश में उनकी एंट्री वैलिड है, इसलिए उन्हें एयरपोर्ट से नहीं निकाला जा सकता। कोर्ट ने लेकिन एक पेंच फँसा दिया। अदालती आदेश के अनुसार उन्हें फ्रांस में आने (एयरपोर्ट से बाहर निकल कर फ्रांस में रहने) की अनुमति भी नहीं मिल सकती।
बाद में फ्रांस और बेल्जियम ने नासेरी को अपने यहाँ रहने का ऑफर दिया। नासेरी चाहते थे कि उन्हें ब्रिटिश ही कहा जाए लेकिन एक दिक्कत थी। दोनों देशों के पेपर पर वो ‘ईरानियन’ ही थे। आज़ादी का मौका मिलने के बावजूद नासेरी ने पेपर्स साइन नहीं किए। इस तरह वो एयरपोर्ट से निकलने और स्थाई ढंग से रहने का मौका गँवा बैठे।
एयरपोर्ट कर्मियों से दोस्ती कर बन गए मिनी सेलिब्रिटी
मेहरन करीमी नासेरी मिलनसार थे। एयरपोर्ट के टर्मिनल वन पर रहते हुए दिन गुजरते गए। गुजरते वक्त से साथ एयरपोर्ट कर्मचारी उनके मित्र बन गए। एयरपोर्ट पर ही अपना सामान वगैरह जमा लिया था और वहीं पढ़ाई-लिखाई करते थे। खाना और अख़बार उन्हें एयरपोर्ट के कर्मचारियों से मिल जाता था।
एयरपोर्ट पर मेहरन करीमी नासेरी यात्रियों की मदद करने लगे। देखते-देखते लोग उन्हें जानने लगे और उनकी पहचान एक मिनी सेलिब्रिटी के तौर पर बनने लगी। उत्सुक पत्रकार उनकी कहानी जानने के लिए आते रहे। 18 सालों (26 अगस्त 1988 से लेकर जुलाई 2006) तक यह सिलसिला चला।
बीमार रहने लगे मेहरन करीमी
एयरपोर्ट पर भले ही उन्हें कुछ सुविधाएँ मिल रही थीं परंतु उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता जा रहा था। बढ़ती उम्र की वजह से कई परेशानियाँ सामने आने लगीं। खराब स्वास्थ्य की वजह से जुलाई 2006 में उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया और टर्मिनल में उनके रहने की जगह को हटा दिया गया। 6 मार्च, 2007 को उन्हें पेरिस के शेल्टर होम में भेज दिया गया। 2008 के बाद से नासेरी वहीं रह रहे थे।
मेहरन करीमी नासेरी की जिंदगी पर बनी हॉलीवुड फिल्म
नासेरी एयरपोर्ट पर रहते हुए आत्मकथा भी लिख रहे थे। उनकी यह आत्मकथा 2004 में ‘द टर्मिनल मैन’ के नाम से छपी। यह किताब उन्होंने ब्रिटिश लेखक एंड्र्यू डॉन्किन के साथ मिलकर लिखी थी। किताब लोकप्रिय हो गई, जिसके बाद स्टीवन स्पीलबर्ग ने इस पर फिल्म बनाने की ठानी। स्पीलबर्ग की प्रोडक्शन कंपनी ड्रीमवर्क्स ने 2003 में फिल्म बनाने के लिए नासेरी से 2,50,000 डॉलर (अभी लगभग 2 करोड़ रुपए) में राइट्स खरीदे। साल 2004 में ‘द टर्मिनल (The Terminal)’ के नाम से फिल्म बनी, जो बेहद कामयाब रही।