खुले में नमाज हो या पीरियड आते ही निकाह की रवायत या फिर मोपला नरसंहार के दबे पन्ने… 2021 में जिनसे सब भागे, उन पर हमने की बात

2021 के वे मुद्दे जिन पर हम लगातार करते रहे बात

वे गुरुग्राम की सड़कों, पार्कों और हर उस जगह पर नमाज पढ़ने को अमादा थे जिससे आपकी रोजमर्रा की जिंदगी प्रभावित हो। जिससे आपको उनकी हनक का पता चले। पर सेक्स और हिंदूफोबिया में सनी मुख्यधारा की मीडिया को इस साल भी इससे फर्क नहीं पड़ा। उन्होंने जब भी इस पर बात की तो उन्हें हिंदू ही असहिष्णु दिखे। पर हमने तमाम दबावों को दरकिनार कर साल भर इस पर बात की। मोपला नरसंहार के इस शताब्दी वर्ष में हम वे पन्ने खोलकर लाए जिन्होंने बताया कि हमें जो किसान विद्रोह बताकर पढ़ाया गया था, असल में वह हिंदुओं का सुनियोजित कत्लेआम था। चाहे एनसीईआरटी की किताबों में छपा प्रोपेगेंडा हो या वह कठमुल्ला कानून जो पीरियड आते ही मुस्लिम लड़कियों के निकाह को जायज ठहराता है, पर खुलकर बात की। काशी के विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त करने के औरंगजेब के शाही फरमान से लेकर बॉलीवुड की हिंदूफोबिया तक के हर पहलू पर चर्चा की। असल जिंदगी के उन नायकों की बात की जिन्होंने आरक्षण की बैसाखी के बिना सिक्योरिटी गार्ड से IIM प्रोफेसर तक का सफर तय किया।

जब 2021 जाने को है, हम समेट लाए हैं कि 15 ऐसी खबरें जो मीडिया के लिए मिसफिट था, लेकिन 2022 में भी जो हमें याद दिलाते रहेंगे अपने पाठकों के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को।

कृषि कानूनों की वापसी, पंजाब चुनाव और हिंदू-सिख संबंध

2021 का ये पूरा साल किसान प्रदर्शनकारियों से जुड़ी खबरों के कारण चर्चा में रहा। कभी प्रदर्शन से हिंसा की खबरें आई, कभी रेप की, कभी हत्या की और कभी धमकियों की। ऐसे में केंद्र में बैठी मोदी सरकार ने एक साल से चल रहे प्रदर्शन को रोकने के लिए 19 नवंबर 2021 को ये तीन कृषि कानूनों को वापस ले लिया और कहा कि शायद वो कुछ किसानों को समझाने में असफल हो गए इसलिए वो इन कानूनों को वापस लेते हैं। मोदी सरकार के इस फैसले के साथ ही वो धड़ा एकदम से नाराज हो गया जिन्होंने शुरू से नए कृषि कानूनों को सराहा था। पीएम के प्रति नाराजगी, बीजेपी से गुस्सा उस समय बेहद सामान्य भाव थे। ऐसे में ऑपइंडिया में प्रकाशित एक लेख के भीतर उन संभावनाओं से लेकर उन घटनाओं का जिक्र किया गया जिसकी वजह से केंद्र ने अपना फैसला बदला। इस लेख में न केवल आपको राष्ट्र सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं पर जानकारी दी गई बल्कि निष्पक्ष ढंग से पंजाब चुनाव वाले तर्क को वर्णित किया गया और हिंदू-सिख संबंधों पर भी उन किताबों के आधार पर बात हुई जो बीजेपी की साइट पर मौजूद हैं।

