शिया वक़्फ़ बोर्ड के पूर्व चेयरमैन वसीम रिज़वी ने सुप्रीम कोर्ट में कुरान की 26 आयत को हटाने के संबंध में याचिका दाखिल की है। उनका कहना है कि इन 26 आयत में से कुछ आतंकवाद को बढ़ावा देने वाली हैं, जिन्हें बाद में शामिल किया गया। इस याचिका के बद उनके खिलाफ मौलानाओं और कट्टरवादियों का आक्रोश आसमान छूने लगा है। मुरादाबाद बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ अधिवक्ता अमीरुल हसन जाफरी ने शनिवार (मार्च 13, 2021) को एक कार्यक्रम में उनका सर काट कर लाने पर 11 लाख रुपए के इनाम की घोषणा की।
इस तरह की याचिका आज असामान्य लग सकती है। लेकिन आपको बता दें कि आज से 36 साल पहले वकील चाँदमल चोपड़ा और शीतल सिंह ने कुरान पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने की माँग करते हुए कलकत्ता उच्च न्यायालय का रुख किया था। 29 मार्च, 1985 को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत एक आवेदन दायर किया गया था, जिसमें कलकत्ता उच्च न्यायालय से सरकार को ‘पवित्र पुस्तक’ की प्रत्येक प्रति को ‘जब्त’ करने का निर्देश देने की अपील की गई थी। याचिका में तर्क दिया गया था कि भारतीय दंड संहिता (IPC) धारा 153A और 295A के आधार पर कुरान की प्रत्येक प्रति दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 95 के तहत ज़ब्त किए जाने के लिए उत्तरदायी है।
चाँदमल चोपड़ा और शीतल सिंह ने ‘काफिरों’ के खिलाफ हिंसा को लेकर आवाज उठाई थी। उन्होंने कुरान के एक आयत को उद्धृत किया, जिसमें कहा गया था, “जब पवित्र महीने समाप्त हो जाते हैं तो जहाँ भी मूर्ति-पूजा करने वाले मिले, उसे मार डालो।” यह मामला शुरू में कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति खस्तगीर जे के समक्ष आया था।
उन्होंने इस याचिका पर विचार करते हुए दूसरे पक्षों को नोटिस भी जारी किया था। वरिष्ठ वकील सीएफ अली ने टिप्पणी की थी, “यह बेतुका है। पृथ्वी पर कोई भी नश्वर पवित्र धर्मग्रंथ को चुनौती नहीं दे सकता है और दुनिया की किसी भी अदालत को इस पर कोई अधिकार नहीं है।” जल्द ही, 70 से अधिक अधिवक्ताओं ने ‘खस्तगीर जे’ की अदालत का बहिष्कार करने का आग्रह करते हुए अन्य वकीलों से ‘आधिकारिक प्रस्ताव’ पारित किया।
मुस्लिम समूहों ने ऐतिहासिक याचिका का विरोध किया। जमात-ए-इस्लामी और केरल मुस्लिम एसोसिएशन ऑफ कलकत्ता जैसे कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों ने ‘कुरान रक्षा समिति’ की स्थापना की। हालाँकि, उन्होंने कानून-व्यवस्था के ‘डर’ से मामले में प्रतिवादी नहीं बनने का फैसला किया।
माकपा शासित पश्चिम बंगाल सरकार ने कलकत्ता उच्च न्यायालय में याचिका को लेकर कड़ा रुख दिखाया। हलफनामे में कहा था, “अदालत के पास कुरान पर फैसला सुनाने का कोई अधिकार नहीं है। दुनिया भर के मुसलमानों के पवित्र ग्रंथ प्रत्येक शब्द इस्लामी मान्यता के अनुसार अटल हैं।”
कांग्रेस और सीपीआई (एम) ने मिलाया हाथ
राज्य सरकार ने दावा किया था कि यह याचिका दुर्भावनापूर्ण इरादे से दायर की गई है और भारतीय इतिहास में ऐसी याचिका कभी दायर नहीं की गई। कॉन्ग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने भी वाम दलों के रूख का समर्थन करते हुए याचिका का विरोध किया। बढ़ते राजनीतिक दबाव के बाद न्यायमूर्ति खस्तगीर इस मामले से अलग हो गए और इसे न्यायमूर्ति सतीश चंद्र के न्यायालय में भेज दिया गया। राज्य के महाधिवक्ता एस. आचार्य की सलाह पर मामले को न्यायमूर्ति बिमल चंद्र बसाक की खंडपीठ को स्थानांतरित कर दिया गया, जिसने 17 मई 1985 को याचिका खारिज कर दी।
समीक्षा याचिका और तर्क
अधिवक्ता चाँदमल चोपड़ा ने अदालत के फैसले में कई ‘त्रुटियों’ का उल्लेख किया और इस तरह उस वर्ष के 18 जून को एक और आवेदन दायर कर फैसले की समीक्षा की माँग की। जस्टिस बसाक ने अपने पहले के फैसले में यह उल्लेख किया था कि कुरान दिव्य है और इसका कोई सांसारिक स्रोत नहीं है। उन्होंने यह भी कहा था कि न्यायालय ‘पवित्र पुस्तक’ से संबंधित मामलों पर विचार नहीं कर सकता है और यह अन्य धर्मों का अपमान नहीं करता है।
कलकत्ता कुरान याचिका किताब का प्रकाशन
याचिका खारिज होने के बाद, इतिहासकार सीता राम गोयल ने चंद्राल चोपड़ा के साथ मिलकर 1986 में ‘द कलकत्ता कुरान याचिका’ नाम की पुस्तक प्रकाशित की। इस पुस्तक में मुस्लिम तुष्टिकरण और छद्म धर्मनिरपेक्षता की वोट बैंक की राजनीति पर प्रकाश डाला गया है।
पुस्तक प्रकाशित होने के बाद, हिंदू रक्षा दल के अध्यक्ष इंद्र सेन शर्मा और सचिव राजकुमार आर्य को गिरफ्तार किया गया। उन्होंने ‘देश में दंगे क्यों होते हैं’ शीर्षक से कुरान की 24 आयत प्रकाशित की थी। उनका कहना था कि ये आयत मुसलमानों को अन्य धर्म के लोगों के खिलाफ लड़ने की आज्ञा देते हैं और जब तक इन आयत को कुरान से हटाया नहीं जाता, तब तक देश में दंगों को रोका नहीं जा सकता है।