निकाह की उम्र

हाल में केंद्र की मोदी सरकार ने लड़कियों की शादी की उम्र 18 से 21 करने का जो निर्णय लिया उससे समाज के कई लोग चिढ़े दिखाई दिए। इनमें सबसे ज्यादा मुस्लिम समुदाय के कट्टरपंथी थे। उन्होंने तो इस फैसले को लड़कियों को आवारा बनाने वाला, उन्हें छूट देने वाला, लोकतंत्र के ख़िलाफ़ और न जाने क्या-क्या कह दिया। मगर, बावजूद इसके एक सवाल सबके जहन में था कि क्या जो सरकार नए बदलाव लाने के लिए फैसला ले रही है वो इस्लामिक लॉ को प्रभावित करेगा या नहीं, क्योंकि इस्लामिक लॉ में तो पीरियड आने के बाद लड़की को बालिग मान लिया जाता है, वहाँ उम्र तय नहीं है। ऐसे में ऑपइंडिया ने आपके सामने उन खबरों के हवाले से इस सवाल को उठाया, जब भारतीय संविधान की जगह फैसला इस्लामिक लॉ को देखते हुए लिए गए। हालाँकि बाद में पता चला कि सरकार द्वारा जो संशोधन किया जाएगा वो अन्य सभी धर्मों के साथ-साथ मुस्लिमों पर भी लागू होगा।

मंदिरों की संपत्ति

प्राचीन मंदिरों और स्मारकों के रखरखाव के लिए इस वर्ष मद्रास हाईकोर्ट का एक फैसला आया था जिसका लब्बोलुआब था कि मंदिरों की जो जमीन है, उनका जो पैसा है, वह सब उनपर ही खर्च किया जाना चाहिए। ऐसे में सद्गुरु वासुदेव जैसे लोग जो तमिलनाडु में हिंदू मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से छुड़ाने की कोशिशों में थे उनके अभियान को बल मिला था। इसी बीच ऑपइंडिया ने आपको इस खबर पर रिपोर्टिंग के साथ ये भी बताया था कि भारत का संविधान किस तरीके से हिंदुओं को अपने मंदिरों और उनकी संपत्तियों के संचालन करने का अधिकार देता है। ‘अनुच्छेद 14’ , ‘अनुच्छेद 25’ और  ‘अनुच्छेद 26’ के साथ हमने आपको राज्य के मंदिरों और वहाँ की वर्तमान  दशा का भी चेहरा दिखाया था।

खुले में नमाज

गुरुग्राम में खुले में नमाज पढ़ने का विरोध जिस प्रकार हिंदुओं द्वारा किया गया उसने देश के अन्य कोनों में रह रहे हिंदुओं को एक बड़ी सीख दी। ये सीख थी कि अपने आस-पास किस तरह सार्वजनिक स्थलों को कब्जे से बचाएँ और कैसे ये गुरुग्राम की घटना को याद रखकर प्रेरित हों। ऑपइंडिया ने भी इसी तर्ज पर आपको अपने लेख के जरिए बताया था कि आखिर क्यों गुरुग्राम में हुई घटनाएँ अन्य शहरों में न केवल लोगों के लिए बल्कि स्थानीय प्रशासन के लिए एक केस स्टडी की तरह होनी चाहिए क्योंकि सार्वजनिक स्थलों पर नमाज पढ़ने जैसे मजहबी कार्यकलाप, दीर्घकाल में सामाजिक समरसता के लिए सही नहीं हैं।

IIM प्रोफेसर बने रंजीत रामचंद्रन

कुछ खबरें कभी-कभी ऐसी होती हैं जो भले ही हमेशा सुर्खियों में नहीं रहती लेकिन कुछ लोगों के जीवन पर खासी छाप छोड़ती हैं। ऐसी ही एक खबर साल 2021 में आई जो रंजीत रामंचद्रन से जुड़ी थी। रंजीत का खबरों में आना इसलिए चर्चा का विषय नहीं कि उन्हें IIM राँची में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर चुना गया। बल्कि ये खबर इसलिए दोबारा पढ़ने वाली है क्योंकि रंजीत प्रोफेसर बनने से पहले एक नाइट गार्ड हुआ करते थे और आगे बढ़ने के लिए उन्होंने आरक्षण को अपना सहारा नहीं बनाया। बिन रिजर्वेशन उन्होंने प्रोफेसर बनने तक का मुकाम पाया और बाद में उनका एक पोस्ट वायरल हुआ जिसमें उन्होंने लिखा था IIM के प्रोफेसर का घर इसी घर में हुआ।

मोपला नरसंहार

इतिहास के नाम पर हमें जो किसानों का विद्रोह बचपन से लेकर बड़े होने तक पढ़ाया गया वो वास्तविकता में मोपला नरसंहार था। एक ऐसा नरंसहार जिसने न केवल मजहबी कट्टरपंथियों की बर्बरता को दोबारा प्रासंगिक बनाया बल्कि साथ में सैंकड़ों हिंदुओं को तड़पा तड़पा कर मारने में कोई कसर नहीं छोड़ी। स्थिति 1921 में कितनी भयावह थी इसका अंदाजा एक वाकये से लगाइए कि दंगाई न हिंदुओं के घरों को छोड़ रहे थे और न मंदिरों को, न औरतें बख्शी जा रही थीं और न बुजुर्ग। एक दृश्य तो इतना दर्दनाक भी था जहाँ भूख से तड़पती एक डेढ़ साल की बच्ची अपनी मरी माँ के स्तनों को चूस रही थी कि उसे किसी तरह एक दूध की बूंद मिल जाए। इस झकझोर देने वाले दृश्य को जब नीलमपुर मानववेदन तिरुमुलपद के दूसरे राजा ने देखा। तो उन्होंने उस अनाथ बच्ची को गोद लिया, उसका नाम कमला रखा और उसे अपनी बेटी के रूप में पाला। बाद में 1938 में कमला का विवाह इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के जूनियर इंजीनियर पद्मनाभ मेनन से हुआ। ऑपइंडिया पर मोपला नरसंहार पर जो लेख आपको पढ़ने को मिले उनमें से एक को कमला और पद्मानाभ मेनन के पोते श्याम श्रीकुमार ने ही लिखा था।

कोविड वैक्सीनेशन

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने कोविड वैक्सीन देने में जो नए रिकॉर्ड बनाए उनसे आज कोई भी देश अंजान नहीं है। लेकिन कुछ समय पहले का वक्त यदि याद करें तो पता चलेगा कि कैसे वैक्सीन के विरुद्ध अभियान चलाने में अपने ही देश की ईसाई मिशनरियों से लेकर नामी उलेमाओं तक ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था। हालाँकि बावजूद इसके भारत ने 100 करोड़ के पार वैक्सीनेशन का रिकॉर्ड कायम किया। ये आँकड़ा कितना ज्यादा है इसका अंदाजा इस बात से लगाइए कि अमेरिका, इंग्लैंड, रूस, फ्रांस, और जर्मनी की पूरी जनसंख्या को मिला दिया जाए तो वह तकरीबन 68 करोड़ के आसपास बैठती है और भारत ने जिस 100 करोड़ का आँकड़ा पार किया है वो इन पाँच उन्नत देशों की समूची आबादी के डेढ़ गुने के बराबर है।

जब एक बुजुर्ग स्वयंसेवक ने दिखाई राह

कोरोना महामारी का प्रकोप जब पूरे देश में फैल गया था और अस्पताल के लिए मारामारी चल रही थी। उस समय एक 85 साल के बुजुर्ग व आरएसएस कार्यकर्ता नारायण दाभदकर ने कोविड से पीड़ित होने के बाद भी अपना बेड छोड़ दिया था क्योंकि उन्होंने वहीं अस्पताल में खड़ी एक 40 साल की महिला को अपने पति के लिए रोते देख लिया था। वह अपने पति को एडमिट कराने की भीख माँग रही थी। इसी दृश्य को देख दाभदकर काका ने आराम से मेडिकल टीम को सूचित किया कि उनका बिस्तर महिला के पति को दे दिया जाए। उन्होंने कहा, “मैं अब 85 वर्ष का हो चुका हूँ, मैंने अपना जीवन जी लिया है। आपको मेरे बदले इस आदमी को बेड ऑफर करना चाहिए, क्योंकि उसके बच्चों को उसकी जरूरत है।” इस फैसले के बाद वो घर आए बीमारी से तीन दिन लड़े और फिर उनका स्वर्गवास हो गया। उनके जाने के बाद ये कहानी फेसबुक पोस्ट के जरिए वायरल हुई थी।

बॉलीवुड की हिंदूफोबिया

बॉलीवुड की मनोरंजन वाली दुनिया थोड़ी अलग है। आप सोचते हैं कि वहाँ बनने वाली फिल्में आपके एंटरटेनमेंट के लिए हैं या फिर आपके ज्ञानवर्धन के लिए। लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं होता। वहाँ प्रोपगेंडा एक कारक की तरह काम करता है जिसे फॉलो करने के चक्कर में निर्माता कितनी चालाकी से असली कहानियों से छेड़छाड़ करते है इसका पता दर्शक को भी नहीं चलता। पिछले कुछ सालों में हमने ऐसी तमाम फिल्म देखी हैं जिसमें प्रोपगेंडा के तड़के ने पूरी कहानी को ही बदल दिया हो। बात चाहे चक दे इंडिया की हो जिसमें मीर रंजन नेगी को कबीर खान बना दिया गया, शेरनी की हो जिसमें असगर अली खान को बना दिया ‘पिंटू भैया’ बना दिया या फिर आर्टिकल 15 की जिसमें बदायूँ रेप काण्ड के दोषियों को ब्राह्मण बनाकर पेश किया गया। ऑपइंडिया ने ऐसी ही फिल्मों की लंबी सूची बनाते हुए प्रोपगेंडा का पर्दाफाश किया था।

सावरकर और गाँधी

यूँ तो तमाम चीजें हैं जिन्हें भारतीय इतिहास को पढ़ाने के दौरान सालों तक छिपाया गया। लेकिन वीर सावरकर भारतीय इतिहास का वो नाम हैं जिन्हें लेकिन बातें जो छिपाई गईं वो अलग हैं और उन्हें लेकर जो गलत या आधी अधूरी जानकारी पढ़ाई गई उसकी लिस्ट अलग है। दर्शाया जाता है कि महात्मा गाँधी और वीर सावरकर की विचारधारा अलग थी इसलिए वो एक दूसरे के विरोधी थे। हालाँकि सच क्या है इसका पता महात्मा गाँधी और सावरकर के रिश्तों और एक दूसरे को भेजे गए पत्रों से चलता है। इन्हीं पत्रों से मालूम पड़ता है कि न केवल महात्मा गाँधी ने समय आने पर वीर सावरकर के लिए एक समय में रिहाई के लिए आवाज उठाई थी बल्कि सावरकर ने भी गाँधी की रिहाई के लिए आवाज उठाई थी।

कश्मीरी पंडितों के जख्म

1990 में कश्मीर घाटी में क्या-क्या हुआ…आज इसके बारे में आपको तमाम जगह पढ़ने को मिलता है। लेकिन उस 90 के दर्द को आज भी कैसे कश्मीरी अपने दिल में हरा करके जिंदा हैं ये तब ही पता चलता है जब उनसे बात की जाए। कश्मीरी पंडितों पर जो गुजरी उसकी एक गवाह आरती टिकू सिंह भी हैं। वो एक कश्मीरी पत्रकार हैं जिन्होंने उन सालों की भयावहता को याद करते हुए बताया कि कैसे उनके घर में एक मुस्लिम लड़का काम करता था और वो बताता था कि कब कहाँ विस्फोट होगा। जब टिकू के परिवार को शक हुआ और उससे सवाल किए गए तो पता चला कि ये सारी बातें मस्जिदों में तय होती हैं और वहीं पता चलता है किसे मारना है कितने लोगों को मारना है। आपबीती सुनाते हुए टिकू ने यहाँ तक बताया कि एक दिन ऐसा भी आया जब सभी मर्द घर के बाहर खड़े थे और औरतों ने सभी लड़कियों को इकठ्ठा कर के कहा कि अगर ‘वो लोग’ मोहल्ले में घुसने में कामयाब होते हैं तो लाइटर और दियासलाई से गैस सिलिंडर में आग लगा देनी है। यानी, मौत को गले लगा लेना है – आत्महत्या करनी है।

कोविड और भारतीय शोधकर्ता

कोविड के आने के बाद तरह-तरह की बातें और थ्योरी मीडिया में आ रही थीं। कई जगह चीन पर सवाल उठे, आरोप लगे। ऐसे में  कुछ लोग ये साबित करने में लगे थे कि जिस कोविड ने दुनिया भर में तबाही मचाई है वो स्वभाविक है। हालाँकि भारतीय शोधकर्ता इसे मानने से इनकार करते रहे। इस मुद्दे पर एक रिसर्च करने वाले शोधकर्ता का कहना था कि वे लोग अपने निष्कर्ष पर कायम हैं कि SARS-CoV-2 स्वाभाविक नहीं है। उन्होंने ट्वीट किया था, ”हमने जनवरी 2020 में यह कहा था, हम आज यही फिर से कह रहे हैं (कोरोना स्वभाविक नहीं है)।”

काशी विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त करने का फरमान

काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के कारण इस साल ये धाम और इसका नाम सबके जहन में है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि औरंगजेब काल में इस मंदिर के साथ क्या हुआ। अगर नहीं तो आपको एक बार 18 अप्रैल 1669 की उस तारीख को याद करने की जरूरत है जब औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खाँ द्वारा लिखित ‘मासीदे आलमगिरी’ में इस ध्वंस का वर्णन है। इस पूरे वाकये पर ऑपइंडिया पर एक विस्तृत जानकारी है जो इस साल आपके साथ लेख के तौर पर साझा की गई थी।

सिनौली

इस वर्ष डिस्कवरी प्लस पर आई डॉक्यूमेंट्री ‘Secrets of Sinauli; प्राचीन सभ्यता के उस सच को उजागर किया था जिससे आजतक ज्यादातर लोग अंजान थे। इस डॉक्यूमेंट्री में मनोज वाजपेयी की आवाज के साथ विस्तृत बातचीत और ग्राफिक्स के सहारे उकेरी गई 5000 वर्ष पुरानी सभ्यता का वर्णन हमें देखने को मिला था, जिसने बताया था कि  हमारे यहाँ पनपने वाली एक छोटी सी सभ्यता भी अपने समकालीन विदेशी सभ्यताओं से कम से कम 5 सदी आगे थी।

NCERT का प्रोपेगेंडा

NCERT की किताबों में पढ़ाया जाने वाला इतिहास कितना प्रमाणिक है इसका खुलासा भी इसी साल हुआ। याद करवा दें कि इसी साल एक ऐसी आरटीआई के बारे में  मीडिया में खबरें छपीं थीं जिसमें सवाल किया गया था कि आखिर एनसीआरटी किन स्त्रोतों के आधार पर पढ़ा रहा है कि ‘जब (हिंदू) मंदिरों को युद्ध के दौरान नष्ट कर दिया गया था, तब भी उनकी मरम्मत के लिए शाहजहाँ और औरंगजेब द्वारा अनुदान जारी किए गए।’ लेकिन  NCERT का इस आरटीआई पर जवाब था- “जानकारी विभाग की फाइलों में उपलब्ध नहीं है।”

ऑपइंडिया स्टाफ़: कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया